विश्वहिंदी सम्मेलन बनाम वर्गसंघर्ष : (डॉ.) कविता वाचक्नवी
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विश्वहिंदी सम्मेलन को लेकर आ रही प्रतिक्रियाओं के मध्य हिन्दी की पुरानी पीढ़ी व युवा पीढ़ी को लेकर कई स्थानों पर चर्चाएँ चल रही हैं, लेख लिखे जा रहे हैं और विमर्श हो रहे हैं। एक बड़ा मुद्दा इन दिनों ऐसे सामान्यीकरण का यह है कि (व कुछ लोग इसलिए नाराज हैं कि) हिन्दी के सब दादा लोग वहाँ हर बार पहुँच जाते हैं, जबकि युवा पीढ़ी ही हिन्दी का भविष्य है, उसे ही वहाँ महत्व व भागीदारी और प्रतिनिधित्व करना चाहिए और पुरानी पीढ़ी को हट जाना चाहिए। कुल मिलाकर बहसों में अब यह विवाद युवा पीढ़ी बनाम पुरानी पीढ़ी का बन गया है।
हिन्दी में यह वर्ग संघर्ष नया नहीं है किन्तु ऐसी किसी घटना के पश्चात् यह और अधिक मुखर हो जाता है। यों भी हिन्दी वालों पर पहले ही से पुरातनपंथी होने का ठप्पा लगा रहा है। ऐसे में इस तर्क को निरस्त करने के लिए कुछ लोग हिन्दी को नई चाल में ढालने के नाम पर लाभ-पक्ष के दोहन में भी जुटे हैं। ऐसे नई चाल-ढाल में ढलने/ढालने के लाभों के मध्य हिन्दी के शुभ-अशुभ और लाभ-हानि के प्रश्न का सिरे से अनुपस्थित होना अत्यंत चिंताजनक है। हिन्दी आय का साधन बने, हिन्दी रोजगार दे, हिन्दी व्यवसाय लाए आदि-आदि के तंत्र में हिन्दी के हित से जुड़े प्रश्नों की नितांत अनुपस्थिति नितांत विडंबनापूर्ण है। इस प्रश्न की अनुपस्थिति स्वयं में कई नए प्रश्न खड़े करती है। प्रश्न ही नहीं संदेह भी।
रही युवाओं को अवसर देने के तर्क की बात तो उसके लिए भी तो पहले स्वयं को प्रमाणित करना होता है। कोई सबको अवसर बाँटने लगे भी, तो लाखों की भीड़ लग जाएगी, हर कोई किसी न किसी की सिफ़ारिश, चिट्ठी या अनुशंसा लेकर अपने को पंक्ति में आगे मानने की हेकड़ी दिखाने लगेगा। इसलिए अवसर देने के समाधान की भी अपनी समस्या है।
विश्वहिंदी सम्मेलन पर युद्ध करने और ताल ठोंकने वालों के लिए आवश्यक है कि वे इसका अर्थ समझें कि इसका अर्थ हिन्दी का एक बड़ा अंतर-राष्ट्रीय सम्मेलन नहीं है, अपितु विश्वहिन्दी अर्थात् हिन्दी के वैश्विक स्वरूप और स्थिति से संबन्धित एक सम्मेलन है। जिस दिन यह बात लोग आत्मसात कर लेंगे उस दिन सम्मेलन पर और हिन्दी पर बड़ा उपकार करेंगे, वरना इस सम्मेलन के लिए मचने वाली बंदरबाँट यों ही चलती रहेगी और जिन्हें प्रसाद नहीं मिलेगा वे वंचित रहने की पीड़ा के चलते हाय-तौबा मचाते रहेंगे। इन सब के बीच जो वास्तविक लोग हैं, उनकी यथावत् न पूछ होगी, न आवाज बचेगी और जाने किस दिन कौन सच्चा सिपाही थक-हार कर कूच कर जाएगा....पर तमाशा यों ही चलता रहेगा। यों राजनीति और हायधर्म, दौड़धर्म और जुगाड़धर्म आदि सारे धर्मों का अस्तित्व विदेशों में बसे हिन्दीभाषी हिन्दी वालों में भी भारत की बराबरी का ही है। इसलिए मैं हिन्दी को लेकर कोई बड़ा स्वप्न फिलहाल नहीं देखती। संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा बनने के बाद हमारे इन सब धर्मों को नाम का अंतरराष्ट्रीय स्वरूप ही मिलना बचा है, वस्तुतः ये वैश्विक तो पहले से हैं ही।
