समय, स्थिति और स्त्री : कविता वाचक्नवी
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जो लोग जमाना बदल चुकने या समाज और समय बदल गया की बात करते हैं, वे जीवन की वास्तविकताओं के प्रति अत्यन्त अगंभीर और परे होते हैं। 80% वाले भारत की बात तो दूर 20% शहरों वाले भारत में ही पूरा समय, ज़माना और समाज नहीं बदला है। जितने अर्थों में जीवन का दिखावा बढ़ा है, उस से भी अधिक बड़े अर्थों में समाज-मानसिकता में बदलाव का दिखावा भी बढ़ा है।
इसी दिखावे को देख कर या इस से प्रभावित हो, इसके आधार पर निर्णय लेना या परिवर्तन की स्थापना देना जीवन को उसके किनारे बैठ कर देखने जैसा है। स्त्रियों की स्थिति के प्रति ऐसे निर्णय सुनाने या निर्णय पर पहुँचने से पहले हजारी प्रसाद द्विवेदी जी का 'बाणभट्ट की आत्मकथा' का सूत्र वाक्य सदैव स्मरण रखना चाहिए कि “स्त्री के दुःख इतने गंभीर होते हैं कि उसके शब्द उसका दशमांश भी नहीं बता सकते। सहानुभूति के द्वारा ही उस मर्म-वेदना का किंचित आभास पाया जा सकता है।”
'किंचित' के साथ वे पता, समझ, अनुभव, जानकारी इत्यादि शब्द नहीं अपितु केवल 'आभास' ही जोड़ते हैं, यह विशेष ध्यान देने की बात है।
यह वाक्य कक्षा 9वीं -10 वीं के बाद की छुट्टियों में 'बाणभट्ट की आत्मकथा' पढ़ते हुए सबसे पहली बार पढ़ा था और तभी अपनी डायरी में लिख लिया था। यह एक वाक्य मुझे (1) जीवन में मिली लाखों स्त्रियों में से किसी के भी बारे में निर्णय लेने या विचार बनाने से पूर्व चेताता रहा है तो साथ ही साथ (2) मेरी संवेदना को जागृत रखने वाले किसी 'टूल' की भांति 'अलार्म' का काम भी करता है। और तीसरा काम यह वाक्य यह करता आया है कि (3) तट पर बैठ कर समय बदलने और सामाजिक परिवर्तन की घंटी बजाने वालों की समझ को परखने का अवसर देता रहा है।
स्त्री के लिए समय और समाज सही अर्थों में नाममात्र का बदला है। वह पहले भी दैनिक उपयोग व उपभोग की वस्तु थी.... आज भी दैनिक उपयोग की वस्तु ही है। नियंत्रक शक्तियाँ भले कुछ बदल गई हैं या अब शातिर बाजारू शक्तियों ने उपयोग व उपभोग की वस्तु बनने को स्त्री की स्वेच्छा व चयन की स्वतंत्रता के लुभावने आवरण में परिवर्तित कर दिया गया है। स्त्री समाज व जीवन की पूरी विकटता से झूझने की अपनी शक्ति और जीवन के प्रति अपनी आस्था के चलते कोई अन्य उपाय न पा इस कारा के पाश में बंधती चली जाती है। समाज में क्या कोई ऐसी भी वेश्या हैं जो मौज मस्ती के लिए उस दारुण जीवन को अपने लिए स्वीकारती या चुनती हैं ?
