पुस्तकें अ-वाक् हैं ! - कविता वाचक्नवी
आज 'जनसत्ता' के "रविवारी" परिशिष्ट में मेरा एक लेख प्रकाशित हुआ है "किताब की जगह" शीर्षक से। उस लेख का मूल अविकल पाठ प्रकाशनोपरांत अपने ब्लॉग के पाठकों के लिए भी यहाँ प्रस्तुत कर रही हूँ - "पुस्तकें अ-वाक् हैं"।
दिल्ली से लेकर देश के अलग स्थानों में क्रम से पुस्तक-मेला आयोजित हो रहे हैं, उधर जयपुर में अभी अभी साहित्यिक-मेला सम्पन्न हुआ है। ऐसे में अधिकांश साहित्यिक मित्र पुस्तकों की खरीद और लेखकों के संवादों में गुम हैं। पुस्तकें केंद्र में हैं, चर्चा के केंद्र में भी व देश के केंद्र (राजधानी ) में भी। मन पुस्तकमय तो सदा ही रहता है परंतु अभी अवसर गंभीर है .....पुस्तकमय वातावरण है, कह लेना प्रासंगिक होगा। मैंने अपनी पुस्तकें कभी किसी को न देने का नियम बना रखा है। पुस्तकों को अत्यंत सहेज कर करीने से व जान से भी अधिक सम्हाल के साथ रखने की आदत है। जबकि अनुभव यह बताता है कि अधिकांश लोग पुस्तकों के प्रति अत्यधिक क्रूर होते हैं। वे समाचारपत्रों की भांति पुस्तकों को भी तोड़-मरोड़ कर पन्ने मोड़ते हुए, कभी जिल्द की ओर पीठ मिलाते हुए आदि-आदि ढंगों (?) से कभी भी, कहीं भी व कैसे भी रख देते हैं। धूल-मिट्टी की तो क्या कहें दूसरी भी जाने खानपान आदि की कैसी-कैसी गंदगी व दाग-धब्बे उन पर लगते रहते हैं।
यदा-कदा किसी कारण-विशेष से अपने संकलन की कोई पुस्तक जब-जब किसी को दी, पुस्तक की दुर्गत हो गई और इस कारण वह व्यक्ति सदा के लिए मन में अपराधी की तरह स्थापित हो गया.... संबंध बिगड़ गए। पुस्तकों के प्रति अपनी इस अति सावधानता के चलते देश-विदेश से महँगे-महँगे व तरह तरह के 'बुकमार्क' खरीदने का भी शौक साथ पलता रहा। पति देश-विदेश से सुंदर-सुंदर कीमती 'बुकमार्क' उपहार मेरे लिए साथ ले कर आते।
पुस्तकें जब-जब यदा-कदा किसी को दीं, वे बिगड़ी व बुरी अवस्था में ही वापिस मिलीं, किसी के पन्ने झूल रहे होते, किसी के मुड़े-तुड़े, किसी की जिल्द फट गई होती, किसी का पन्ना गायब होता, किसी पर चाय के कप रखने के या चाय को ढकने के धब्बे मिलते... यानि पुस्तकों के प्रति बरती जाने वाली अपार निर्ममता से मेरा कलेजा चाक चाक हो जाता और क्रोध व व्यक्ति के प्रति घृणा से जाने कितना खून जलता व मन कलपता।
..... और तो और उस अज्ञात व्यक्ति के विरुद्ध गत 8-9 वर्ष से मन क्रोध से भरा है, जो हमारे संकलन से 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' (डॉ. नगेन्द्र ) को ऐसा ले गया कि आज तक वह पुस्तक वापिस नहीं लौटी। इतनी क्रूर सावधानी के बावजूद किसने, कब व कहाँ वह पुस्तक चुराई, यह आज तक पहेली है।
प्रत्येक कुछ दिन बाद यह बात मन को घेर लेती है और मन क्षोभ से भर उठता है। भले ही पुस्तक का दाम कोई बहुत अधिक नहीं है और सर्वसुलभ है यह पुस्तक, किन्तु पुस्तकों के प्रति यह अनाचार सहनशक्ति से परे हो जाता है।
भले ही यहाँ इस आदत व बात के विरोध में व्यक्ति व संबंध को पुस्तकों से अधिक महत्व देने का तर्क लाया जा सकता है अथवा पुस्तकों को अधिकाधिक लोगों तक पहुँचाने व अपने तक सीमित न रखने के तर्क द्वारा इस का भरपूर खंडन किया जा सकता है किन्तु ये सब तर्क अपनी अति मूल्यवान वस्तु के साथ लगाकर देखें तो क्षण-भर में ये धराशायी हो जाएँगे। ऐसे तर्क देने वालों से यह पूछना अनिवार्य है कि क्या वे अपने स्वर्णाभूषण व अन्य अनमोल वस्तुएँ इस बाँट कर बरतने के तर्क से बरतते हैं?