सम्मेलन को बंद किया जाना भी कोई समझदारीपूर्ण समाधान नहीं है। तब तो हिन्दी के लिए सरकार के नाममात्र के दायित्व की भी इतिश्री हो जाएगी। वस्तुतः चीजों को पारदर्शी बनाना, गुणवत्ता को तय करना, ठोस कार्यरूप देना आदि के लिए कड़ाई से कुछ करना होगा। अर्थात् सम्मेलन का विरोध नहीं, सम्मेलन की विधि और दोष का विरोध हो।
जहाँ तक हिन्दी की पुरानी पीढ़ी और नई पीढ़ी के नाम पर चलने वाले इस वर्गसंघर्षजन्य विवाद की बात है तो मुझे पीढ़ी के रूप में ऐसा वर्गीकरण यह कहने को बाध्य करता है कि वस्तुत: न पुरानी पीढ़ी ने कम अनर्थ किए हैं, न कम जोड़ तोड़ और लालसा रही है व न ही नई पीढ़ी उस से कुछ कम है, बल्कि पुरानी पीढ़ी से अधिक ही तिकड़मी और 'कैलकुलेटिव' है। नई पीढ़ी वे सारी तकनीकें जानती है (और बेखौफ अपनाती है ) कि कब क्या कर कर, कह कर, लिख कर, न लिख कर, हट कर, न हट कर, बोल कर, चुप रह कर, कंधे का सहारा लेकर या कंधा देकर, गिरा कर या चढ़ा कर.... आदि हर तरह की क्रिया के द्वारा किस तरह जोड़तोड़ की/से दौड़ में बेखौफ़ हर हथियार और हथकंडे से अपने को आगे रखना है। पुरानी पीढ़ी की कब वाह-वाह कह कर वे पुरानी पीढ़ी का कैसे व कब इस्तेमाल कर जाते हैं इसका पता ही इस्तेमाल हो जाने वाले को नहीं चलता। इस्तेमाल के बाद में कब दूध से मक्खी की तरह निकाल फेंकना है, यह भी युवा पीढ़ी बहुत निपुणता से जानती व करती है। साहित्य की पुरानी पीढ़ी भी कोई दूध की धुली नहीं थी। उन्होंने भी विरासत में यही सब जरा कम अनुपात में नई पीढ़ी को सौंपा है। बस दोनों की लिप्साओं के प्रकार में एक-दो चीजों का अंतर है।
इसलिए मेरी नजर में पूरे कुएँ में ही भाँग रही है। हाँ यदि कभी दो दुष्टों की स्पर्धा की बात है तो इतना जरूर है कि पुरानी पीढ़ी के यह सब करते रहने के बावजूद वे अनुपात में कम से कम अपने विषय के ज्ञाता, बहुपठ, विशेषज्ञ और अधिक ज्ञान-सम्पन्न रहे हैं, बनिस्बत इसके कि नई पीढ़ी पुरानी हर पीढ़ी की तुलना में बहुत अधिक खोखली व वितंडावादी है।
इसलिए मेरा समर्थन किसी को उसकी आयु के आधार पर श्रेष्ठ या कमतर मान लेने के पक्ष में नहीं है, अपितु उसके व्यक्तिगत आचार विचार, ज्ञान, समझ, विवेक, औदात्य आदि कई कसौटियों के आधार पर उसके रचनाकर्म व व्यक्तित्व के सम्पूर्ण आकलन के साथ साथ उसके सामाजिक व रचनात्मक योगदान के पक्ष में है ।