कुछ गिने चुने उदाहरण देकर / दिखाकर बहुधा लोग समय व समाज को देखने की तमीज सिखाया करते हैं। परंतु वे नहीं जानते कि समय और समाज को देखने के अचूक यन्त्र (द्विवेदी जी वाले ) से बढ़कर कोई दूसरा यन्त्र हो ही नहीं सकता।..... और इस यन्त्र से दुनिया देखने वालों को कुछ साफ दीखा करता है। कई प्रबुद्ध शिक्षित आधुनिक महिलाएँ तक भी कुछ गिने चुने या अपने इर्दगिर्द के ऐसे उदाहरण और प्रमाण एकत्रित कर व फिर उन्हें दिखा कर घोषणा करना चाहती/चाहते हैं कि समय बदल गया। वस्तुतः आधुनिक नारीसमाज की कुछ स्त्रियों सहित ऐसे तर्क व उदाहरण देने वालों का यह व्यवहार उसी श्रेणी का होता है जिस श्रेणी की असंवेदना को केंद्र में रख द्विवेदी जी 'इतने गंभीर..." की बात कहते हैं। यह उस गंभीरता पर आवरण चढ़ाने और चढ़े हुए आवरण को न हटा पाने की असहानुभूतिजन्य मानसिकता का ही फल है। प्रभा खेतान जी की 'अन्या से अनन्या' पढ़ने के बाद मन में सबसे पहला व आज तक यही प्रश्न आया कि उस स्त्री के दु:ख का क्या, जिसका पति दो दो स्त्रियों से घात /प्रयोग कर रहा है और उसे विवाहिता के बंधन में बाँध एक दूसरी स्त्री के साथ मनोरंजन में लगा है। एक ही कालावधि / समय अन्या से अनन्या बनी स्त्री के लिए बदल गया होगा पर उसी कालावधि में जी रही उस स्त्री का क्या जो अन्या न थी, और कभी अनन्या भी न बनी और त्यक्ता रही जीवन-भर। ऐसे में वस्तुतः अनन्या वह है जो जीवन-भर एक स्त्रीविमर्श की पैरोकार के सामने पत्नी का आडंबर निभा ले गई और स्वयं स्त्रीविमर्श की झंडाबरदार तक उसकी वेदना के प्रति कटूक्त ही रहीं।
इसलिए समाज में सुखी,खुशहाल, आदि आदि दीखने वाली स्त्री भी बहुधा इसलिए ऐसी दीखती है क्योंकि यदि वह ऐसी न दीखे तो समाज उसे जीने न दे। ये तरकीबें और दिखावे उसके मजबूती से स्वयं को एक रूपविशेष में प्रस्तुत करने की विवशताएँ-भर हैं, न कि बदले हुए समय व वातावरण के उदाहरण। जिस दिन समाज का जो व्यक्ति इतना संवेदनशील होगा की वह स्त्री के कष्टों की मर्मवेदना का किंचित आभास पा सके, उस दिन वह जान पाएगा कि वे दु:ख वास्तव में कितने गंभीर होते हैं। आधुनिक समय की भागदौड़, आधुनिकीकरण से उपजी निर्मम क्रूरता ने मनुष्य को जिस अनुपात में असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में स्त्री के प्रति निर्ममता और असहानुभूति भी बढ़ी है। उसी का स्पष्ट भयावह परिणाम कि स्त्री के रूप में जन्मते ही नहीं अपितु जन्मने से पूर्व ही उसकी हत्या कर दी जाती है।
इस निर्मम समय और समाज से उसकी क्रूरता जब व जैसे छूटेगी तब व तैसे ही कोई समाज अपने स्त्रीवर्ग के प्रति समय बदलने की बात को कहने का अधिकारी होगा।
द्विवेदी जी के लिखे से सहमत। महिलाओं की स्थिति लगातार बदल रही है फ़िर भी बहुत कुछ वैसी ही बनी हुयी है।
जवाब देंहटाएंआपके विचारों में शुरू से ही मैंने एक शुचिता और क्रांति भी देखी है।
जवाब देंहटाएंसमझ सबसे बड़ी उलझन है कभी पूरी सिमटती ही नहीं।
जवाब देंहटाएंआचार्य द्विवेदी का यह सूत्र-वाक्य याद दिला कर आपने दुखती रग पर हाथ रखा है.समानाधिकारों का ढोल पीट कर,और कानून बना कर किसी की मानसिकता को नहीं बदला जा सकता.
जवाब देंहटाएंबिलकुल यथार्थ लेखन
जवाब देंहटाएंअभी तक समाज व् सोंच अपरिवर्तनीय है
सिर्फ़ एक वाक्य में पूरी स्त्री जाति के दर्द को बयाँ कर दिया जो अटल सत्य है मगर ये चकाचौंध में फ़ंसी दुनिया के लिये स्त्री महज़ शहर की कुछ महिलाओं की स्थिति ही है जो थोडा आगे बढने की कोशिश में हैं लेकिन देखा जाये तो शायद वो भी आज भी उतनी स्वतन्त्र नहीं हैं मुश्किल से एक प्रतिशत महिलायें ही मिलेंगी जो स्वंय के निर्णय के लिये स्वतंत्र होंगी फिर कैसे कह दें बदल गयी है स्त्री की दशा समय और काल के साथ ।
जवाब देंहटाएंडॉ. साहिबा बहुत ही सुन्दर आलेख है आपकी सोंच को सलाम बधाई
जवाब देंहटाएंअरुन शर्मा
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सही कहा आपने।
जवाब देंहटाएंमछलियों-सी तड़पती औरतें लिए अस्मत,
जवाब देंहटाएंनिगलें घड़ियाल घर के हाय! फूटी है किस्मत।
ताक में बैठे हैं बगुले बहुत बाहर जल के,
आवें कैसे किनारे पर उछलके या छलके?
