शनिवार, 8 जून 2013

आपके वस्त्र आपकी सोच का पता नहीं देते

आपके वस्त्र आपकी सोच का पता नहीं देते : कविता वाचक्नवी



यद्यपि यह सही है कि हमें अपने आसपास के परिवेश को देखकर वस्त्रों का चयन करना चाहिए, जैसे क्लब में धोती और टोपी पहन कर जाने से अजूबे लगते हैं और अनाथालय में लाखों के हीरे जवाहरात पहन कर जाने से अजूबे। इसी तरह भारत या किसी भी क्षेत्र के स्थानीय परिवेश आदि के अनुसार वस्त्र पहनने से अजूबा नहीं लगते व न लोगों के ध्यानाकर्षण का केंद्र; किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि सिर पर कपड़ा लेने वालों को ही प्रार्थना और भक्ति का अधिकार है और प्रार्थना का पहरावे से कोई सम्बन्ध है या जिनके वस्त्र निश्चित श्रेणी के नहीं हैं उन्हें प्रार्थना या भक्ति का अधिकार नहीं या वे अयोग्य हैं। यदि युवक युवतियाँ मन्दिर या किसी प्रार्थनास्थल पर आधुनिक वस्त्र पहन कर आते हैं तो उनकी आलोचना करने या उन्हें दोष देने की अपेक्षा प्रसन्न होना चाहिए कि अत्याधुनिक जीवनशैली के लोग भी अपने मूल्यों या पारिवारिक संस्कारों को बचाए हुए हैं। 


आर्यसमाज के प्रकाण्ड विद्वान व विख्यात वैज्ञानिक स्वामी डॉ. सत्यप्रकाश सरस्वती (चारों वेदों के अंग्रेजी भाष्यकर्ता, पचासों अंग्रेजी हिन्दी पुस्तकों के लेखक, इलाहाबाद विश्वविद्यालय के केमिस्ट्री विभागाध्यक्ष व शब्दावली आयोग के स्तम्भ) अष्टाध्यायी पर एक संगोष्ठी की अध्यक्षता कर रहे थे तो कोट टाई में एक सज्जन जब बोलने उठे तो सभा में उपस्थित सभी लोग (सब मुख्यतः गुरुकुलों के ही लोग थे ) हँसने लगे व कहने लगे कि पहनते हैं कोट टाई और बोलेंगे पाणिनी पर। जब स्वामी जी अध्यक्षीय वक्तव्य देने लगे तो उन हँसी उड़ाने वालों के कटाक्ष का उत्तर देने के लिए बोले कि हमें सर्वाधिक गर्व है कोट-टाई वाले इन सज्जन पर कि अत्याधुनिक होते हुए भी वे पाणिनी का महत्व समझते हैं और उसका गहन अध्ययन किया है। 


इसी प्रकार वर्ष 2001/2002 में जब विद्यानिवास मिश्र जी से मेरी लम्बी बातचीत हुई [ जिसे 'हिन्दुस्तानी एकेडेमी, इलाहाबाद ' की पत्रिका 'हिन्दुस्तानी' ने विद्यानिवास जी पर केन्द्रित अपने विशेषांक (2009) में प्रकाशित भी किया ] तो विद्यानिवास जी ने उस समय एक बड़े पते की बात कही थी कि "कोई साड़ी में भी 'मॉड' हो सकता है और कोई स्कर्ट पहन कर भी दक़ियानूसी।" अभिप्राय यह कि पहरावा व्यक्ति के समाज की स्थानीयता, कार्यक्षेत्र व परिवेश आदि से जुड़ा होता है उसका व्यक्ति की सोच, विचारों और अच्छे-बुरे होने से कोई सम्बन्ध नहीं होता। न ही पहरावे को धर्म (?) व संस्कृति आदि से जोड़ कर देखा जाना चाहिए। 


