सहजीवन, ‘को-हैबिटेशन’, ‘लिविंग टुगेदर’ और सम्बन्धों के ताने-बाने : कविता वाचक्नवी
एक पत्रिका द्वारा आयोजित 'परिचर्चा' हेतु उनके प्रकाश्य विशेषांक (अक्तूबर 2013) में 'लिव इन रिलेशनशिप' पर अपने विचार संक्षेप में लिख कर देने को कहा गया; तो 18-19 अगस्त को उनके लिए जो लिखा उसे 'जनसत्ता' में भी प्रकाशनार्थ भेज दिया। आज वह लेख जनसत्ता (रविवार 1 सितंबर 2013) के 'रविवारी' में प्रकाशित हुआ है।
मूल लेख व 'जनसत्ता' में प्रकाशित लेख को नीचे एक साथ देखा जा सकता है।
एक पत्रिका द्वारा आयोजित 'परिचर्चा' हेतु उनके प्रकाश्य विशेषांक (अक्तूबर 2013) में 'लिव इन रिलेशनशिप' पर अपने विचार संक्षेप में लिख कर देने को कहा गया; तो 18-19 अगस्त को उनके लिए जो लिखा उसे 'जनसत्ता' में भी प्रकाशनार्थ भेज दिया। आज वह लेख जनसत्ता (रविवार 1 सितंबर 2013) के 'रविवारी' में प्रकाशित हुआ है।
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बिना वैधानिक विवाह के स्त्री पुरुष का जोड़े के रूप में स्थायी तौर पर या लंबी अवधि के लिए साथ रहने लगना 'सहजीवन' कहा जाता है। यद्यपि अंग्रेज़ी में इस प्रकार के सम्बन्ध को Cohabitation कहा जाता है अथवा Living together, किन्तु भारत में इसके लिए प्रचलित शब्द 'लिव इन रिलेशनशिप' हो गया है जो यद्यपि अर्थ में त्रुटिपूर्ण है किन्तु अब रूढ़ जैसा है।
वस्तुतः विवाह सभी सभ्य समाजों की बहुत गहराई से सोची समझी व गढ़ी गई संकल्पना/संस्था है, जिसका उद्देश्य स्त्री और पुरुष को पूरक देने की अपेक्षा बच्चों को सुरक्षा देना अधिक था; किन्तु विवाह नामक संस्था की आड़ में निरन्तर होते घातों-प्रतिघातों के चलते समाज ने इसके लिए विकल्प तलाशने प्रारम्भ किए और आधुनिकता के साथ-साथ पश्चिमी जगत की देखा-देखी भारत में भी इस प्रकार के सम्बन्धों के आंकड़े बढ़ने लगे हैं। यद्यपि ध्यान देने की बात यह है कि पश्चिम के आधुनिक समाजों में लगभग 70% जोड़े सहजीवन को विवाह की ओर बढ़ने के लिए उठाया गया एक कदम ही मानते हैं। इसे आप यों भी समझ सकते हैं कि वे विवाहपूर्व साथ-साथ रहना प्रारम्भ कर देते हैं और यह अवधि कई बार 2-4-8-10 साल से भी अधिक लंबी खिंच जाती है व साथ ही कई बार इसी अवधि में जोड़े को यह समझ आ जाता है कि वे साथ नहीं निभा सकते तो वे अलग भी हो जाते हैं और तब नए साथी के साथ यही प्रक्रिया प्रारम्भ होती है। जब दोनों एक दूसरे के प्रति व अपने सम्बन्ध के स्थायित्व के प्रति आश्वस्त हो जाते हैं तब इस प्रकार के सहजीवन की परिणति ही उनके जीवन में विवाह के रूप में होती है। तो कुल मिलाकर पहली बात यह कि इस प्रकार के सम्बन्धों की अंतिम परिणति के रूप में विवाह की अनिवार्यता ज्यों की त्यों बनी हुई है व दूसरी बात यह कि इन सम्बन्धों में रहने वाले 80 प्रतिशत जोड़े इस सम्बन्ध को किसी स्थायी सम्बन्ध के निर्णय की प्रक्रिया / दिशा में बढ़ने के लिए उठाए गए कदम की भाँति अपनाते हैं। यह स्थिति उन समाजों की है जहाँ इस प्रकार के सम्बन्धों का सूत्रपात लगभग 30-35 वर्ष पहले से हो गया था व जिन समाजों में इसे गलत, निंदनीय, त्याज्य, गर्हित, वर्जित अथवा अजूबा आदि कुछ भी नहीं समझा जाता।