क्या कभी इन कसौटियों के आधार पर प्रतिभागिता तय करने का कोई नियामक हम बना पाएँगे ? जिस दिन उसे बना पाए और क्रियान्वित कर पाए, उस दिन से पहली बार हम हिन्दी के हित को लेकर वास्तव में चिंतित होने की बात कह सकते हैं, अन्यथा हिन्दी की सेवा और हिन्दी के हित के नाम पर हिन्दी के दोहन की नई तकनीकों और तर्कों को हम बड़ी कुशलता से चलाने और मनवाने का वाग्जाल फेंक रहे होते हैं और जाल फेंकने व बटोरने के पीछे निरंतर हिन्दी का ही मांसाहार हमारा शौक बन चुका होता है। इस कथित वर्ग-संघर्ष के पीछे भी एक तरह के शातिर समझौते का अनुसरण कर रहे होते हैं।
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कविता जी, आपका यह लेख मुझे बहुत सोचनीय लगा.और साहित्यिक गतिविधियों से जुड़े मेरे ब्लॉग पर इस लेख को प्रकाशित करना मुझे अच्छा लगेगा.अगर आप की अनुमति हो तो.मेरे ब्लॉग की लिंक : http://gujratireader.blogspot.in/
जवाब देंहटाएंकविता जी मैं आपके विचारों से पूरी तरह सहमत हूँ.
जवाब देंहटाएंविश्व हिंदी सम्मेलन होना चाहिए क्यों कि यह 'हिंदी शक्ति' को ऊर्जा प्रदान करती है. विश्व हिंदी सम्मेलन जैसे कार्यक्रम हिंदी की जनप्रियता और उसके वैश्विक होने के सूचक है.
'विश्व हिंदी सम्मेलन' जैसे उत्कृष्ट कार्यक्रमों को दोहन करनेवालों के हाथो हाई-जैक होने से कैसे बचाया जाए यह एक विषम समस्या है.
कविता जी, आप का शुक्रगुज़ार हूँ. आप का लेख मेरे ब्लॉग पर प्रकाशनार्थ भेजने के लिए.
जवाब देंहटाएंसहमत हूँ, सबकी प्रतिभागिता बने।
जवाब देंहटाएंहिन्दी पर जितनी अधिक से अधिक चर्चा होगी और इसका जितना अधिक से अधिक प्रयोग होगा उतनी ही यह विश्व भाषा बनने के करीब पहुँचती जाएगी। इसे कामकाजी भाषा बनाने की कोशिश होनी चाहिए, केवल कविता, कहानी और उपन्यास की भाषा नहीं। इस सम्मेलन से भी बहुत चर्चाएँ पैदा हुईं। बहुत सा नेट-स्पेस हिन्दी के नाम पर भरा गया। इसलिए हमें आशावादी होना चाहिए।
जवाब देंहटाएंवर्ग संघर्ष की बात तो दूर की कौड़ी लगती है। पीढ़ियों में मतभेद होना बहुत सामान्य प्रक्रिया है। इसे बेवजह तूल देना बुद्धिमानी नहीं है।
निश्चय ही आलेख में उठाए गए मुद्दे और सुझाए गए रास्ते विचारणीय हैं. शुभमस्तु!
जवाब देंहटाएंवाकई वाजिब सवाल उठाए हैं
जवाब देंहटाएंपिछले दो सम्मेलनों में यह मुद्दा उठा चुका हूँ । इस बार जाता तो भी उठाता । पर बुजुर्गियत से हिंदी वालों को बड़ा मोह है । अतीतजीविता अपेक्षाकृत सुविधाजनक होती है ।
जवाब देंहटाएंapni chamak damak dikhlane jaise samarohon ki tarah hi ye vishv hindi sammelan hote hain.sakaratmak pahal shayad hi hoto ho hindi ke vikas ke liye.videswh jane wale ye hindi vidwan ,hindi ke liye apne desh men hi kya kar rahe hain?yah vicharneey hai.baat yuva ,bujurg hindi sahitykar ki jagah yah honi chahiye.