भारत में पुरुष 50 वर्ष से भी पूर्व से पैंट-बुश्शर्ट और कोटपैण्ट आदि पहनते चले आ रहे हैं और इन्हें पहनने के चलते उनके संस्कारवान या संस्कारहीन होने पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता किन्तु स्त्रियों के संस्कारशील होने की पहचान उनका साड़ी पहनना ही समझते हैं; जो स्त्री साड़ी नहीं पहनती वह संस्कारहीन या मर्यादाहीन है, वह भारतीय नारी नहीं है। भारतीयता इतनी मामूली व हल्की चीज समझ ली गई है कि साड़ी पहनना ही भारतीय होना है और साड़ी न पहनना भारतीयता व संस्कारों से च्युत होना समझ लिया जाता है। कल स्त्रियों के एक परिचर्चासमूह में एक पत्रकार ने लिखा कि "मन्दिरों आदि में जीन्स इत्यादि पहन कर आने वाली मर्यादाहीन लड़कियों द्वारा स्त्री के सम्मान की बात करने का कोई औचित्य नहीं"। कितना हास्यास्पद है कि मर्यादा ऐसी चुटकी में हवा हो जाने वाली वस्तु हो गई है कि यदि लड़की जीन्स आदि पहन ले तो वह मर्यादाहीन कही जाएगी और उससे स्त्री के सम्मान के लिए कुछ भी कहने का अधिकार छीन लिया जाएगा व सम्मान पाने के अधिकार से भी उसे वंचित कर दिया जाएगा। 


यों भी स्त्री के वस्त्रों के अनुपात से उसके चरित्र की पैमाईश करने वाले कई प्रसंग उठते रहते हैं और स्त्री के वस्त्रों को उसके साथ होने वाले अनाचार का मूल घोषित किया जाता रहा है। जबकि वस्तुत: अनाचार का मूल व्यक्ति के अपने विचारो, अपने संस्कार, आत्मानुशासन की प्रवृत्ति, पारिवारिक वातावरण, जीवन व संबंधों के प्रति दृष्टिकोण, स्त्री के प्रति बचपन से दी गयी व पाई गयी दीक्षा, विविध घटनाक्रम, सांस्कृतिक व मानवीय मूल्यों के प्रति सन्नद्धता आदि में निहित रहता है। पुरुष व स्त्री की जैविक या हारमोन जनित संरचना में अन्तर को रेखांकित करते हुए पुरुष द्वारा उस के प्रति अपनी आक्रामकता या उत्तेजना को उचित व सम्मत सिद्ध करना कितना निराधार व खोखला है, इसका मूल्यांकन अपने आसपास के आधुनिक तथा साथ ही बहुत पुरातन समाज के उदाहरणों को देख कर बहुत सरलता व सहजता से किया जा सकता है।


वस्तुत: जब तक स्त्री - देह के प्रति व्यक्ति की चेतना में भोग की वृत्ति अथवा उपभोग की वस्तु मानने का संस्कार विद्यमान रहता है, तब तक ऐसे प्रत्येक व्यक्ति को सौ परदों में छिपी स्त्री को देख कर भी आक्रामकता व उत्तेजना के विकार ही उत्पन्न होते हैं| देह को वस्तु समझने व उसके माध्यम से अपनी किसी लिप्सा को शांत करने की प्रवृत्ति का अंत जब तक हमारी नई नस्लों की नसों में रक्त की तरह नहीं समा जाता, तब तक आने वाली पीढ़ी से स्त्रीदेह के प्रति 'वैसी" अनासक्ति की अपेक्षा व आशा नहीं की जा सकती| योरोप का आधुनिक समाज व उसी के समानान्तर आदिवासी जनजातियों का सामाजिक परिदृश्य हमारे समक्ष २ सशक्त उदाहरण हैं। असल गाँव की भरपूर युवा स्त्री खुलेपन से स्तनपान कराने में किसी प्रकार की बाधा नहीं समझती क्योंकि उस दृष्टि में स्तन यौनोत्तेजना के वाहक नहीं हैं, उनका एक निर्धारित उद्देश्य है, परन्तु जिनकी समझ ऐसी नहीं है वे स्तनों को यौनोत्तेजना में उद्दीपक ही मानते पशुवत् जीवन को सही सिद्ध किए जाते हैं और अपनी उस दृष्टि के कारण जनित अपनी समस्याओं को स्त्री के सर मढ़ते चले जाते हैं ।