मैंने वर्ष 95 में जब नॉर्वे (स्केंडेनिवियन देश) में रहना प्रारम्भ किया तो प्रारम्भ में बहुत आश्चर्य होता था जब 70 या 80 बरस के जोड़े को विवाह बन्धन में बंधते देखती थी, किन्तु धीरे धीरे स्पष्ट होता गया कि अत्याधुनिक समाजों में भी (स्केन्डेनेवियन देश अमेरिका व योरोप की तुलना में भी अग्रणी आधुनिक देश माने जाते हैं) (1) विवाह की अनिवार्यता ज्यों की त्यों बनी हुई है व (2) सहजीवन सम्बन्ध-प्रक्रिया की पूर्णता नहीं है।
भारत में सामाजिक संरचना, वैधानिक स्थिति, आर्थिक व्यवस्था व समाज मनोविज्ञान आदि कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जिनके कारण इस प्रकार के सम्बन्ध व उनसे प्राप्त आँकड़े ( यद्यपि अभी आंकड़े बन सकने की स्थिति का प्रारम्भिक चरण भी नहीं है ) कभी भी इस प्रकार के सम्बन्धों की सही गवेषणा तक नहीं पहुँचने देंगे किन्तु फिर भी भारत के आधुनिक नगरों में कई जोड़े साथ बसने लगे हैं, जिस कारण कई संवैधानिक परिवर्तन भी गत दिनों किए गए; जिनका मूल उद्देश्य मूलत: बच्चों व साथ ही स्त्री को सुरक्षा देते हुए उनके अधिकार सुनिश्चित करना है। जिन अत्याधुनिक देशों की देखा-देखी ऐसे सम्बन्धों का चलन प्रारम्भ हुआ है उन देशों में बच्चों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए पूरा का पूरा देश किस प्रकार कटिबद्ध है इसकी कल्पना भी भारत में नहीं की जा सकती, यद्यपि पिछले वर्ष एक दो घटनाएँ भारतीय बच्चों के सम्बन्ध में नॉर्वे में घटित होने से भारत के लोगों को कुछ अनुमान हो गया होगा किन्तु अधिकांश भारतीय ऐसी घटनाओं में नॉर्वे की ही आलोचना करते दीखे हैं, क्योंकि वे नहीं जानते कि नॉर्वे जैसा देश बच्चों के भविष्य को लेकर कैसा व कितना सम्वेदनशील है।
किसी भी स्त्री पुरुष का विवाह के बिना साथ-साथ रहने लगना तब तक अविवेकी निर्णय ही कहा जाएगा जब तक वे इन सम्बन्धों से होने वाली सन्तान के विषय में सही निर्णय नहीं करते अथवा वे उन बच्चों के सही सामाजिक अधिकार, सुरक्षा व सम्मानजनक स्थिति के प्रति सुनिश्चित नहीं होते। भारत में अधिकांशतः ऐसे सम्बन्धों से होने वाली सन्तानों व ऐसे सम्बन्ध टूटने पर उस जोड़े से अलग हुई स्त्री के प्रति समाज का दृष्टिकोण सम्मानजनक होना तो दूर की बात है, लगभग अपमानजनक व घृणा के स्तर तक का है । ऐसे में किसी भी जोड़े का इस दिशा में आगे बढ़ते हुए साथ रहने लगना बहुत-सी चुनौतियों का कारक है। जिन समृद्ध आधुनिक देशों में व्यवस्था, समाज व संविधान स्त्री व बच्चों के प्रति बराबर व उदार हैं उन देशों में भी ऐसे सम्बन्धों से होने वाले बच्चों का भविष्य स्वस्थ गृहस्थों के बच्चों की तुलना में बहुत अंधकारमय पाया गया है। लघु आकार व कलेवर के इस लेख में मैं वे सब आंकड़े रख सकने की छूट नहीं ले सकती जिन्हें प्रस्तुत कर इन सम्बन्धों से जनित पारिवारिक व सामाजिक समस्याओं की भयावहता की बात बताई जा सके। ऐसे में यही कहा जा सकता है कि यदि विवाह संस्था में आई खामियों के कारण या उसे त्रुटिहीन बनाने के लिए उसके विकल्प के रूप में इस विकल्प को चुना जाता है तो इस विकल्प की भी अपनी चुनौतियाँ, खामियाँ, समस्याएँ व दुष्परिणाम हैं, जो अधिक विकराल हैं। ऐसे में विवाह का यह विकल्प सही विकल्प कैसे कहा जा सकता है व कैसे चयनयोग्य हो सकता है, इस पर विचार कर लेना अनिवार्य है ; क्योंकि भारत के संदर्भ में तो समस्याएँ, चुनौतियाँ व दुष्परिणाम कहीं और भी अधिक बड़ी मात्रा में होने वाले हैं।