जवाब देंहटाएंRASHTRA BHASHA HINDI KO HER PRAKAR KE SAHYOG KE JARURAT HE. YAH HARSH KE BAAT HE KE YUVA- JAN KE SATH SATH SAMAJ KA HER EK HINDI PRAME APNE YATHA SHAKTI AUR UTSAH KE SATH MUKHRIT HONA CHAHATA HE. SUB KE HARDIK BHAVNA EK HE - NAK HE - ES LEYE BHAVNAO KA SAMMAN HONA CHAHETE. : JAI HIND - JAI SHRI RAM.
जवाब देंहटाएंकेवल साहित्य नहीं देश के संदर्भ में भी राहुल गाँधी, अखिलेश यादव ओमर अब्दुल्ला आदि युवाओं को ले कर जो उत्साह है वह सराहनीय है. परंतु पूर्व पीढ़ी को उपेक्षित कर के शायद साहित्य का ही नुकसान होगा. क्या अब राजेंद्र यादव नामवर सिंह मृदुला गर्ग चित्रा मुद्गल सुधा अरोड़ा जैसे अनेक वरिष्ठ या वयोवृद्ध साहित्यकार प्रासंगिक नहीं हैं. उन्हें साथ ले कर चले बिना कोई भी साहित्य यात्रा अधूरी ही रहेगी. युवा पीढ़ी इसे अन्यथा ना ले, परंतु नए विचारों के साथ साथ अनुभवी पीढ़ी का होना शायद अनिवार्य है.
जवाब देंहटाएंप्रिय
जवाब देंहटाएंविश्व हिन्दी सम्मेलनों में सहभागिता के मुद्दे पर मेरा अपनी विचार यह है के
भारत सरकार को अपने प्रतिनिधिमंडल में हिंदीतर विद्वानों को सम्मलित करना
चाहिए. हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा उन नेताओं एवं विद्वानों के कारण मिला
जो हिंदीतर थे. भारत सरकार का काम है हिन्दी का हिंदीतर क्षेत्रों में हिन्दी
का प्रसार प्रचार करना . हिन्दी भाषी विद्वानों को हिन्दी भाषी राज्यों को
भेजना चाहिए. मेरा अनुभव यह है कि इन मंडलों में ज्यादातर लोग वे होते है जो
दिल्ली में रहते हैं तथा अपना नाम जुड़वाने के लिए विदेश मंत्रालय के हिन्दी
अधिकारी के चारों ओर चक्कर लगाने में अपनी सारी शक्ति और ऊर्जा लगा देते हैं.
महावीर सरन जैन
अच्छा विश्लेषण है।
जवाब देंहटाएंयह मुद्दा इतना अहम् है कि मुझे कुच्छ लिखना ही पड़ रहा है. सूत्रों में:
जवाब देंहटाएं१. भारत का इतिहास साक्षी है कि हमें गिर कर उठना आता है. विश्व हिन्दी सम्मेलनों का मुख्य उद्देश्य रहा है कि राष्ट्र की एक सम्प्रेर्षण की भाषा का चयन ताकि राष्ट्रीय एकता आ सकी. यही सपना देश की आज़ादी की संध्या पर गुरु आर्बिन्दो जी में देखा था कि "देश आज़ाद तो ज़रूर हो रहा, बहुत अच्छा है, किन्तु क्या यह एक साथ रह सकेगा, दर लगता है".