जब भी किसी की पुस्तक लें, उसे जी-जान से सहेज कर रखें। अपनी पुस्तकों को भी सदा बहुत सावधानी व सफाई से सतर्कतापूर्वक बरतें, पढ़ें। आपने-हमने भले ही कागज, जिल्द व प्रकाशन का दाम चुका दिया है किन्तु उसमें निहित लेखक के ज्ञान का दाम हम कभी चुका नहीं सकते। केवल उसका सम्मान करके ही अपनी कृतज्ञता ज्ञापित कर सकते हैं और अपने आसपास के लोगों को यह समझा-बता सकते हैं कि पुस्तकें भी मूल्यवान वस्तु होती हैं, उनका मोल समझा जाना चाहिए, उन्हें भी अतिमूल्यवान वस्तुओं की भांति सुरक्षा और सतर्कता चाहिए। बचपन में जब कभी कोई पुस्तक गलती से गिर जाती या पैर आदि छू जाया करता था तो मशीनी गति से अपने आप बिना विचारे उसे उठाकर सिर से लगाए जाने की क्रिया दुहराई जाती थी... । वस्तुत: ठोस यथार्थवादी की दृष्टि से देखें तो पुस्तक जड़ पदार्थ है, उसे गिरने या सिर पर रखने से कोई सुख दु:ख नहीं होता किन्तु अपने मन के संस्कारों को सही दिशा देने के लिए यह अनिवार्य था कि बच्चों को ज्ञान का मूल्य पता हो और उनमें ज्ञान को पददलित करने के प्रति अपराधभाव पैदा हो.... । आवश्यक नहीं कि प्रत्येक बालक लेखक ही बनता हो किन्तु यह भी कहाँ अनिवार्य है कि लेखक होने के नाते ही पुस्तक का सम्मान किया जाए ? पुस्तक-संस्कृति को विकसित करने की दृष्टि से पुस्तकों का सम्मान किया जाना अनिवार्य है।
यों तो यूनेस्को द्वारा 1995 से 'विश्व पुस्तक दिवस' 23 अप्रैल को मनाया जाता है किन्तु यहाँ ब्रिटेन में प्रत्येक वर्ष मार्च के प्रथम गुरुवार को 'पुस्तक-दिवस' मनाए जाने की परंपरा तत्कालीन प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर ने 1998 में स्थापित की। इस दिन प्रत्येक छात्र को एक ‘वाऊचर’ भेंट दिया जाता है, जिस से वह अपनी पसंद की पुस्तकें खरीदता है। इसके अतिरिक्त बच्चों व सर्वसाधारण में पुस्तकों के प्रति प्रेम के लिए पुस्तकालय दिवस भी प्रतिवर्ष मनाया जाता है। यह प्रत्येक फरवरी के प्रथम अवकाश (शनिवार) को होता है। इस वर्ष इसका आयोजन 9 फरवरी को है। इस दिन प्रत्येक परिवार अपने-अपने मोहल्ले में स्थित पुस्तकालय में जाता है व स्वयंसेवा की जाती है। पुस्तकालय की साफ-सफाई के अतिरिक्त व्यवस्था, कैटलॉग, सजावट, जिल्द लगाना आदि बीसियों काम लोग स्वेच्छा से व निश्शुल्क करते हैं। पश्चात् 'लाइब्रेरियन' का सम्मान आयोजित होता है व लेखकों से आमने-सामने सीधे संवाद का आयोजन किया जाता है। लोग अपने घरों की पुस्तकें पुस्तकालय को दान स्वरूप भेंट भी करते हैं। लेखकों की पुस्तकों पर उनके हस्ताक्षरों सहित खरीद का विकल्प भी दिया जाता है।
हमारे हिन्दीभाषी समाज व भारतीय पुस्तकालयों में पुस्तकों का यह सम्मान अनूठी चीज हो सकता है। यद्यपि वसंत पंचमी के दिन कभी इसका प्रावधान भारतीय समाज में भी था; किन्तु समय के साथ इन चीजों को ढकोसला, ढोंग व पोंगापन समझा जाने लगा है और पुस्तकों की घटती लोकप्रियता व पठनीयता के संकट ने रही सही कसर पूरी कर दी है। लोग क्रमश: पुस्तकों को जड़ पदार्थ समझ कर उनके प्रति असवाधान तो हुए ही हैं, उनमें निहित ज्ञान के प्रति भी असावधान हुए हैं। सबसे बड़ा ज्ञान अब वही है जो सबसे अधिक धनार्जन करवा सकता हो। अर्थात् मूल में धन आ गया है। ज्ञान हाशिये पर है तो पुस्तकें भी हाशिये पर रहेंगी ही। कुछ लोग उनके हाशियाकरण पर विचलित भले रहें ... रहें तो रहें ! मस्तिष्क को आहार देने का प्रावधान नहीं होने से क्या व्यक्ति और समाज संतुलित स्वस्थ हो सकते हैं ? विचार करना होगा ! पुस्तक संस्कृति विकसित करने के लिए पुस्तकों को मूल्यवान वस्तु समझने का संस्कार बनाना अनिवार्य है और मूल्यवान पदार्थों की रखरखाव कैसे की जाती है, यह सामान्य से सामान्य व्यक्ति भी जानता है। वैसा ही रख-रखाव पुस्तकों को भी चाहिए, भले ही उनका मुद्रामूल्य बहुत कम हो।