रोज़ ही सोखता कानून का सूरज पानी,
जाल में मुश्किलों के फँसी मछली रानी।
सोचती है - बहुत अच्छा है, जो परिन्दा है।।
'स्त्री के दुःख इतने गंभीर होते हैं .......'
जवाब देंहटाएं"स्त्री के लिए समय और समाज सही अर्थों में नाममात्र का बदला है। वह पहले भी दैनिक उपयोग व उपभोग की वस्तु थी.... आज भी दैनिक उपयोग की वस्तु ही है। नियंत्रक शक्तियाँ भले कुछ बदल गई हैं या अब उपयोग व उपभोग की वस्तु बनना स्त्री की स्वेच्छा में परिवर्तित कर दिया गया है।......" bahut sahi hai...
जवाब देंहटाएंabsolutely true.
जवाब देंहटाएंsamay to har kshan badalta...har samay badalta...har kshan ke hisaab se parivesh ko samajhne ke akulaahat ko hee log aksar parivartan kahte...ye rootless nahin hota...
जवाब देंहटाएंright
जवाब देंहटाएं"बाणभट्ट की आत्मकथा" के कालजयी होने का एक कारण यह भी है कि उसमें हर वाक्य सारगर्भित है। जिन खोजा तिन पाइया गहरे पानी पैठ...
जवाब देंहटाएंsansar me lagbhag 50 % muslim aabadi rahtee hogee, yadi unka kuran badal gya ho to stri ki haalat bhi badal gayi hogi,unke islaam me stri ko bhogya hi samjha gaya he, jaise car,Tv. motorcykle ityadi upyog karo or fenk do.|jahan ap rah ahe ho us smaaj me jara jhank kar dekhoge to pata chalega ki sirf 5% halaat me sudhaar hua hai,wo bhi isliye ki stri ne hi haalat se samjhauta kar liya hai.me to sudhar jab samjhunga jab har smaaj ka admi stri ko dekhte hi uske samman me apni aankhe jhuka le , yadi wasnatmak najro se uske shareer ka pastmartom hota rahega tab tak kuchh bhi sudhar nahi samjho |
जवाब देंहटाएंइन्साफ मिलने की इन्तजार करते करते कितनी महिलायों की हो जाती है मौत :-
जवाब देंहटाएं**********************
एक यासा ही वाक्य मुझे याद आ रहा है ,एसा ही वाक्य एक 14 साल की किशिरी के साथ हुआ, उसके साथ गैंगरेप हुआ था,जिसके दुखी पिता की गुहारों पर न तो महिला आयोग ने सुध ली, न ही मानवाधिकार आयोग ने | पुलिस से उन्हें कोई उम्मीद ही नहीं थी | 19 जून को दोपहर हाथरस उ. प. घर के सामने से अगुआ किया था , 31 सितम्बर को यह लड़की मुजफ्फर नगर के जंगलों में मिली,जिसकी आँखों व मुह पर तेजाब डालकर पहचान मिटाने की कोशिश की गयी थी |लड़की सिर्फ अपने पिता का नाम ही बता पाई थी ,हॉस्पिटल में भारती के दौरान ब्यान दिया था की इन दिनों में 40 साल का तरमीम, रूडकी में अपनी माँ के सहयोग से ,अपने तीन अन्य साथियों के साथ जो 40 से 50 साल की उम्र के हैं , हर रोज मेरे साथ बलात्कार करते रहे | तरमीम और उसकी माँ को तो जेल भेज दिया, लेकिन बाकी तीन आदमियों को पुलिस ने पकड़ने की कोशिश ही नहीं की | इस दौरान लड़की के पिता ने राष्ट्रीय महिला आयोग, मानवाधिकार आयोग, उ. प. के मुख्यमंत्री और D.G.P. को पात्र लिखे,लेकिन किसी ने भी कार्यवाही करना तो दूर, जबाब भी नहीं दिया | लड़की के पिता ने अपनी लड़की का जीवन बचने के लिए अपना खून भी दिया, लेकिन 70 दिन तक मौत से लड़ने के बाद अंततः शनिवार 10 -11 -2012 को मौत के आगे हार गयी |
ek bahut achhi kriti banbhatt ki aatmkatha ka jikar kiya hai aapne.nari man k bare me vishnu prabhakarg ne v apni bahucharchit kriti ardhnariswar me inhi sandarbho ko manobaigyanik shaili me likha hai.aasa hai aap ardhnariswar v padi hongi.........................