२. यह डर क्यों आया आर्बिन्दो जी के विचारों में? क्योंकि आज़ाद होते ही उस समय के युआ नेताओं ने वह नहीं किया जो राष्ट्र के अनुभवी चिन्तक, गांधी, बिनोवा, टैगोर, लक्ष्मी शंकर मुदलियार, क्षित मोहन सेन आदि १९१७ से कहते आये थे कि राष्ट्र तभी प्रगति कर सकता जब इसकी संपर्क भाषा भारतीय हो और वह उनके अनुसार "हिन्दी" . ध्यान रहे कि इस सम्बन्ध में चाणक्य ने क्या लिखा है? तत्कालीन युआ नेताओं पर मकाले का असर पड़ चुका था, शायद इस लिए, और अब हम जन चेतना बनाते हुए वही काम करना चाहते हैं. इन सम्मेलनों को बंद करने से समस्या का हल नहीं मिलेगा. सुधार की ज़रुरत है और सुधार आयेगा, ऐसा मेरा विश्वास है. इस सिलसिले में २००५ में गीतांजलि ने एक गोष्ठी में, जिसमें विजय मल्होत्रा जी थे, १७ प्रस्ताव भारत सरकार को भेजे थे उनको देखना अब समय की माग है. मोटे तौर पर:
२.१ भारत की अन्य भाषाओं पर भी इनमें चर्चा होनी चाहिए.
२.२ अनुभवी चिंतकों के साथ युआ पीढी को भी आगे लाना चाहिए. इसी उद्देश्य से छठे विश्व हिन्दी सम्मलेन में, जिसका मैं १९९९ में अध्यक्ष था, विषय था "हिन्दी एवं भावी पीढी"
२.३ तकनीकी सुविधाओं के आधार पर अनुवाद को प्रोत्साहन देना चाहिए.
३. युआ पीढी आगे आरही है. अभी जून २०११ में भारत सरकार के सहयोग से हम लोगों में बर्मिंघम में २४-२६ जून तक "यू.के. क्षेत्रीय हिन्दी सम्मलेन" का सफल आयोजन किया था जिसमें भारत एवं अन्य स्थानों से अनेकानेक युआ पीढी की भागीदारी रही है. बुजुर्गों को उन्हें आगे आने देना चाहिए केवल गुणवत्ता के आधार पर.
"आने वाला युग बदलेगा जब हम बदलेंगे" वैचारिक क्रान्ति आ रही है. सुधार आयेगा. शुभकामनाओं सहित.
- कृष्ण
Prof. Dr Krishna Kumar
profdrkrishna@googlemail.com
बर्मिंघम
कविता जी,
जवाब देंहटाएंनमस्कार|
अभी-अभी एक संबोधन गया होगा| यह मेरी तकनीकी क्षमता का प्रमाण है| पता नहीं, कब कौन-सा बटन दबा दूँ!............................
विश्व हिन्दी सम्मलेन के बारे में इंटरनेट पर घूम रही टिप्पणियों के सन्दर्भ में आपकी विश्लेषणात्मक बातें पढ़ कर अच्छा लगा| आपने सही-सही कह दिया है, लोग समझें या न समझें|
