शनिवार, 31 अगस्त 2013

सहजीवन, ‘को-हैबिटेशन’, ‘लिविंग टुगेदर’ और सम्बन्धों के ताने-बाने

सहजीवन, ‘को-हैबिटेशन’, ‘लिविंग टुगेदर’ और सम्बन्धों के ताने-बाने  : कविता वाचक्नवी

एक पत्रिका द्वारा आयोजित 'परिचर्चा' हेतु उनके प्रकाश्य विशेषांक (अक्तूबर 2013)  में 'लिव इन रिलेशनशिप' पर अपने विचार संक्षेप में लिख कर  देने को कहा गया; तो 18-19 अगस्त को उनके लिए जो लिखा उसे 'जनसत्ता' में भी प्रकाशनार्थ भेज दिया। आज वह लेख जनसत्ता (रविवार 1 सितंबर 2013) के 'रविवारी' में प्रकाशित हुआ है।

मूल लेख व 'जनसत्ता' में प्रकाशित लेख को नीचे एक साथ देखा जा सकता है।
लेख की क्लिपिंग व उस पर आई टिप्पणियाँ देखने के इच्छुक यहाँ देख सकते हैं -




बिना वैधानिक विवाह के स्त्री पुरुष का जोड़े के रूप में स्थायी तौर पर या लंबी अवधि के लिए साथ रहने लगना 'सहजीवन' कहा जाता है। यद्यपि अंग्रेज़ी में इस प्रकार के सम्बन्ध को Cohabitation कहा जाता है अथवा Living together, किन्तु भारत में इसके लिए प्रचलित शब्द 'लिव इन रिलेशनशिप' हो गया है जो यद्यपि अर्थ में त्रुटिपूर्ण है किन्तु अब रूढ़ जैसा है। 


वस्तुतः विवाह सभी सभ्य समाजों की बहुत गहराई से सोची समझी व गढ़ी गई संकल्पना/संस्था है, जिसका उद्देश्य स्त्री और पुरुष को पूरक देने की अपेक्षा बच्चों को सुरक्षा देना अधिक था; किन्तु विवाह नामक संस्था की आड़ में निरन्तर होते घातों-प्रतिघातों के चलते समाज ने इसके लिए विकल्प तलाशने प्रारम्भ किए और आधुनिकता के साथ-साथ पश्चिमी जगत की देखा-देखी भारत में भी इस प्रकार के सम्बन्धों के आंकड़े बढ़ने लगे हैं। यद्यपि ध्यान देने की बात यह है कि पश्चिम के आधुनिक समाजों में लगभग 70% जोड़े सहजीवन को विवाह की ओर बढ़ने के लिए उठाया गया एक कदम ही मानते हैं। इसे आप यों भी समझ सकते हैं कि वे विवाहपूर्व साथ-साथ रहना प्रारम्भ कर देते हैं और यह अवधि कई बार 2-4-8-10 साल से भी अधिक लंबी खिंच जाती है व साथ ही कई बार इसी अवधि में जोड़े को यह समझ आ जाता है कि वे साथ नहीं निभा सकते तो वे अलग भी हो जाते हैं और तब नए साथी के साथ यही प्रक्रिया प्रारम्भ होती है। जब दोनों एक दूसरे के प्रति व अपने सम्बन्ध के स्थायित्व के प्रति आश्वस्त हो जाते हैं तब इस प्रकार के सहजीवन की परिणति ही उनके जीवन में विवाह के रूप में होती है। तो कुल मिलाकर पहली बात यह कि इस प्रकार के सम्बन्धों की अंतिम परिणति के रूप में विवाह की अनिवार्यता ज्यों की त्यों बनी हुई है व दूसरी बात यह कि इन सम्बन्धों में रहने वाले 80 प्रतिशत जोड़े इस सम्बन्ध को किसी स्थायी सम्बन्ध के निर्णय की प्रक्रिया / दिशा में बढ़ने के लिए उठाए गए कदम की भाँति अपनाते हैं। यह स्थिति उन समाजों की है जहाँ इस प्रकार के सम्बन्धों का सूत्रपात लगभग 30-35 वर्ष पहले से हो गया था व जिन समाजों में इसे गलत, निंदनीय, त्याज्य, गर्हित, वर्जित अथवा अजूबा आदि कुछ भी नहीं समझा जाता। 


