जसोदाबेन का पत्नीत्व : कविता वाचक्नवी
मैं स्त्रियों व उनके अधिकारों की समर्थक हूँ किन्तु स्त्रियों को आगे कर उनके नाम पर अपना मंतव्य सीधा करने वालों व उनकी महत्वाकांक्षाओं की नहीं और उन स्त्रियों की भी नहीं जो ऐसा करती या माध्यम बनती हैं।
मैं स्त्रियों व उनके अधिकारों की समर्थक हूँ किन्तु स्त्रियों को आगे कर उनके नाम पर अपना मंतव्य सीधा करने वालों व उनकी महत्वाकांक्षाओं की नहीं और उन स्त्रियों की भी नहीं जो ऐसा करती या माध्यम बनती हैं।
जसोदाबेन लगभग 50 बरस से अलग रह रही हैं और वे कोई अनपढ़ या दूसरों पर निर्भर हो कर नहीं बल्कि पढ़ी लिखी हैं, जॉब करते हुए। इन पचास बरसों में उन्हें अपने पति से अधिकार लेने और उनके साथ बसने का ख्याल और अदालत को बीच में डाल कर अपने अधिकारों की जानकारी लेने का ख्याल नहीं आया ? इतनी लम्बी अवधि तक उनके पति गुजरात के मुख्यमन्त्री थे तब भी उनकी महत्वाकांक्षाएँ या अधिकारभावना या जानकारी प्राप्त करने की कभी सुध नहीं जागी। अब पूर्व पति के प्रधानमन्त्री बनते ही अधिकारों की याद आ गई, पति के साथ रहने की इच्छा का सार्वजनिक उद्घोष और प्रचार होने लगा। अब वे ऐसे व्यवहार कर रही हैं जैसे वे एकदम मूढ़ और अपढ़ हैं और यह भी जानतीं कि मीडिया को क्या कहना है, क्या नहीं कहना या क्या करना है क्या नहीं करना।
50 बरस के बाद अब पत्नी के अधिकारों और साथ बसने की याद आ गयी और समाज व् मीडिया के सामने एकदम वंचित और पीड़ित होने का प्रदर्शन होने लगा जबकि अध्यापिका रही पढ़ी लिखी हैं और आत्मनिर्भर रही हैं।
अब पति प्रधानमन्त्री बन गए तो सारे अधिकारों की याद आ गयी। इसे ही कहते हैं कि जब व्यक्ति शिखर पर पहुँच जाता है तो सबको अपने युगों से ख़त्म हुए रिश्ते याद आने लगते हैं।
जसोदाबेन के इस व्यवहार के पीछे उनके मायके परिवार की लालसाओं की बड़ी भूमिका प्रतीत हो रही है। वे जसोदाबेन को आगे कर अपने इरादे पूरे करने, प्रधानमन्त्री के रिश्तेदार होने का लाभ लालच पूरा करना चाहते हैं, यही साफ़ दिखाई देता है और सम्भव है कि उस परिवार को ऐसा करने के लिए उकसाने और अपनी बहन जसोदाबेन पर दबाव बनाने के लिए उकसाया जा रहा हो। मीडिया को दबी कुचली शोषित स्त्रियों के अधिकारों की चिंता से अधिक आत्मनिर्भर और लालसाओं वाले रिश्तेदारों के ईशारों व चर्चा में आने के लिए 50 साल बाद पत्नी के अधिकारों का ढिंढोरा पीटना शुरु करने वाली एक आत्मनिर्भर रही स्त्री के अधिकारों की स्वार्थी चिन्ता ज्यादा है।
आज अब यकायक क्या बदल गया ? जो लोग इस अवसर पर त्याग को मुद्दा बना कर सहानुभूति का खेल खेल रहे हैं वे जान लें कि यहाँ मुद्दा त्याग का नहीं है। त्याग क्या मोदी जी ने नहीं किया ? क्या मोदी जी ने पुनर्विवाह किया ? फिर इस तरह के मुद्दे उठाने का क्या मतलब है त्याग आदि के ? या जिन पर पहले बात हो चुकी है, पति पत्नी सम्बन्धों आदि के। उन पर बहुत अधिक बहुत पहले लिख चुकी हूँ। उनकी चर्चा करने के इच्छुक लोग यहाँ अपना व मेरा समाय व ऊर्जा बर्बाद न करें अगर उन्होने वे सब चीजें यहाँ पढ़ी या समझी नहीं हैं, जब लिखी गई थीं।
यदि असुविधा के अतिरिक्त कोई मुद्दा ही नहीं है तो मीडिया के सामने अन्य चीजों पर बयान देने से बचा तो जा सकता है, किसी ने हलक में हाथ डाल कर नहीं कहा कि कैमरे के आगे दूसरे मुद्दों पर बोलो। यह सरासर सहानुभूति के नाम पर द्रवित हो उठने वाली जनता से सहानुभूति बटोरने का प्रयास है।