मुझे इस सन्दर्भ में यह कहना है कि चाहे विश्व हिन्दी सम्मलेन हो या हिन्दी और देश-समाज से जुडी कोई अन्य गतिविधि, उसे पीढ़ियों के बीच विभाजित करके देखना सही नहीं है| जहाँ और जिन विषयों में पीढ़ियों के बीच विवाद/विरोध/टकराव/मत-वैभिन्य विद्यमान है, वे एकदम साफ़ हैं| जीवन शैली, ज़माने के आगे बढ़ाने की गति और दिशा, जीवन के बारे में नज़रिया, सामाजिक अनुशासन की अवधारणा आदि अनेक बातें सबके सामने होती हैं और उन पर नई और पुरानी पीढ़ी का टकराव समझ में आता है-----, किन्तु हिन्दी के विकास अथवा विस्तार के मुद्दे पर अगर यह सोचा जाएगा कि यह कार्य केवल पुरानी पीढ़ी अथवा केवल नई पीढ़ी को ही करना चाहिए अथवा एक सीमा के बाद पुरानी पीढ़ी को विदा हो जाना चाहिए, तो हिन्दी का कोई भला होने वाला नहीं है| विदा दरअसल हिन्दी के नाम पर ठेकेदारी और महंतई करने वालों को होना चाहिए| मुझे यह देख कर आश्चर्य होता है कि केवल कुछ लोग ही हिन्दी के उन सम्मेलनों में दिखाई देते हैं, जिन्हें या तो सरकारें आयोजित करती हैं या जो अन्य संगठनों द्वारा अंतर राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित होते हैं| ऐसे ही लोग भारत में भी हिन्दी के विकास के नाम पर बनी और सरकारी अनुदान पाने वाली संस्थाओं पर भी काबिज हैं| ऐसे लोगों की हिन्दी सेवा पर कभी कोई श्वेतपत्र जारी किया जाए, तो पता चलेगा कि वे हिन्दी के नाम पर जनता का खून चूसने वाली जोंकें हैं| मेरा सवाल है कि क्या भारत सरकार का विदेश मंत्रालय अथवा कोई दूसरा ज़िम्मेदार विभाग हिन्दी समेलन आयोजित करने के अवसर पर यह पता लगाने की कोशिश करता है कि भारत के ही सुदूर क्षेत्रों में कौन ऐसा व्यक्ति है, जो हिन्दी के लिए निष्ठापूर्वक काम कर रहा है और जिसे अपनी ओर से कोशिश करके बुलाया जाना चाहिए ? कुछ ऐसे उँगलियों पर गिने जा सकने वाले लोग हैं, जो किसी ओर ध्यान न देकर अपनी पूरी शक्ति के साथ हिन्दी के विकास का काम कर रहे हैं| उनमें से कुछ पुरानी पीढ़ी कहीं और कुछ नी पीढ़ी के| बैटरी कम हो रही है, फिर लिखूंगा|
(टिप्पणी का शेष भाग/ जोड़ कर पढ़ें) -
जवाब देंहटाएंउनमें से कुछ पुरानी पीढ़ी के हैं और कुछ नई पीढ़ी के| मैं व्यक्तिगत अनुभव से जानता हूँ कि वे कभी भी अपनी ओर से यह कोशिश नहीं करेंगे कि उन्हें विश्व हिन्दी सम्मलन का निमंत्रण मिल जाए अथवा कोई अन्य सम्मान प्राप्त हो जाए| आप उनसे जोर देकर कहेंगे भी, तो वे टाल जाएँगे और चुपचाप अपने काम में लगे रहेंगे| क्या सरकारों को या बड़े सम्मेलनों के आयोजकों को कभी उन लोगों तक पहुँचने का प्रयास नहीं करना चाहिए? क्या संस्थाओं और समेलनों पर हमेशा निहित स्वार्थियों का ही कब्ज़ा रहेगा? क्या हिन्दी के नाम पर सिर्फ लफ्फाजी करने वाले सत्ता के दलालों को कभी शर्म आएगी ?