यों यह बात भी कम आश्चर्य की नहीं है कि एक ओर हम पुस्तकों की खरीद न होने व पठनीयता तक के ह्रास के पीछे उनका मुद्रामूल्य अधिक होने का तर्क देते हैं और दूसरी ओर सस्ती से सस्ती वस्तु तक से अधिक निरादर देते हुए उनके रखरखाव व सम्हाल के प्रति इतने अ-जागरूक हो जाते हैं कि घरों में तो क्या पुस्तकालयों तक में पुस्तकों की दुर्दशा रोंगटे खड़े कर देने वाली है। उदाहरण देना भी बेमानी है, क्योंकि जिन्होंने नामचीन पुस्तकालय व गोदाम सच में गहराई से खंगाले होंगे वे इस बात से परिचित होंगे। हाशिये से बाहर धकेल दी गई पुस्तक-संस्कृति सामाजिक कदाचार का मूल है या सामाजिक कदाचार पुस्तकों को बाहर धकेल दिए जाने का मूल, या दोनों ही अन्योन्याश्रित ! पुस्तकों को बचाइए, यदि मानव को और समाज को बचाना चाहते हैं तो ! क्योंकि पुस्तकों से प्रेम भी प्रेयसी या प्रिय से प्रेम की तरह टूटकर ही किया जाना चाहिए ।
बड़े आकार में देखने के लिए चित्र पर क्लिक करें
अथवा इस लिंक पर क्लिक कर देखें
अच्छा लगा आपके इस लेख को पढ़कर! यहां पोस्ट करके पुण्य का काम किया आपने।
जवाब देंहटाएं:) यह पुण्य कहाँ से आ गया .... :)
हटाएंइन्होने हाल में नर्मदा मैया की परकम्मा करके ढेर सारा पुन्न कमाया है , सो जगह जगह बाँट रहे हैं :)
हटाएंआप का लेख जनसत्ता में भी पढ़ा ।पुस्तक के बारे में आप के विचार और अनुराग प़शंसनीय और
जवाब देंहटाएंअनुकरणीय है । पुस्तक केवल एक जड़ वस्तु नहीं है ,उस के लेखक का शाब्दिक प़तिरूप है । पुस्तक
पढ़ते हुए हम उस के लेखक से ही मिलते हैं । कहीं पढ़ा था कि जब जेल का अधिकारी भगत सिंह को
फाँसी के तख्ते पर चढ़ने के लिए बुलाने आया तब वे किसी क़ान्तिकारी की पुस्तक पढ़ने में मग्न थे ।
उन्होंने अधिकारी से कहा रुको एक क़ान्तिकारी दूसरे क़ान्तिकारी से मिल रहा है । पाठक पुस्तक
के माध्यम से लेखक से आत्मिक रूप से मिलता है । तब पुस्तक से मित्रवत् व्यवहार ज़रूरी है । वह
मित्र से बढ़ कर प़ेमिकावत् है ।
मुँह छिपाना पड़ जाता है कभी कभी कि कहीं पूछ न ले कि कहाँ थे अब तक।
जवाब देंहटाएंसावधान करते लेख के लिए अभिनंदन.
जवाब देंहटाएंbahoot hi sundar
जवाब देंहटाएंआप सरस्वती पुत्री हैं
जवाब देंहटाएंलोगों को अपने घर में दिखाने के लिए, लाइब्रेरी बनाने का शौक होता है , जगह जगह से मांग के किताबे घर ले जाने पर, कम से कम आधी किताबे लोग देने के बाद भूल जाते हैं ...ऐसे में हर्र लगे ना फिटकरी और लाइब्रेरी मुफ्त में तैयार हो जाति है !
जवाब देंहटाएंनज़र है इन लोगों की पालिसी.....
मांगी चीज़ कभी ना दीजे
जब मांगे तब ही दे दीजै
नाही चोरी नाही पाप
भूल गए तो रख्खौ आप !
ईमेल से प्राप्त सन्देश
जवाब देंहटाएंआदरणीया कविता जी,
नमस्कार ।
आपका लेख पढ़कर मन प्रसन्न हुआ, ये जानकर कि मेरे जैसे कटु अनुभव, पुस्तकों से लगाव और
सावधानी से उनको सुरक्षित रखने के प्रयास मेरी तरह ही आपके भी हैं। आपने तो जैसे मेरी ही भावनाओं को लिखित रूप दे दिया है।पता नहीं कुछ पढ़े लिखे लोग भी पुस्तकों के प्रति ऐसी निर्मम
लापरवाही कैसे करते हैं? ऐसा आचरण दु:खद और निंदनीय हैं, जो मन को विक्षुब्ध कर देता है।
यथार्थ का चित्रण करने वाले इस प्रभावी लेख के लिये आपका साधुवाद !!
इस लेख को मुझे पढ़ने का अवसर देने के लिये आभार स्वीकार करें।
शुभकामनाओं सहित,
शकुन्तला बहादुर
कैलिफ़ोर्निया