मैंने वर्ष 95 में जब नॉर्वे (स्केंडेनिवियन देश) में रहना प्रारम्भ किया तो प्रारम्भ में बहुत आश्चर्य होता था जब 70 या 80 बरस के जोड़े को विवाह बन्धन में बंधते देखती थी, किन्तु धीरे धीरे स्पष्ट होता गया कि अत्याधुनिक समाजों में भी (स्केन्डेनेवियन देश अमेरिका व योरोप की तुलना में भी अग्रणी आधुनिक देश माने जाते हैं) (1) विवाह की अनिवार्यता ज्यों की त्यों बनी हुई है व (2) सहजीवन सम्बन्ध-प्रक्रिया की पूर्णता नहीं है। 


भारत में सामाजिक संरचना, वैधानिक स्थिति, आर्थिक व्यवस्था व समाज मनोविज्ञान आदि कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जिनके कारण इस प्रकार के सम्बन्ध व उनसे प्राप्त आँकड़े ( यद्यपि अभी आंकड़े बन सकने की स्थिति का प्रारम्भिक चरण भी नहीं है ) कभी भी इस प्रकार के सम्बन्धों की सही गवेषणा तक नहीं पहुँचने देंगे किन्तु फिर भी भारत के आधुनिक नगरों में कई जोड़े साथ बसने लगे हैं, जिस कारण कई संवैधानिक परिवर्तन भी गत दिनों किए गए; जिनका मूल उद्देश्य मूलत: बच्चों व साथ ही स्त्री को सुरक्षा देते हुए उनके अधिकार सुनिश्चित करना है। जिन अत्याधुनिक देशों की देखा-देखी ऐसे सम्बन्धों का चलन प्रारम्भ हुआ है उन देशों में बच्चों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए पूरा का पूरा देश किस प्रकार कटिबद्ध है इसकी कल्पना भी भारत में नहीं की जा सकती, यद्यपि पिछले वर्ष एक दो घटनाएँ भारतीय बच्चों के सम्बन्ध में नॉर्वे में घटित होने से भारत के लोगों को कुछ अनुमान हो गया होगा किन्तु अधिकांश भारतीय ऐसी घटनाओं में नॉर्वे की ही आलोचना करते दीखे हैं, क्योंकि वे नहीं जानते कि नॉर्वे जैसा देश बच्चों के भविष्य को लेकर कैसा व कितना सम्वेदनशील है। 