रही अलग रहने के कारण उनसे सहानुभूति करने वालों की बात, तो उन लोगों को पता होना चाहिए कि इस देश दुनिया में प्रतिदिन कई लाख पति पत्नी अलग होते हैं, तलाक लेते हैं, उनकी नहीं बनती। यदि आप लोगों को सहानुभूति और अन्याय दिखाई देता है तो जाकर उनके लिए लड़िए। जिस दुनिया में तीन बार तलाक बोलकर छोड़ दिया जाता है, उनके लिए लड़िए और संसार में में सभी जगह तलाक या सेपेरेशन बंद करवाइए। जिस पति या पत्नी को अपने साथी में रुचि ही न हो उसके साथ जीवन बिताना उस से अलग जीवन बिताने से कई सौ गुना बुरा है। पति पत्नी किसी कारण से अलग हो गए, इसमें कुछ भी अनूठा नहीं है, न संसार में पहली बार हुआ है। मैं कई माह पूर्व भी विस्तार से लिख चुकी हूँ कि इसका अधिकार जोड़े को है कि वह साथ रहना चाहता है या नहीं। हमारे यहाँ महादेवी वर्मा स्वयं इसका उदाहरण हैं कि वे अपने पति के साथ नहीं रहना चाहती थीं अतः उन्होने उस विवाह को नहीं माना और अलग रहीं। न उन्होने पुनर्विवाह किया न कोई अपराध। इसी तरह मोदी जी ने न पुनर्विवाह किया और न ही कुछ और। मोदी जी ने भी यह सारा जीवन भीषण संकटों में काटा है, दर दर भटके हैं। इसलिए आज वे प्रधानमंत्री बन गए तो आप लोगों को मौका मिल गया उनके जीवन के नियामक बन फैसले सुनाने का ?
असल में राजनैतिक शत्रुओं को और कोई मौका नहीं मिल रहा लांछन लगाने का तो यही एक मुद्दा सही। और ये सब वे लोग हैं जिन्होंने व्यभिचारी मंत्रियों और नेताओं की घरों पर सड़ रही पत्नियों के दु:खो और पीड़ाओं पर कभी कोई घड़ियाली आँसू तक भी नहीं बहाया । और इनमें से अधिकांश जिस वर्ग के हैं उस वर्ग के लोगों की बीवियाँ गाँवों में इनके बच्चे पालती सड़ती रहती हैं और ये दूसरी औरतों के साथ खुलेआम पत्नी की तरह शहरों में रहते गुलछर्रे उड़ाते हैं, यह मटुकनाथ को जायज सिद्ध करने वाली जमात है, ये हिन्दी साहित्य के उस वर्ग के प्रतिनिधि हैं, जहाँ प्रत्येक विवाहित पत्रकार, अध्यापक, संपादक, लेखक अपनी छात्राओं, पाठिकाओं व प्रशंसिकाओं के शोषण और प्रेम में सरेआम संलिप्त होता है। इसलिए इनका चरित्र हम जानते हैं, उस पर हमारा मुँह न ही खुलवाया जाए तो अपनी इज्जत बचाए रख सकते हैं ये ।
स्त्रियॉं के साथ सहानुभूति रखने वाले ऐसे स्त्रीशोषकों को उन स्त्रियों के शोषण की याद नहीं आती, जहाँ वास्तव में शोषण हुआ है। दिग्विजय से लेकर एक एक आदमी नंगा है और स्त्री शोषण में संलिप्त। जसोदाबेन के कितने हमदर्दों ने जाकर दिग्गी सहित एक एक शोषक से शोषित होने वाली किसी महिला के पक्ष में आवाज़ उठाई ?
कमलेश जी, भारत की मूल समस्या ही यही है कि वहाँ कोई व्यक्ति अपनी तरफ से किसी चीज में कुछ भी सार्थक योगदान नहीं देता न देना चाहता है, उल्टे बिगाड़ने में सब एक से बढ़कर एक आगे रहते हैं। भारत की बरबादी का मूल कारण ही यही है कि योगदान की बजाय सबको केवल शिकायतें शिकायतें शिकायतें ही करना आता है। किसी को कुछ काम धंधा नहीं है सिवाय दुनिया जहान से दुनिया जहान भर की शिकायतें करने के। केवल मुंह चलाना और यह बताना की फलाने ने ऐसा गलत किया ठिकाने ने यह क्यों किया, यह ऐसा होना चाहिए यह वैसा होना चाहिए आदि अनादि। जो व्यक्ति स्वयं कुछ सार्थक योगदान नहीं देता उसकी शिकायतें सबसे ज्यादा .... वाह कमाल है !