जवाब देंहटाएंस्त्रियों की स्थिति के प्रति ऐसे निर्णय सुनाने या निर्णय पर पहुँचने से पहले हजारी प्रसाद द्विवेदी जी का 'बाणभट्ट की आत्मकथा' का सूत्र वाक्य सदैव स्मरण रखना चाहिए कि “स्त्री के दुःख इतने गंभीर होते हैं कि उसके शब्द उसका दशमांश भी नहीं बता सकते। सहानुभूति के द्वारा ही उस मर्म-वेदना का किंचित आभास पाया जा सकता है।”... ... ... अत्यंत मार्मिक विषय छेड़ा है आपने DrKavita Vachaknavee जी । दरअसल स्त्री कई स्तरों पर दुख झेलती है । समाज में जन्म से ही दोयम दर्जे पर रखे जाने का विरलतम दुख , किशोरावस्था से लेकर युवावस्था तक कदम कदम पर घटित होने वाली लोलुप यौन छेड़छाड़ के अव्यक्त दुख , विवाह के नाम पर अपनी जड़ों से कट जाने का अकथनीय दुख , पराए घर में जा कर वहाँ भी मिलने वाली शारीरिक अथवा मानसिक प्रताड़नाओं के नित नवीन दुख । इन सबसे अलग कामकाजी महिलाओं के किसिम किसिम के अपने दुख । ... वस्तुतः हम सब पुरुष (और बहुत सी स्त्रियाँ भी) स्त्री के असंख्य दुखों मे इजाफा करने में किसी न किसी प्रकार के गुनहगार हैं । ... इसीलिए यह एक शाश्वत सत्य है कि स्त्री के दुख इतने गंभीर होते हैं कि उसके शब्द उसमें निहित दर्द का दसवां हिस्सा भी व्यक्त नहीं कर सकते । ... दूर कहाँ जाऊँ जब स्वयं मेरी पत्नी किसी बात पर दुखी होकर आँसू बहाती हैं, तब मेरे पुछने पर भी मुझे उनसे कोई सीधा जवाब नहीं मिलता और फिर मेरे पास अपने भीतर झांक कर उस अनुत्तरित उत्तर को खोजने अथवा आत्मालोचन के सिवा और कोई चारा शेष नहीं रहता है। वास्तव में नारी मन की ही व्यथा अपरंपार है ।
जवाब देंहटाएंआपने शब्दों का इतना ताना बना बना दिया है की बार-बार पढ़ने के बाद भी समझ में नहीं आ रहा है की आप आखीर कहना क्या चाह रहे हो... ? या शायद में समझ नहीं पा रहा हु...
जवाब देंहटाएंआप कह रहे हो की स्त्रियों की दशा आज भी वही है जो सदियों से चली आ रही है, अपने शब्दों को वजनदार बनाने के लिए..'बाणभट्ट की आत्मकथा' का काफी सटीक उदहारण आपने पेश भी किया है....आपका कहना है की लोगो की केवल मानसिकता बदली है... हा ये में जरुर मान सकता हु की समाज में दिखावा जरुर बड़ा है. लेकिन ये बात की समय-स्थिति और स्त्री की दशा में कुछ भी बदलाव नहीं हुए आसानी से नहीं उतरती....
बहुत जरूरी बात रखी आपने ...आपके इस भाव पक्ष कों प्रणाम ...विचारणीय यह है कि स्त्री के अतिदुखद संक्रमण काल की समाप्ति की ''घोषणा'' का उद्गोष करने की ऐसी त्वरा पुरुषों में न होगी जैसी स्वयम स्त्रियों में पाई जाती है ..एक वाकया स्मरण हो आया हाल ही का -एक कविता पाठ में 'हम हैं संक्रमण काल की स्त्रियाँ'' कविता पर प्रशंसात्मक टीप करते हुए साथी कवियित्री जी बोलीं कि यद्यपि आज की स्त्री संक्रमण काल से बहुत आगे जा चुकी हैं तब भी कविता अच्छी है , मन हुआ कि पूछ ही लूँ क्या उस स्त्री का संक्रमण काल खत्म हुआ जो उस पुरुष की पहली पत्नी है जिस से आपने दूसरा विवाह कर डाला है और वह जो बेरोजगार उपेक्षित गाँव में उम्र काट रही है ..मुद्दा ये है कि साहित्यकार होने का दावा करती हमारी सहयात्री भी तथ्यों के प्रति निरी असम्वेदनशील है
जवाब देंहटाएंशिवचरण डागर ने आंकड़ों का जो दशांश दिया है यहाँ उसके बाद भी ''बदल चुके'' समय की दुहाई कोरी क्रूरता है दी ..गांव कसबे तो छोड़ ही दीजिए गत वर्ष के राजधानी में स्त्री के प्रति हुए अपराधों का रिकोर्ड देखिये पचास हजार के आस पास केस है ..सावन के अन्धों कों हरियर ही सूझता है क्या किया जाए ..