किसी भी स्त्री पुरुष का विवाह के बिना साथ-साथ रहने लगना तब तक अविवेकी निर्णय ही कहा जाएगा जब तक वे इन सम्बन्धों से होने वाली सन्तान के विषय में सही निर्णय नहीं करते अथवा वे उन बच्चों के सही सामाजिक अधिकार, सुरक्षा व सम्मानजनक स्थिति के प्रति सुनिश्चित नहीं होते। भारत में अधिकांशतः ऐसे सम्बन्धों से होने वाली सन्तानों व ऐसे सम्बन्ध टूटने पर उस जोड़े से अलग हुई स्त्री के प्रति समाज का दृष्टिकोण सम्मानजनक होना तो दूर की बात है, लगभग अपमानजनक व घृणा के स्तर तक का है । ऐसे में किसी भी जोड़े का इस दिशा में आगे बढ़ते हुए साथ रहने लगना बहुत-सी चुनौतियों का कारक है। जिन समृद्ध आधुनिक देशों में व्यवस्था, समाज व संविधान स्त्री व बच्चों के प्रति बराबर व उदार हैं उन देशों में भी ऐसे सम्बन्धों से होने वाले बच्चों का भविष्य स्वस्थ गृहस्थों के बच्चों की तुलना में बहुत अंधकारमय पाया गया है। लघु आकार व कलेवर के इस लेख में मैं वे सब आंकड़े रख सकने की छूट नहीं ले सकती जिन्हें प्रस्तुत कर इन सम्बन्धों से जनित पारिवारिक व सामाजिक समस्याओं की भयावहता की बात बताई जा सके। ऐसे में यही कहा जा सकता है कि यदि विवाह संस्था में आई खामियों के कारण या उसे त्रुटिहीन बनाने के लिए उसके विकल्प के रूप में इस विकल्प को चुना जाता है तो इस विकल्प की भी अपनी चुनौतियाँ, खामियाँ, समस्याएँ व दुष्परिणाम हैं, जो अधिक विकराल हैं। ऐसे में विवाह का यह विकल्प सही विकल्प कैसे कहा जा सकता है व कैसे चयनयोग्य हो सकता है, इस पर विचार कर लेना अनिवार्य है ; क्योंकि भारत के संदर्भ में तो समस्याएँ, चुनौतियाँ व दुष्परिणाम कहीं और भी अधिक बड़ी मात्रा में होने वाले हैं।




बुधवार, 21 अगस्त 2013

"पीर के कुछ बीज"

"पीर के कुछ बीज" : कविता वाचक्नवी


सोमवार 19 अगस्त के  'दैनिक जागरण' (राष्ट्रीय) के साहित्यिक परिशिष्ट "सप्तरंग : साहित्यिक पुनर्नवा" में मेरी एक लगभग 15 बरस पूर्व लिखी गई कविता "पीर के कुछ बीज" प्रकाशित हुई है, रोचक बात यह थी कि 18 की रात (भारत में तब 19 की भोर हुई ही होगी) से ही इस कविता पर पचासों साहित्यिक लोगों की प्रतिक्रिया फेसबुक के मेरे इनबॉक्स में आ चुकी थी । 

ईमेल से आने वाली प्रतिक्रियाओं का ताँता अभी भी लगा हुआ है। यह पहली बार है जब दूर-दराज के अनजान से अनजान व्यक्तियों तक से इतनी भारी मात्रा में किसी एक रचना पर लगातार सुखद प्रतिक्रियाएँ आ रही हैं। इस से दैनिक जागरण के प्रसार व पाठक-क्षमता का पता भी चलता है। समाचार पत्र के प्रति आभारी हूँ कि उन्होंने मेरे रचना को यों जन-जन तक पहुँचाया।  



जो लोग ऑनलाईन अंक देखना चाहें वे यहाँ 19 अगस्त 2013 का ई-पेपर देख सकते हैं - 

http://epaper.jagran.com/homepage.aspx

कुछ प्रतिक्रियाएँ यहाँ देखी जा सकती हैं -https://www.facebook.com/kvachaknavee/posts/10151770927014523






शनिवार, 17 अगस्त 2013

जाने कब से दहक रहे हैं ......

जाने कब से दहक रहे हैं .... कविता वाचक्नवी


वर्ष 1998 में नागार्जुन की 'हमारा पगलवा' पढ़ते हुए एक अंश पर मन अटक गया था -

"बाप रे बाप, इस कदर भी 
किसी की नाक बजती है ... 
यह तीसरी रात है 
पलकों के कोए जाने कब से दहक रहे हैं 
मर गई मैं तो "

इस अंश की यह पंक्ति "पलकों के कोए जाने कब से दहक रहे हैं" मुझे पंजाबी के अमर कवि शिव कुमार बटालवी के प्रसिद्ध गीत (माए नी मैं इक शिकरा यार बनाया) के पास ले गई, जिसकी एक पंक्ति थी- 