जो लोग स्त्री के वस्त्र देखकर सम्मान करते-न करते हैं, वे वस्तुतः स्त्री का नहीं, उसके वस्त्रों का सम्मान करते हैं और सच बात तो यह है कि वे स्त्री की देह पर ही अटके रह जाते हैं व देह से उबरने या उस से आगे जाने/ परे जाने की योग्यता ही उनमें नहीं होती, वे स्त्री को भोग के उपादान की भाँति देखते हैं। कोई इन तथाकथित 'भद्र' (?) लोगों से पूछे कि भई आप क्यों सिर पर पगड़ी नहीं पहनते और क्यों कोट पैण्ट शर्ट आदि पहनते हैं, आपके यह सब पहनने से मर्यादा क्यों नहीं भंग होती? 


सच बात तो यह है कि हमें, आपको व सबको प्रसन्न होना चाहिए कि जीन्स आदि पहनने वाली बच्चियाँ भी अभी आपके पारिवारिक मूल्यों व शिक्षाओं आदि के संस्कारों को अपनाए हुए हैं और उनमें रुचि लेती हैं। लेकिन उस से उल्टा सोच कर बच्चियों पर कटाक्ष करना और उनके अधिकारों व सम्मान के औचित्य पर प्रश्नचिह्न लगाना मूर्खता व अज्ञान से अधिक कुछ भी नहीं है। यह एक प्रकार से स्त्रीशोषण, पितृसत्तात्मकता व देहवाद से इतर अन्य कुछ भी नहीं है। ऐसे लोगों के दिमाग के जाले साफ करने के लिए सब को मिल कर आगे आने होगा व प्रयास करने होंगे।

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इसी विषय पर एक संवाद/परिचर्चा यहाँ भी पढ़ी जा सकती है - "डिफ़ेन्स मैकेनिज़्म है स्त्री की लपेट"

5 टिप्‍पणियां:

  1. सही है! कपड़े से अगर लोग आधुनिक होते तो फ़िर बात की क्या थी। सारी दुनिया के एक झटके में बदल जाते।

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  2. वस्त्र निश्चय ही चरित्र के बारे कुछ नहीं कहता है, पर सामान्य से बहुत बाहर जाने पर विद्रोह ही झलकता है, चरित्र नहीं।

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  3. kavita ji aapne shri vidhya nivas mishra ji ki yah baat likhi hai ki koi sari pahankar bhi maad ho sakta hai or koi skart pahankar bhi dkiya noosi bahut vichar poorn or sahi hai
    mai yah bhi kahna chahta hun ki pade likhe log samajhdar bhi ho yah paimaana sahi nahi hai jabki anpad log bhi samajhdar ho sakte hai
    dhanyabad

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  4. अपने लिये वस्त्रों का चुनाव समय,सुविधा,स्थिति और उपयुक्तता के अनुसार करने
    की सबका अपना निर्णय होता है हरेक की अपनी जीवन-पद्धति भी.आज के दौड़-भाग भरे जीवन में(बाहर निकलनेवाले लड़के कब से अपनी वेष-भूषा बदल चुके) लड़कियों की भूमिका भी अब उनके लगभग समान है वे अपनी सुविधा से रहें तो उन पर आक्षेप क्यों?
    वैसे आक्षेप वही लोग करते हैं जिनने आँखें खोल कर दुनिया देखना नहीं सीखा ,अपनी दीवारों में रुके रह गये.

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  5. आपने लिखा....हमने पढ़ा
    और लोग भी पढ़ें;
    इसलिए आज 16/06/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक है http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
    आप भी देख लीजिए एक नज़र ....
    धन्यवाद!

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