अक्तूबर का अवसाद और स्मृतियाँ : कविता वाचक्नवी
मेरे घर में आज में पचास -पचपन वर्ष से भी अधिक पहले फोन लग गया था। तब उसका नम्बर केवल तीन अंकों में 677 हुआ करता था। उन दिनों फोन उठाने पर टेलीफोन कार्यालय से अपने आप जुड़ता था और जो भी नम्बर चाहिए होता था, वह वहाँ बैठी कर्मचारी (ऑपरेटर) को बताना होता था, तब वह उस नम्बर को डायल करती व मिलाकर देती थी, अपने सिस्टम में डायल करने का प्रावधान नहीं होता था।
मेरी स्वर्गीया बहन |
जहाँ फोन रखा रहता था, वहाँ दादा जी की गद्दी ( ऑफिस) हुआ करती थी, जहाँ से वे और ताऊ जी / चाचा जी इत्यादि सब मिलकर भट्ठों का कारोबार संचालित करते थे। जब वे दोपहर के भोजन के लिए वहाँ से हटते तो मेरी स्वर्गीया बड़ी बहन सुषमा, मैं व मेरा छोटा भाई आलोक हम तीनों मिलकर अपने उस ऑफिस में घुस जाते और दादा जी का हुक्का पीने से लेकर जाने किन-किन कारस्तानियों को अंजाम देते। हम तीनों में आयु का लगभग दो-दो वर्ष का अन्तर था तो सदा साथ ही रहा करते थे। प्रत्येक काम साथ करते, हँसते तो साथ और रोते तो साथ।
हमारे लिए हुक्का और फोन सबसे उमंगपूर्ण उपादान होते थे। मैंने लगभग रोज ही दादा जी के उस चिलम-बुझे हुक्के से बरसों तक हुक्का पिया है ... गुड़गुड़ किया है ।
हम तीनों उस कक्ष में घुसते ही फोन की ओर एक-एक कर लपकते। उस काल में (लगभग पचास वर्ष पूर्व) किसी के घर में फोन होना अत्यधिक 'लक्ज़री' की बात थी। पूरे नगर में केवल इने-गिने एकाध सम्पन्न घरों में यह सुविधा थी। फोन करने को लपकने वाले हम बच्चों के पास यह भी समझ न थी कि फोन उठाने पर फोन टेलीफोन भवन की कर्मचारी से जुड़ता है और उसे नम्बर देना होता है, तब नम्बर मिलाकर उसके देने के बाद संबन्धित पार्टी/ व्यक्ति से बात की जाती है।
हम एक एक कर फोन लेते। हम में कोई एक पहले उठाता और उधर से महिला कर्मचारी की आवाज़ आते ही कहता - " हैलो, टाईम क्या हुआ है?" उधर से कुछ उत्तर आता " एक बजा है " या कभी कुछ और ऐसे ही। तब 2-4 मिनट रुक कर दूसरा बच्चा उठाता और वही प्रश्न करता तब वह फिर दोहराती कि " अरे अभी बताया था ना कि एक बजा है"। अब पाँच मिनट ठहर कर तीसरे बच्चे की बारी होती। वह भी फिर वही प्रश्न करता (क्योंकि इससे अधिक किसी सम्वाद को करने की समझ उस 5-6 वर्ष की आयु में विकसित ही नहीं हुई थी), तो इस बार वह डपटती हुई उत्तर देती " टेलीफोन घर में लगवा लिया पर घड़ी नहीं लगवाई क्या? ठहर जाओ तुम लोग, आज पण्डित जी को कहूँगी कि एक घड़ी भी घर में अलग-से लगवा दें " ।
इतना सुनते ही जिसके हाथ में चोगा (रिसीवर) होता उसे क्रेडल पर फटाक से पटक देता और हम तीनों मिलकर अपने-अपने मुँह पर अपने नन्हें -नन्हें हाथ रखकर देर तक खिलखिलाते हँसा करते, थोड़े डरते भी कि अरे उस महिला को कैसे पता चला कि हम किस परिवार के लोग हैं। ... और फिर कुछ देर में किसी नई शैतानी में उलझ जाते... कभी पीपल पर सवारी करते और कभी उसके पत्तों में चीनी और सौंफ भर कर पान बना कर खाया करते। वे दिन, हाय !, नहीं रहे। लाखों यादें और लाखों खेल मन में दबे हैं।
सुषमा के जाने से हमउम्र बहन का अभाव सदा के लिए साथी हो गया है। न माँ रहीं..... न ही बहन .... !
सुषमा अक्तूबर 1993 में कैंसर से हमें सदा के लिए छोडकर चली गई। इसलिए अक्तूबर गुज़ारना हर बार भारी पड़ता है। बार-बार इस महीने मन को अवसाद और डिप्रेशन घेरते रहते हैं। इन दिनों उसकी याद बेतरह आती है, आ रही थी/आ रही है ... तो बचपन बार-बार सामने आ खड़ा हो रहा था। आज सोचा इसे लिख ही डालूँ... बस इस बहाने उन दिनों को सजीव करने की चेष्टा में कुछ चीजें याद हो आईं और यह टेलीफोन गाथा भी !
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भाई आलोक के विवाह पर बहन सुषमा का यह लगभग 22 वर्ष पुराना चित्र काफी धुंधला है क्योंकि इसे एक वीडियो से स्क्रीनशॉट लेकर निकाला है।
भावपूर्ण |
जवाब देंहटाएंमेरी नई रचना:- "झारखण्ड की सैर"
भावभीनी यादें .बचपन की यादों को बहुत अच्छी तरह संजोकर रखा है.
जवाब देंहटाएंनई पोस्ट : धन का देवता या रक्षक
संवेदनशील पोस्ट! कुछ यादें टीस देती हैं लेकिन उनसे मुक्त भी नहीं होने का मन करता। नियति!
जवाब देंहटाएंअक्तूबर महीना शरद ऋतु की आमद का महीना है। लेकिन यह अवसाद का तत्व जाने क्यों मुझे भी परेशान करता है इस समय। विचित्र संयोग है कि अक्तूबर-२०११ में मैंने जो गीत लिखा था वह भी एक अवसाद के भाव से ही उपजा था।
जवाब देंहटाएंमेरा मन क्यूँ छला गया
http://satyarthmitra.blogspot.in/2011/10/blog-post.html
इस बार भी “दशहरे के दिशाशूल” शीर्षक की पोस्ट यही बताती है।
http://satyarthmitra.blogspot.in/2013/10/blog-post_16.html
ओह... आपकी कविता तो तब पढ़ी थी, दिशाशूल वाले लेख को पढ़ती हूँ ।
हटाएंस्म़ृति के भावमय चलचित्र
जवाब देंहटाएंयादें...
जवाब देंहटाएंस्मृतियाँ नम कर जाती हैं।
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