"दुखन मेरे नैना दे कोए,
ते विच हड़ हंजुआँ दा आया

पंजाबी के कवि शिव 'नैनों के कोए दुखने' की बात करते हैं तो नागार्जुन 'पलकों के कोए दहकने' की बात करते हैं। अतः स्मरण स्वाभाविक था। दूसरी ओर "निराला की साहित्य साधना" में मुंशी नवजादिकलाल का निराला के सौंदर्य के एक प्रसंग में कथन आता है कि -

 "एक तो महाकवि बिहारीलाल की नायिका भौंहों से हँसती थी, दूसरे हमारे निराला जी भौंहों में हँसा करते हैं। बल्कि ये तो बिहारी की नायिका के भी कान कुतर चुके है। इनकी पलकें हँसती हैं, बरौनियाँ हँसती हैं, आँखों के कोए हँसते हैं, अजी इनकी नसें और मसें हँसती हैं। " 

कुल मिलाकर यह 'कोए' शब्द तीन तरह से मन में गड़ा हुआ था। तभी नागार्जुन की उपर्युक्त एक पंक्ति को आधार बना कर मैंने उस समय एक नया गीत रचा था (जिसे भाषा व साहित्यिक मासिक "पूर्णकुम्भ" ने 1998 /99 में प्रकाशित भी किया था)। अपने उस पुराने गीत की याद गत कई दिन से रह-रह कर आ रही है। 
वह गीत कुछ यों था - 

जाने कब से ....
- (कविता वाचक्नवी) 

जाने कब से दहक रहे हैं इन पलकों के कोए 
जाने कितनी रातें बीतीं जाने कब थे सोए 


द्रुमदल छायादार न उपजे मीठे अनुरागों के 
स्मृतियों के वन पर न बरसे अमृत कण भादों के 
अब बस केवल भार बना है तन मिट्ठी का ढेला 
आह ! आह को सींचा प्रतिक्षण पुष्कल आँसू बोए 

                             जाने कितनी रातें बीतीं जाने कब थे सोए 


(इसके आगे चार बन्ध और थे, जो फिलहाल स्मरण नहीं आ रहे हैं, जब कभी उस प्रकाशित प्रति की कतरन मिलगी या 15 बरस पुरानी अपनी कोई डायरी मिलेगी तो ही इसे पूरा यहाँ दे पाऊँगी, तब तक इतना ही )


गुरुवार, 15 अगस्त 2013

भारत माता : अभिनय से संस्कार तक






indian_flag.htmlअपने जीवन के प्रारम्भिक दौर में मैंने मंचों पर खूब अभिनय आदि किया है। मेरे द्वारा अभिनीत नाटकों व भूमिकाओं के बाद स्थिति यह होती थी कि महीनों-सालों तक लोगों की भीड़ मुझे दैनिक जीवन में आते-जाते भी मेरी किसी न किसी अभिनीत भूमिका के पात्र के रूप में पहचानती थी और यह भी याद है कि अपने जीवन की अन्तिम अभिनय-भूमिका  मैंने वर्ष 1978 -79 में की थी, जिसके परिणाम स्वरूप मुझे राज्य का 'बेस्ट एक्टिंग अवार्ड' मिला था। यह भूमिका दहेज विरोधी एक नाटक में दुल्हन की थी। इसका श्वेत-श्याम एक चित्र अभी पिताजी की एल्बम में भी पड़ा हुआ है। इस भूमिका के साल भर बाद तक कॉलेज से बाहर आते हुए लोगों की भीड़ रास्ता रोक लिया करती थी और राह चलते लोग उंगली से 'दुल्हन' कह कर इशारा किया करते थे, स्कूल कॉलेज की लड़कियों में तो धक्का मुक्की हो जाया करती थी मुझे आते-जाते आगे बढ़ कर देखने वालों के बीच। उस जमाने व उस उम्र में वैसी लोकप्रियता किन्हीं विरलों को ही मिला करती थी। खैर ! 


