महिलाओं के दोष : कविता वाचक्नवी
तीन वर्ष पहले (आज ही के दिन जब यह लेख लिखा गया था) एक तथाकथित लेखिका (म.ग.) के लेख में लिखे गए शब्द थे - "मेरे द्रष्टिकोण से "सर्वोतम माँ " वो है जो प्रारम्भ से अपने बेटे को स्त्री जाति का सम्मान करना सिखाती है। जो पुरुष स्त्री जाति को हीन भावना से देखते हैं, उन के विकास में बाधक बनते हैं, उन के प्रति दुर्व्यवहार करते हैं ,हाथ उठाते हैं, बलात्कार करते हैं उन की हत्या करते हैं ,ये सब एक असफल माँ की "अमानुष" संतान होते हैं ". ……
पहले भी अनेक महिलाओं के इस प्रकार के वक्तव्य पढ़ती आई हूँ, कई महिलाएँ तो मेरे यहाँ आकर इस तरह के अपने विचार लेकर मुझसे दूर तक झगड़ती रही हैं, उन्हीं दिनों एक महिला (अ.भा.) लंबा युद्ध छेड़े रही महिलाओं के विरोध में मेरे यहाँ फेसबुक पर।
वस्तुतः महिलाओं को दोष देने की यह प्रवृत्ति पुरुषवादी सोच का परिणाम है। अतः इसीलिए मेरा विरोध पुरुषों से नहीं अपितु पुरुषवादी सोच से है, चाहे वह स्त्रियों में हो या पुरुषों में। अधिकाँश स्त्रियों की कंडीशनिंग ही ऐसी होती है।
उक्त महिला की माओं को कटघरे में खड़ी करने वाली प्रारम्भ में लिखी बात पर, मेरी दो-तीन आपत्तियाँ हैं, वे संक्षेप में इस प्रकार समझी जा सकती हैं।
उक्त महिला की माओं को कटघरे में खड़ी करने वाली प्रारम्भ में लिखी बात पर, मेरी दो-तीन आपत्तियाँ हैं, वे संक्षेप में इस प्रकार समझी जा सकती हैं।
- पहली बात उनका वह स्टेटस उसी भावना से प्रेरित लगता है जैसे 60-100 साल पहले 'स्त्रियाँ सन्नारी कैसे बनें', 'पत्नी पथ प्रदर्शक' आदि पुस्तकें तमाम लोगों ने लिखीं, जो ये समझते थे कि स्त्रियों को सुधारना चाहिए, हमें स्त्रियों को सुधारना है, हमें स्त्रियों को सही पथ पर चलाना है, स्त्रियाँ मूर्ख, अशिक्षित और असभ्य होती हैं, उन्हें शिक्षित करने और घर गृहस्थी, पति की सेवा, बच्चे पालन, सन्नारी व सु-नारी बनने के उपदेशों की आवश्यकता है और घर चलाने, पति की सेवा करने, बच्चों को पालने, सास ससुर की सेवा करने, पति का आज्ञा पालन करने, पति को परमेश्वर समझने, सिलाई बुनाई करने में अपना समय लगाने, इधर-उधर की बातों में न फँसने की शिक्षा पुरुषों द्वारा दी जानी चाहिए। इसलिए लोगों ने स्त्री को उपदेश देने वाली पुस्तकें लिखीं ताकि स्त्रियाँ सुधरी रह सकें।
- दूसरी बात, बच्चे कभी उपदेशों से नहीं सीखते, न सिखाने से सीखते हैं। बच्चे केवल और केवल आचरण से सीखते हैं। माँ या पिता भले ही उन्हें लाख उपदेश देते रहें, वे इन उपदेशों और आदेशों से कुछ नहीं सीख सकते, क्योंकि बच्चे केवल आचरण से सीखते हैं। उनके घर-परिवार में या फिर समाज में क्या व्यवहार होता है, वे इस से सीखते हैं।
माँ उन्हें लाखों सदुपदेश भली ही दे भी ले, तब भी यदि घर के लोगों या पिता का व्यवहार उन संस्कारों के अनुकूल या मेल न खाता हुआ है, तो बच्चे उन उपदेशों से कभी नहीं सीखेंगे अपितु वही सीखेंगे जो वे अपने घर में देखते हैं।
साथ ही ध्यान रखने की बात यह है कि कितने प्रतिशत भारतीय परिवारों में स्त्री को पारिवारिक निर्णय या संतान के निर्णय लेने का अधिकार होता है ? स्त्रियाँ अपने जीवन के निर्णय लेने तक में स्वतंत्र नहीं होतीं, भला क्या तो वे संतान के जीवन के निर्णय लेंगी ! जो कुछ वे सिखाना-बनाना चाहती होंगी अपने बच्चों को, पूरा परिवार मिलकर एक झटके में उस पर पानी फेर देता है। उदाहरण स्वरूप, स्त्री सिखाए कि शराब पीना गलत है, न पियो, किन्तु यदि पिता ही रोज पीता है और पीटता व झगड़ा करता है तो क्या स्त्री का बस चलता है? संतान वही सीखेगी जो वह देखती है। सारे संस्कार धरे रह जाते हैं। इसलिए ऐसी बातें वे स्त्रियाँ कर सकती हैं जो अपने घरों में बैठी सौभाग्य से अपने अच्छे मिले पति के कारण सारी दुनिया की स्त्रियों को वैसा ही समझती हैं और संसार के सारे दुष्कर्मी पुरुषों की बुराइयों का दोष उनकी माओं के मत्थे मढ़कर उन्हें ही नाकारा और अपराधिनी घोषित करती हैं।
संतान के दुष्कर्मी या बुरे आदि होने का आरोप या तो बराबर सब (समाज, परिवार, पिता व अंत में माँ) पर है, अन्यथा अकेले माँ पर तो कदापि नहीं है, जब तक कि पिता सहित पूरा परिवार माँ का सहयोगी न हो। इसलिए सर्वोत्तम माँ की अपेक्षा सर्वोत्तम पिता की बात लिखनी चाहिए। सर्वोत्तम माँ की बात लिखना नीच संतान या नीच, अमानुष व दुष्ट संतान के अपराधी या अमानुष होने का आरोप माँ पर लगाने जैसा है।
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