हम न अब तक सीख पाए ज़िंदगी का ये शऊर......: - (कविता वाचक्नवी)
अपनी एक पुरानी रचना आज कहीं पुराने पन्नों में दीख गई | संभवतः ईस्वी सन् १९९९ में लिखी थी और भारत में किसी शरदपूर्णिमा की रात को आयोजित एक कविसम्मेलन में पहली बार इसे पढ़ा था |
सोचा, आज यहाँ वागर्थ पर वही रचना सहेजी जाए |
दर्द को कहना धुआँ औ’ प्रेम को कहना कपूर
हम न अब तक सीख पाए ज़िंदगी का ये शऊर
चाहतों की प्यास को ना छाँह का भी आसरा
प्यार उनका ज़िंदगी की रेत में ऊँचा खजूर
लाख परदे तुम गिराओ या करो कितना दुराव
हाथ पर सरसों उगी है आँख देखेगी ज़रूर
द्वेष, निंदा, क्रोध, स्पर्धा आग पानी में भरें
पलक में चुभते कभी भी तोड़िए तिन का ग़ुरूर
पीर की उलझन में उनको उलझने का शौक है
बात सीधी और सादी आपकी हरदम हुज़ूर
घाव गहरे पीठ के पीछे लगे कुछ इस तरह
दर्द का होगा नशा भी और रोने का सुरूर