यह तो रही अन्तिम भूमिका की बात, किन्तु आज इसका स्मरण इसलिए आया क्योंकि अपने जीवन में प्रथम भूमिका मैंने कक्षा प्रथम से ही निभानी शुरू कर दी थी, जब प्रत्येक वर्ष स्वतन्त्रता दिवस व गणतन्त्र दिवस के अवसर पर हर बार विद्यालय के प्रिंसिपल (उस समय के मेरे हीरो अध्यापक नरेश शर्मा जी) पूरे कार्यक्रम व ध्वजारोहण के समय मुझे "भारत माता" के रूप में ध्वज के पास 2-3 घण्टों के लिए ( हाथ से मुख्य ध्वजा के स्तम्भ को छूते हुए ) खड़ा करवा देते थे, वासन्ती साड़ी व तीन रंगों की कई सारी पुष्पमालाएँ मेरे गले में पहनाई जाती थीं व माथे पर बड़ा-सा टीका किया जाता था। स्कूल की मेरी अध्यापिकाएँ ही मुझे तैयार भी किया करती थीं।  


कार्यक्रम के उपरांत उस सार्वजनिक मैदान में उपस्थित विद्यालय के छात्रों के परिवार वाले व सभी अन्य लोग आ आकर चरण छुआ करते थे। बाँटे जाने वाले लड्डुओं का थाल मेरे आगे एक पटिया पर रखा जाता था, जिसे कार्यक्रम के पश्चात् सभा विसर्जित होने से पूर्व सभी को बाँटा जाता था। किसी विद्यालय का यह ध्वजारोहण कार्यक्रम, उस नगर के उस क्षेत्र का आधिकारिक ध्वजारोहण कार्यक्रम होता था जिसमें दूर दूर के मोहल्ले वाले बड़े-छोटे सभी भाग लेते थे, तम्बू-कनातें लगते थे, छिड़काव होता था, लाऊडस्पीकर पर बहुत भोर से ही ज़ोर ज़ोर से देशभक्ति के गीत बजाए जाने लगते थे और विद्यालय के एक कमरे में सुई की नोक पर बजने वाले रेकॉर्ड लिए लाऊडस्पीकर वालों की तरफ से एक व्यक्ति हर समय डटा रहता अदला-बदली करता रहता था। 


आज स्वतन्त्रता दिवस पर लगभग पैंतालीस-अड़तालीस बरस बाद उन दृश्यों का अनायास स्मरण हो आया है। भारतमाता के प्रति जन-जन की उस आस्था के चलते लोगों ने उस बालक कविता को भारतमाता का प्रतीक मान चरण छू छू कर मन में राष्ट्रीयता व देशभक्ति के प्रथम संस्कार विकसित किए होंगे। आज उनमें से कोई विरला ही उन दृश्यों व घटनाओं को याद करने वाला होगा किन्तु मैं अपने इन शब्दों के माध्यम से उन की उस भावना को प्रणाम निवेदित करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रही हूँ।


वह बच्ची आज मन में पुनः सिर उठाकर ध्वज थामे उसी ठसक से आ मूर्ति की तरह स्थापित हो गई है। तब भले ही वह अभिनय मात्र था, किन्तु था शुद्ध व सात्विक ! संस्कार ऐसे ही बनते होंगे शायद। आज जब नन्हे नन्हें बच्चों को भौण्डे फिल्मी गीतों पर कूल्हे मटकाते मंचों पर अभिनय करते देखती हूँ तो लगता है कि कैसे यह पीढ़ी देशप्रेमी पीढ़ी में रूपांतरित हो सकती है या संस्कारित हो सकती है भला ! 


