अन्ति सन्तम् न जहाति, अन्ति सन्तम् न पश्यति...
यह लेख 'नई दुनिया' (http://naiduniaepaper.jagran.com/) के नववर्ष विशेषांक (1 जनवरी 2013) हेतु लेख भेजने के आदेश पर 16 दिसंबर 2012 को लिखा गया व उसमें सम्मिलित था। विशेषांक के लिए विषय देते समय कहा गया था कि 'भारत की कोई एक चीज बचाने के लिए यदि आपसे कहा जाए तो आप क्या बचाना चाहेंगी और क्यों; इसे आप नई दुनिया के पाठकों के लिए लिख भेजिए" तब जो लिखा वह लेख यथावत् यहाँ प्रस्तुत है। 'नई दुनिया' से विशेषांक की पीडीएफ प्रति की प्रतीक्षा है,मिलने पर उसे सम्पूर्ण रूप में यहाँ जोड़ दिया जाएगा।
उन दिनों दिल्ली में हुई सामूहिक बलात्कार की घटना के कारण उपजे क्षोभ के चलते तब से यह लेख नेट पर अप्रकाशित था। आज अपने पाठकों व मित्रों से इसे बाँटने का सुयोग बन पाया है। - (क.वा.)
"अन्ति सन्तम् न जहाति, अन्ति सन्तम् न पश्यति"।
- (डॉ.) कविता वाचक्नवी
जब यह लेख लिखा जा रहा है उस समय भाँति-भाँति के कयास लगाए जा रहे हैं और घोषणाएँ की जा रही हैं कि 21 दिसंबर 2012 को प्रलय आने वाली है और यह समूचा जगत् नष्ट होने जा रहा है। दूसरी ओर, जब यह लेख आप पढ़ रहे हैं, तब तक यह प्रमाणित हो चुका है कि ये कयास केवल झूठ थे क्योंकि आप व हम सभी उसी प्रकार व उतने ही सुरक्षित हैं जितने कि सामान्यतः हमें होना चाहिए।
इन दोनों तिथियों के एकदम सन्निकट खड़े होकर क्यों न कुछ देर को मानो एक ऐसी रोचक काल्पनिक उड़ान ली जाए कि विश्व वास्तव में समाप्त होने जा रहा है और कुछ भी नहीं बचेगा। परंतु जैसा कि मानव स्वभाव है “सामान सौ बरस का, पल की खबर नहीं” के चलते हम सब, कुछ न कुछ सम्हालने, बचाने और सहेजने के लिए अवश्य तत्पर होंगे, होना भी चाहिए।
भारतीय होने के नाते हम सबको विश्वास है कि प्रलय के बाद भी पुनः नया सृष्टिचक्र चलने ही वाला है। हमारी दार्शनिक स्थापनाओं को काव्य में पिरोकर प्रसाद जी ने लिखा था – “हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छाँह /एक पुरुष, भीगे नयनों से देख रहा था प्रलय प्रवाह ...... बँधी महावट से नौका थी सूखे में अब पड़ी रही, उतर चला था वह जल-प्लावन, और निकलने लगी मही। " अर्थात् एक नौका और एक पुरुष तो कम से कम बचे ही हुए थे। मान लीजिए, यदि प्रलय आ ही जाता तो वह क्या वस्तु हो सकती थी जिसे मैं बचाना चाहती...इस ‘हायपोथेटिकल’ स्थिति की कल्पना करते ही मुझे मानव-मात्र के लिए बचा कर रखी जाने वाली एकमात्र वस्तु लगती है - भारतीय वाङ्मय ! समूचा भारतीय वाङ्मय तो यद्यपि बहुत विशाल है, वह समूचा यदि सुरक्षित नहीं किया जा सके तो फिर समूचा आर्ष साहित्य (वेद, वेदांग, उपांग, उपनिषद, ब्राह्मण व आरण्यक) बचा लिया जाना चाहिए। परंतु यदि यह भी मैं न बचा पाऊँ तो इनका मूलस्रोत (चारों वेद) बचा रहे तो भी मानवता बची रहेगी और सारा ज्ञान-विज्ञान भी। महर्षि दयानंद सरस्वती ने लिखा भी था – “वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है”। कुछ और भयावह कल्पना की जाए कि यदि इतना भी बचा पाना संभव नहीं हुआ, तो.... ? तो ऐसे में मुझे 19वीं शती के महानतम दार्शनिकों में गिने जाने वाले जर्मन दार्शनिक व लेखक Arthur Schopenhauer (1788-1860) याद आते हैं, जिन्होंने लिखा था कि यदि समूचा विश्व नष्ट हो जाए तो मात्र ईशोपनिषद (यजुर्वेद का चालीसवाँ अध्याय) बचा लिए जाने से समूची मानवता बची रह जाएगी क्योंकि उतने में भी समूची मानवता के लिए समस्त अथाह ज्ञान समाहित है। ध्यातव्य है कि ईशोपनिषद में कुल जमा केवल 18 मंत्र हैं, जो मात्र एक ही पृष्ठ पर दोनों ओर में आ जाते हैं।