विश्व हिन्दी सम्मलेन सिर्फ एक नाटक बन कर रह गया है|
हिन्दी के नाम को जो जितना भुना सकता है, भुना रहा है|
बातें काफी सारी हैं इस विषय में कही जा सकती हैं, लेकिन कुछ मुद्दे जरुर ध्यान देने योग्य हैं।
जवाब देंहटाएंजो नहीं जा पाए ( मेरी तरह) वे तो खिसिया कर खंभे नौंचेगे ही।
ये सम्मेलन नहीं सम-मिलन होते हैं - लौट कर आए एक मित्र ने कहा
( नाम नहीं बताऊंगा) --हिन्दी का जो होना हो वह तो पता नहीं पर मजा बहुत
आया।
एक सबसे महत्वपूर्ण बात पर अब हम सभी को सोचना होगा कि हिन्दी के क्षेत्र
में भी जो सरकारी निरीक्षण, मीटिंग व्यवस्था आ गई है वह अन्य विभागों में
हो रहे निरीक्षणों, मीटिंगों की तरह से ही हर तरह के भ्रष्टाचार से ग्रसित हो गई है- इसलिए
बेअसर हो गए हैं सारे निरीक्षण और समितियां अथवा उपनिदेशक ( कार्यान्वयन)-
सब उपकृत एवं गिफ्ट के मार्ग से प्रसन्न होकर, तथास्तु कह कर काम चला रहे हैं
और नीचे वाले सोच रहे हैं कि कब हम वहां पहुंचेगे। ये सत्य अब सब विभागों से सामने आने चाहिए कि कैसे दुर्वासा श्राप से बचने में ही सारी शक्ति लग जाती है और धरातलीय कुछ खास नहीं हो रहा
है क्योंकि सब शीर्षस्थों को पता लग गया है कि थोड़ा सा नूरानी अनादर होगा, लफ्फाजी होगी, लेकिन अंततः
सब मैनेज कर लिया जाएगा।
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
इसी आशा में-
हम सब चूहों की जमात जैसे हैं- कितनी ही क्रांतिकारी बातें करले, विमर्श कर लें,
जहां फर्क पड़ना चाहिए वहां कुछ नहीं होता। जब तक कोई सच्चा हिन्दी प्रेमी ( अटल जी की
तरह नकली नही) प्रधानमंत्री अथवा राष्ट्रपति नहीं बनता जो सिर्फ हिन्दी बोले जहां भी बोले
और रोजाना कैबिनेट सचिव से यह पूछे कि यह फाइल हिन्दी में क्यों नहीं है- बस ।
-(शेष अगली टिप्पणी में)
टिप्पणी का अगला भाग -
जवाब देंहटाएंपर किसी को सच्चाई जानने की, और वास्तविक समाधान की कोई फिकर नहीं है
क्योंकि सबके अपने सुख आनंद की धारा हिन्दी के नाम पर ही चल रही है- चाहे वह
नीचे से लेकर सर्वोच्च समितियां हों। बड़े लोगों को तो हिन्दी की समस्या ही नहीं पता-
वे तो हिन्दी को ही समस्या मानते हैं।
राष्ट्रपति के आदेशों के बावजूद भी पूरे देश में हिन्दी कर्मियों का एकसमान वेतन निर्धारण नहीं हो पाया है
और क्या खाक उम्मीद करें और किससे करें। करोड़ों रुपये फूंक दिए जाते हैं सम्मेलनों में- पर हिन्दी
अनुवादक को ग्रेड पे 4200 से 4600 देने में इनके प्राण सूखते हैं। अब समय आएगा कि या तो
किसानों की तरह हिन्दी वाले भी आत्महत्या करना शुरु करेंगे अथवा कोई केजरीवाल सामने आएगा।
यद्यपि टैक्नीकल हिन्दी के मंच के लिए यह विषय नहीं था, हमारा इस मंच का ध्येय कुछ अलग है
फिर भी पोस्ट आई तो लिखना पड़ा है- वैसे राजभाषा समूह आदि अन्य मंचों पर इस तरह का
विमर्श जारी है।
सत्य यही है कि न सरकार की . न संस्थान प्रमुखों की और न शीर्ष पर बैठे किसी भी अधिकारी,
किसी भी नेता की, अभिनेता की, प्रमुख की न किसी सांसद की------- किसी की भी प्राथमिकता
हिन्दी नहीं है और न उसकी कोई मजबूरी है क्योंकि हिन्दी जनता की भी मजबूरी नहीं है, जनता की