पता नहीं, अब भारत में जन जन का सैलाब भारत माता के ऐसे प्रतीकों के प्रति उसी आवेश और उसी निष्ठाभाव से उमड़ता भी है या नहीं ... या वे लोग सच में पूरी तरह कहीं खो गए ....


आज यद्यपि सब ओर इतना कुछ भयावह, दु:खद व कलुषित है कि राष्ट्र की मुक्ति के संघर्ष में जी-जान लागकर उसे अर्जित करने वाले लाखों-लाख बलिदानियों का वह अनुपम त्याग और बदले में देशवासियों को मुक्ति का आकाश देने की भावना का मूल्य तिरोहित हो चुका है। किन्तु मेरे लिए तो स्वातन्त्र्यपर्व और गणतन्त्रदिवस का अर्थ राष्ट्रीयमुक्ति-संघर्ष में स्वेच्छा से प्राण दे देने वाले लक्षाधिक वीरों के ऋण से स्वयं को उऋण न होने देने के स्मरण की वार्षिकी ही होता है। हमारी व हमारी आगामी पीढ़ियों की जिस शुभ-कामना से उन्होंने अपना, अपने परिवारों व अपनी पीढ़ियों का जीवन दाँव पर लगाया, यह राष्ट्र उसका सदा ऋणी रहेगा। इस वातावरण व राष्ट्रीय नैतिक मूल्यों के पतन के गर्त में देश को देखकर विचार यह भी आता है कि जिन मूल्यों की प्रतिष्ठा में उन्होंने प्राण दिए उनके पुनर्जागरण  का अंकुर कब व कहाँ पनपेगा .... !यह भी अभी मानो काल के गर्भ ही में है।



भारत माता की भूमिका से शुरू हुआ वह अभिनय तो कब का तभी समाप्त हो गया, किन्तु भारतमाता संस्कार के रूप में मन के भीतर आकर तभी से विराज गई हैं। उन्हें शत-शत वन्दन और उसके अमर बलिदानी सपूतों को भी शत शत वन्दन, अभिनन्दन, प्रणाम !! 




मंगलवार, 6 अगस्त 2013

ऐतिहासिक 'चित्रपट' (साप्ताहिक) की दुर्लभ प्रति और मुखपृष्ठ पर 'हरिऔध'

ऐतिहासिक 'चित्रपट' (साप्ताहिक) की दुर्लभ प्रति और मुखपृष्ठ पर हरिऔध : कविता वाचक्नवी


आज एक दुर्लभ वस्तु हाथ लगी है। ' चित्रपट' पत्रिका का वर्ष 1934 नव-वर्षांक (वर्ष दो)। इसके मुखपृष्ठ पर कवि अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' की रचना प्रकाशित है। 


यह अंक सम्पादक श्री ऋषभचरण जैन द्वारा समालोचनार्थ भेंट की गई हस्ताक्षरित प्रति है, जो Tübingen विश्वविद्यालय जर्मनी में संरक्षित है। यह अंक लगभग 310 पृष्ठों का है। 

कई रोचक तथ्य इस अंक को देखने से पता चलते हैं, जिनमें से एक यह कि वर्ष 1934 तक भी अपने देश का नाम विधिवत् 'भारतवर्ष' ही लिखा/कहा जाता था। इसे देख कर मुझे सुखदानुभूति हो रही है :) 


मुखपृष्ठ का चित्र देखें -


रविवार, 4 अगस्त 2013

"भाषा, साहित्य और सर्जनात्मकता" : कविता और दिल्ली विश्वविद्यालय

"भाषा, साहित्य और सर्जनात्मकता" में कविता  : कविता वाचक्नवी



आज आधिकारिक रूप से यह सुखद सूचना आप सब से बाँट सकती हूँ कि - 

दिल्ली विश्वविद्यालय ने अपने नए पाठ्यक्रम में 'अनिवार्य हिन्दी' के 'आधार पाठ्यक्रम' की पुस्तक ("भाषा, साहित्य और सर्जनात्मकता") में मेरी कविता "जल" को सम्मिलित किया है। 

