शनिवार, 21 जुलाई 2012

हिन्दी : सम्मेलन, सार्थकता और औचित्य

हिन्दी : सम्मेलन, सार्थकता और औचित्य 
- कविता वाचक्नवी




सितंबर में होने जा रहे "9वें विश्व हिन्दी सम्मेलन" की सार्थकता और औचित्य पर उठाए जाते प्रश्नों को पढ़ कर कुछ विचित्र-सा लगा कि मित्र लोग इसके आयोजन को लेकर हिन्दी के भले और बुरे की बात कर रहे हैं....  कि इस से हिन्दी का भला क्या भला होगा। 


किसी भी सम्मेलन से हिन्दी का या किसी और चीज का क्या भला होता है? किसी सम्मेलन आदि से कुछ नहीं। तब भी वे होते आए हैं। फिर हिन्दी के विश्व-सम्मेलन के औचित्य पर ही आपत्ति क्यों की जाए, उसे क्यों संदिग्ध बनाया जाए ?  मेरे जैसे हजारों लाखों लोगों के लिए दुनिया के किसी भी कोने में ऐसे कार्यक्रम का होना एक सात्विक गौरव की अनुभूति-भर है, संवेदना से जुड़ा हुआ। उसे काहे ध्वस्त किया जाए !  

जब देश और दुनिया में इतना कुछ निरर्थक हो रहा है .... तो कम से हिन्दी का नाम इस बहाने विश्वपटल या कुछ समाचारों में आ जाएगा, वहाँ की जनता के लिए एक ज्वलंत विषय के रूप में कौतूहलवश कुछ परिचय और जानने का अवसर देगा, वहाँ बसे हिन्दीभाषियों की आत्मीयता को कुछ विस्तार के अवसर देगा....  आदि-आदि कुछ तो चीजें हैं ही। इस बात पर प्रसन्न और संतुष्ट क्यों न हो लिया जाए ? 

सम्मेलन का इतना सुंदर,सार्थक और सर्जनात्मक `लोगो' चयनित किया गया है कि मैं तो बस मुग्ध हो गई।

 कुछ चीजें कई बार तर्क से परे रख दी जानी अच्छी लगती हैं, उनसे संवेदना जुड़ी होती है, परंपरा और इतिहास जुड़ा होता है;  जो मेरे जैसे अदना-से व्यक्ति को भी आत्मगौरव से भर देता है और इस बहाने कितने लोग बार-बार विश्व हिन्दी सम्मेलनों के इतिहास आदि से परिचित होंगे, यह भी ऐसे दुर्दिनों में कम है क्या ?


  मैं तो भाग न ले सकने की विवशता के बावजूद इस बात पर हर बार आह्लादित होती आई हूँ कि हिन्दी का एक विश्वस्तर का आयोजन कहीं हो रहा है । .... और अपने इस आह्लाद, आत्मगौरव, इतिहास /परंपरा से (भले ही मन ही मन ) जुडने के भाव में निमग्न रहना चाहती हूँ और इस बृहत घटना से आनंदित भी !!   :-)  और आप ? 



शुक्रवार, 20 जुलाई 2012

लोहा सारा गला हुआ है : एक पुरानी कविता : (डॉ.) कविता वाचक्नवी


पानी बरसेगा
- (डॉ.) कविता वाचक्नवी
अपनी पुस्तक " मैं चल तो दूँ " (2005 ) से उद्धृत 

Waiting for the Rain
Artist: Ruth Burnik 









सुनती हूँ - "पानी बरसेगा"
जंगल, नगर, ताल प्यासे हैं
मुरझाया पेड़ों का बाना।

इतने दिन का नागा करती
वर्षा की पायल की आहट
सुनने को पत्थर आकुल हैं
लोहा सारा गला हुआ है
उसको पानी में ढलना है,

सलवट-सलवट कटा हुआ
पैरों के नीचे
पृथ्वी का आँचल पुकारता
पानी....पानी....पानी....पानी....।

बादल अपने नियत समय पर
इसको
उसको
सबको
उनको
पानी देंगे
तब आएँगे।
अभी समय
नहीं आया है।

सुनती हूँ -
पानी बरसेगा.....।
      



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