ही कोई मांग नहीं है वरना जैसा ब्रिटेन में हुआ था कि फ्रेंच के खिलाफ इतना जबरदस्त जनांदोलन
हुआ कि सरकार को संसद, न्यायालय आदि सभी जगहों पर अंग्रेजी को लाना पड़ा जिसे कि जाहिलों
एवं गंवारों की भाषा कहा जाता था। अगर कभी जनता उठ खड़ी होगी तो शायद हिन्दी का कुछ
भला हो पाएगा वरना सब की दुकान ऐसे ही चलती रहेगी।
-(शेष अगली टिप्पणी में)
(टिप्पणी का अन्तिम भाग)
जवाब देंहटाएंएक नया चलन चला है कि कुछ लोग
मिलकर एक संस्था बना लेते हैं किसी सांसद से पत्र लिखवाते हैं और कहीं शिमला में, गोआ में
हि्न्दी सम्मेलन कराते है, और पूरे देश के सरकारी कार्यालयों में पत्र भिजवाते हैं, रिपोर्टें भरना आदि
उसके विषय होते हैं। सब जगह चालाकी चल रही है इसलिए राजभाषा के क्षेत्र में भी चालाकी का पूरा
बोलवाला हो गया है। काम कहीं भी हिन्दी में नहीं हो रहा है और न किसी की करने की मंशा है- बस
दुकान चलाते रहना और लाभ लेना ही सबकी मंशा है क्योंकि आत्मगौरव का भाव जीवन के हर
अंग से तिरोहित होता जा रहा है- हमें इतिहास ही ऐसा पढ़ाया गया है कि देदी हमें आजादी विना
खडग विना ढाल-----( परम पूज्य गांधी जी के प्रति सम्पूर्ण श्रद्धा सहित) लेकिन ये भूल गए कि इससे आगे आने वाली नस्लों का कितना बड़ा अहित कर दिया-लाखों क्रांतिकारियों के बलिदान को अपमानित किया सो अलग-आगे आने वाली पीढ़ियों में निज देश. निज भाषा. निज संस्कृति की विरासत का अंकुरण ही नहीं होने दिया- अंततः अंग्रेज अपनी चाल में सफल हो गए- आज विना किसी प्रत्यक्ष नियंत्रण के सारे भारत को अप्रत्यक्षतः विदेशी ही चला रहे हैं। ऐसे में कहां है किसी को हिन्दी की चिंता ।
अगर सरकारें ही प्रस्ताव पारित करेंगी- चाहिए की भाषा में बात करेंगी- जैसे मै हमेशा कहता हूं
कि थाने में सदवाक्य लिखवा दें कि सत्य बोलना चाहिए. चोरी चकारी नहीं करनी चाहिए. किसी
से झगड़ा नहीं करना चाहिए. इससे क्या होने जा रहा है। थानेदार का तो इकबाल बुलंद होना चाहिए।
कौंन रोक रहा है सरकार को संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनाने से- अरे भारत सरकार में तो हिन्दी
भाषा कामकाज की भाषा बन नहीं पाई किस मुंह से संयुक्त राष्ट्र संघ से कहोगे कि हिन्दी
को भाषा बनाओ। पर निर्लज्जों के लिए परदे नहीं बने, वे तो उन्हें उघाड़कर झांकते हैं।
डॉ आनंद पाटिल की पुस्तक हिन्दी के विविध आयाम (तक्षशिला प्रकाशन) में
मेरा एक लंबा लेख इस विषय पर है जिसमें सभी किंतु परंतु और समस्याओं के विषय में विचार किया
है कि हिन्दी संयुक्त राष्ट्र की भाषा क्यों नहीं बन सकती, ये कितने ही सम्मेलन करलें कुछ नहीं होने
जा रहा है क्यों कि इनके शब्दों में, प्रयासों में और मंशा में ईमानदारी और समर्पण नहीं हैं, बैसा समर्पण
जैसा कि छोटे छोटे देशों में अपनी भाषा , संस्कृति, संस्कारों के प्रति है। अफसोस - किसी को वीर बनाया नहीं जा सकता वह तो होता है।
कविवर प. धर्मपाल अवस्थी जी की दो पंक्तियां है-
जब सूरज की किरणें ही दासी बन जाएं अंधेरे की
जग किससे उम्मीद करे फिर निर्मल धवल सवेरी की.
विनम्र विचार।
सादर
अति सुंदर
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