पुस्तक गत दिनों 26 जुलाई 2013 को​ जारी हुई ​व इसी सत्र से पढ़ाई जानी प्रारम्भ हुई है। इस सत्र से सभी विद्यार्थी 'अनिवार्य विषय हिन्दी​' की पुस्तक के रूप में इसे पढ़ेंगे। 


- ध्यातव्य है कि ​ वर्ष 2002 में​ एन.सी.ई.आर.टी. द्वारा उनकी अन्यभाषा/ हिन्दी की पाठ्यपुस्तक में भी कई वर्ष मेरी​ कविता सम्मिलित रही है व केंद्र सरकार द्वारा संचालित देश भर के विद्यालयों में पढ़ाई जाती रही है।

- साथ ही दिल्ली के पब्लिक स्कूलों के पाठ्यक्रम हेतु 'ओरियंट लाँगमैन' ने भी वर्ष 2003 में अपनी 'नवरंग रीडर' में मेरे दोहे सम्मिलित किए थे।

- इसके अतिरिक्त केरल राज्य की 7वीं व 8वीं की द्वितीय भाषा हिन्दी की पाठ्यपुस्तकों में भी वर्ष 2002 में ही ​मेरी बाल कविताएँ सम्मिलित की गई थीं।

- अब देश के शीर्षस्थ विश्वविद्यालय के मुख्य​ पाठ्यक्रम का हिस्सा​ होने का सौभाग्य मिला है, जो अत्यंत विरलों को संभव है। ​

.... तो इस प्रकार अब दिल्ली विश्वविद्यालय ने भी रचनाकार के रूप में प्रसन्न होने का एक बड़ा कारण उपलब्ध करवा दिया है।


यह गौरव अपने माता-पिता, आचार्यों, शुभचिन्तकों, मित्रों व परिवार को समर्पित करती हूँ।


जल 
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जल, जल है
पर जल का नाम
बदल जाता है।


हिम नग से
झरने
झरनों से नदियाँ
नदियों से सागर
तक चल कर
कितना भी आकाश उड़े
गिरे
बहे
सूखे
पर भेस बदल कर
रूप बदल कर
नाम बदल कर
पानी, पानी ही रहता है।

श्रम का सीकर
दु:ख का आँसू
हँसती आँखों में सपने, जल!


कितने जाल डाल मछुआरे
पानी से जीवन छीनेंगे ?
कितने सूरज लू बरसा कर
नदियों के तन-मन सोखेंगे ?
उन्हें स्वयम् ही
पिघले हिम के
जल-प्लावन में घिरना होगा
फिर-फिर जल के
घाट-घाट पर
ठाठ-बाट तज
तिरना होगा,


महाप्रलय में
एक नाम ही शेष रहेगा
जल …..
जल......
जल ही जल ।

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यह कविता मेरे काव्यसंकलन “मैं चल तो दूँ” (2005, सुमन प्रकाशन) में संकलित है।

गुरुवार, 1 अगस्त 2013

मॉर्निंग न्यूज़, जयपुर में ललित निबन्ध

मॉर्निंग न्यूज़, जयपुर में ललित निबन्ध


28 जुलाई, 2013 को जयपुर से प्रकाशित दैनिक हिन्दी समाचारपत्र 'मॉर्निंग न्यूज़' के रविवारीय साहित्यिक परिशिष्ट के मुखपृष्ठ (संख्या10) पर प्रकाशित मेरा ललित निबन्ध - "रंगों का पंचांग"


जिन्हें पढ़ने में असुविधा हो वे इस लिंक पर जाकर 28 जुलाई चुन कर उस दिन का ई-पेपर देख सकते हैं । http://www.morningnewsindia.com/epaper/news.php?city=Jaipur


नेट पर इसे अन्यत्र यहाँ पढ़ सकते हैं -



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