एक मनुष्य होने के नाते जसोदाबेन के प्रति पूरा सम्मान है और उनके मौलिक अधिकारों के प्रति भी। वे एक साधारण स्त्री हैं और शांति से जी रही थीं, किन्तु बदमाश मीडिया और विरोधी पार्टियों के हाथ एक अस्त्र लग गया है और इस तरह वे उन्हें इस्तेमाल करते हुए उनकी शांति भंग कर रहे हैं। एक साधारण सामान्य ढंग से जीने वाली स्त्री को शांति से जीने दे लेना चाहिए। भगवान के लिए उन्हें शांति से जीने दो।
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जिन्हें पति पत्नी सम्बन्धों के चलते सहानुभूति हैं, वे डॉ दीप्ति की 24 मई की निम्नलिखित स्टेटस व वहाँ चली परिचर्चा को ध्यान से पढ़ें। यहाँ पर अपनी टिप्पणियों में मैंने कुतर्कों के उत्तर दे ही दिए हैं।
पहले दीप्ति जी की यह प्रतिक्रिया व स्टेटस -
एक मनुष्य होने के नाते जसोदाबेन के प्रति पूरा सम्मान है और उनके मौलिक अधिकारों के प्रति भी। वे एक साधारण स्त्री हैं और शांति से जी रही थीं, किन्तु बदमाश मीडिया और विरोधी पार्टियों के हाथ एक अस्त्र लग गया है और इस तरह वे उन्हें इस्तेमाल करते हुए उनकी शांति भंग कर रहे हैं। एक साधारण सामान्य ढंग से जीने वाली स्त्री को शांति से जीने दे लेना चाहिए। भगवान के लिए उन्हें शांति से जीने दो।
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जिन्हें पति पत्नी सम्बन्धों के चलते सहानुभूति हैं, वे डॉ दीप्ति की 24 मई की निम्नलिखित स्टेटस व वहाँ चली परिचर्चा को ध्यान से पढ़ें। यहाँ पर अपनी टिप्पणियों में मैंने कुतर्कों के उत्तर दे ही दिए हैं।
पहले दीप्ति जी की यह प्रतिक्रिया व स्टेटस -
डॉ. दीप्ति भारद्वाज says
May 24 ·मोदी जी , ये कैसी महत्वाकांक्षा -------
क्यों हर बार रामराज्य की स्थापना के लिए सीता की ही अग्नि परीक्षा होती है ? क्यो सीता ही वनवास भोगे ? क्यों पुरुष की अतिशय महत्वाकांक्षा स्त्री के अस्तित्व को नकारती है ? क्यों हर बार स्त्री का ही बलिदान क्यों ? कृष्ण को द्वारिका बसाने के लिए रुक्मिणी को साथ लेना पड़ा था।
मोदी जी ये जीत तब तक अधूरी है जब तक आप अपनी अर्धागिनी को उचित सम्मान नही देते ? मोदी जी हर माँ आप जैसे पुत्र की कामना करेगी पर हर स्त्री आपसे डरेगी। आपने भारत के लिये जो साधना की वो तब तक बेमानी है जब तक उस साधना की मौन साधिका जसोदाबेन को उनका मान न मिले। आपने जो किया वह दुनिया ने देखा लेकिन. उसके लिए किसी स्त्री ने अपने सपनों और आकाँक्षाओ की बलि दी। भरी जवानी में खण्डित दाम्पत्य को जिया। फिर भी आपके लिए मंगलकामनाए कीं ।
क्या माँ की तरह ही उस मौन साधिका को प्रधानमंत्री बने पति से मिलना नही चाहिये ।
मोदी जी आपकी ये जीत स्त्री की एकान्तिक साधना के सहयोग से सम्भव हो सकी । कितनी पीड़ा झेली है जसोदाबेन ने जब लोग उन्हें दयाभाव से देखते रहे होंगे । कितना कष्ट रहा होगा उन्हें जब सब होते हुए भी कुछ नही के दंश को पीया होगा।
मोदी जी कभी बचपन में ये भजन सुना था आज आपको सुनाती हूँ -
कान्हा रे तू राधा बन जा भूल पुरुष का मान
तब होगा तुझको राधा की पीड़ा का अनुमान ।
मैं तो पूरी खुशी नही मना पा रही ।
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आपने जो सवाल उठाया है, वह भारत कम लेखकों ने ही उठाया है
जवाब देंहटाएंइन संवादों द्वारा बहुत सी बातें सामने आईं .इस समय की माँग है मोदी जी निरुद्विग्न मन से ,जो बीड़ा उन्होंने उठाया है उसका निर्वाह करें .अब तक जिस ओर प्रवृत्ति नहीं जागी कह-सुन कर उस ओर उन्मुख करने से किसका भला होगा?जसोदा बेन ने पूरी निष्ठा से जीवन जिया -दोनों ने महत् उद्देश्यों के लिए बहुत से प्रलोभन त्याग कर अपने जीवन को ढाला है ,अब( लोगों के पूछने- उकसाने पर भी) सबके बीच वह सब विवाद का विषय बना कर कर अपना गौरव कम न होने दें .परस्पर संवाद से जो समाधान मिल सकता है वह सार्जनिक विषय न बने तो शोभनीय होगा .
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