यह ज्ञान वह धरोहर है, जो मानवजीवन की उत्कृष्टता, सात्विकता व परिमार्जन का आधार है। ऋषियों ने मनुष्य के जीवन को उसके मूलरूप में इतनी गहराई से समझा-समझाया है कि उतना वैज्ञानिक, तार्किक व स्वतःसम्पूर्ण चिंतन अन्यत्र दुर्लभ तो क्या, है ही नहीं। जीवन व जगत् के विषय में जो तथ्य और निष्कर्ष भारतीय आर्ष वाङ्मय परंपरा में उपलब्ध होते हैं, आज तक का विज्ञान एक-एक कर उन्हें प्रामाणिक सिद्ध होता देख चकित रह जाता है। विशिष्ट बात यह है कि यह समूचा ज्ञान सार्वभौमिक है, मनुष्यमात्र के लिए। जीवन, मनुष्य व जगत् को उसके सही सही रूप में जानने के कारण उन्होंने इसे सुखमय सात्विक, श्रेष्ठ, उत्कृष्ट एवं परिमार्जित करने-कराने की विधियाँ भी सूत्रबद्ध कर दीं। देखने में एकबार को ऐसा प्रतीत हो सकता है कि ये विचार व सुझाव केवल चिंतन-मनन का विषय हैं, किन्तु ऐसा है नहीं क्योंकि इनका धरातल पूर्णत: व्यावहारिक जीवन है “ Vedic philosophers took a very comprehensive and holistic approach yet that is so simple and natural.” (Harish Chandra, The Inward Journey / Enriching The life / Page 79 )
यह मानवी सत्ता जगत् में रहते, गति व संचालन करते हुए अबाध रूप से कैसे ‘स्वयं’ से, संसार से, समाज से, पंचतत्वों व परिवेश से किस प्रकार तादात्म्यपूर्वक समन्वय स्थापित करते हुए उत्तरोत्तर अधिक क्षमतापूर्ण, ज्ञान-विज्ञान-सम्पन्न, भावप्रवण, स्व-स्थ, शुद्ध, सुखी एवं प्रसन्न रहे – यह प्रश्न मानवी सृष्टि के आदि से सुलझाया जाता रहा है। इस क्रम में अध्यात्म, समाज, धर्म, दर्शन मनोशास्त्र व साहित्य ने निरन्तर मीमांसा करते हुए जीवन को प्रकृष्टतर बनाने वाले ऊर्ध्वमुखी तत्व व व्यवहार अपनाने पर बल दिया। सभ्यता के आदिकाल में ही भारतभूमि ने इस दिशा में अत्यंत सफलता प्राप्त कर ली, जिसे भारतीयभूमि व समाज की उपलब्धि माना गया । विविध क्षेत्रों की इसी प्रकार की उपलब्धियाँ मिलकर देश की संस्कृति के रूप में रूपायित हुईं। निर्विवाद रूप से संस्कृति तात्विक ‘दर्शन’ को जीवन के धरातल पर व्यावहारिक रूप से अपनाने वाली सभ्यता की उपलब्धियों का ही दूसरा नाम है। मनुष्य जीवन को निखारने-सँवारने वाले सभी आदर्श व व्यवहार इसमें सम्मिलित हैं। वाङ्मय मानवता को संस्कृति की दीक्षा देता है और संस्कृति मनुष्य का मूल्यबोध बनाए व बचाए रहती है। इसलिए मेरी रुचि इसी के आधार को बचाए रखने में है।
इस काल्पनिक उड़ान पर जाने से चिंतित होने वालों के लिए यह जानना अनिवार्य है कि वैदिक गणना के अनुसार अभी सृष्टि के नष्ट होने में 2.36 अरब वर्ष का समय शेष है। इसलिए बचाए रखने की यह कल्पना हमें इस सृष्टि के रहते हुए भी सर्वदा बचाए जाने वाले घटकों के रूप में स्मरण रखनी है। अन्यथा प्रलय आने से भले ही सृष्टि नष्ट अभी नहीं होने वाली किन्तु भोग व स्वार्थ की संस्कृति मानवता का समूचा संहार कर देगी तो क्या यह धरती मनुष्य के रहने योग्य बचेगी? उस स्थिति की कल्पना भी नहीं अच्छी। इसलिए मैं तो इस पूरी स्थिति पर अथर्ववेद के मंत्र से बढ़कर सटीक कुछ नहीं समझती -
"अन्ति सन्तम् न जहाति, अन्ति सन्तम् न पश्यति।
देवस्य पश्य काव्यम्, न ममार न जीर्यति॥" (अथर्ववेद 10/8/32)