तुम्हारे वरद-हस्त
(डॉ.) कविता वाचक्नवी
(अपने संकलन "मैं चल तो दूँ" (२००५) से )
मेरे पिता !
एक दिन
झुलस गए थे तुम्हारे वरद-हस्त,
पिघल गई बोटी-बोटी उँगलियों की।
देखी थी छटपटाहट
सुने थे आर्त्तनाद,
फिर देखा चितकबरे फूलों का खिलना,
साथ-साथ
तुम्हें धधकते
किसी अनजान ज्वाल में
झुलसते
मुरझाते,
नहीं समझी
बुझे घावों में
झुलसता
तुम्हारा अन्तर्मन
आज लगा...
बुझी आग भी
सुलगती
सुलगती है
सुलगती रहती है।
बहुत गहन अभिव्यक्ति...वाकई बुझी आग भी सुलगती है.
जवाब देंहटाएंबुझी आग भी सुलग रही है, मार्मिक।
जवाब देंहटाएंअमेरिका में पिदर दिवस मनाया जा रहा है जो केवल एक दिन ही अपने पिता को याद करते हैं। हम तो हर दिन अपने माता-पिता का आशीर्वाद लेते हैं उन्हें याद करके। इस अवसर पर एक मार्मिक कविता के लिए बधाई॥
जवाब देंहटाएंगहराई में डूबी अभिव्यक्ति ..बहुत खूब
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