जवाब देंहटाएंकुछ समय बदल गया है !
जवाब देंहटाएंआपके विचारों से सहमत हूं.तथाकथित नारी प्रगति का ढोल पीट्ने वालों के लिये यह एक चुनौती है,क्या वे इसका जवाब देंगे?
जवाब देंहटाएंSamaj ki soch me badlaw jaroor aaya hai aur aa raha hai.Gati dhimi hai par pariwartan ho raha hai.Lakshan SUBH hai.
जवाब देंहटाएंअतिरिक्त शोक का कारण यह विडंबना है कि वर्तमान में -- जैसा कि आपने कहा है -- उपयोग व उपभोग की वस्तु बनना स्त्री की स्वेच्छा में परिवर्तित कर दिया गया है।
जवाब देंहटाएंशिवचरण जी,
जवाब देंहटाएंसमय,समाज और मनुष्य की समझ न रखने वाले और आंकड़ों तक को न समझ पाने वालों की बात जाने भी दें तो रोज अखबार ही बता देंगे कि आसपास कितना व क्या घट रहा है।
सही कहा है आपने वंदना शर्मा ... लोग ऐसे उदाहरण और प्रमाण एकत्रित कर व फिर उन्हें दिखा कर घोषणा करना चाहते/चाहती हैं कि समय बदल गया। वस्तुतः आधुनिक नारी समाजों की स्त्री के इस व्यवहार को मैं उसी श्रेणी में रखती हूँ जिसे द्विवेदी जी 'इतने गंभीर..." कहते हैं। यह उस गंभीरता पर आवरण चढ़ाने और चढ़े हुए आवरण को न हटा पाने की असहानुभूतिजन्य मानसिकता का ही फल है। प्रभा खेतान जी की 'अन्या से अनन्या' पढ़ने के बाद मेरे मन में सबसे पहला व आज तक यही प्रश्न आया कि उस स्त्री के दु:ख का क्या जिसका पति दो दो स्त्रियों से घात /प्रयोग कर रहा है। एक ही कालावधि / समय अन्या से अनन्या बनी स्त्री के लिए बदल गया होगा पर उसी कालावधि में जी रही उस स्त्री का क्या जो अन्या न थी, अपनी थी और कभी अनन्या भी न बनी और त्यक्ता रही जीवन-भर। मेरी नजर में वस्तुतः अनन्या वह है जो जीवन भर एक स्त्रीविमर्श की पैरोकार के सामने पत्नी का आडंबर निभा ले गई।
जवाब देंहटाएंस्त्री की स्थिति आज भी सुधरी नहीं है .. सब कहने की बातें हैं .. जो स्त्री अपने लिए एक स्थान बनाने में लगी ही उसे बहुत ही कठिन संघर्षों से गुजरना पड़ता है .. बढ़िया आलेख आपका !!
जवाब देंहटाएंस्त्री के लिये सनय और समाज में सब कुछ वदला है पर यह वदलाव अधिकांशें में प्रतिगामी होकर सर के वल खड़ा दिखाई देता है, और जो नहीं वदल सका है वह है श्री हजारी प्रसाद द्विवेदी का स्त्री के मूल्यांकन का सूत्र वाक्य ।
जवाब देंहटाएंभारतीय वाडंमय में समाज के विकास के इतिहास में स्त्री परिवार की मुखिया और सर्वेसर्वा की प्रतिष्ठा से खिसकती हुई उत्तर वैदिक काल में सीता की तरह आजन्म परित्यक्ता कन्या ,अपह्रता स्त्री, और अंन्तत: पति द्वारा परित्यक्ता होकर जमीन में समाजाने तक प्रतिगामी विकास पथ पर रही है और उसका दु: ख भी उसी अनुपात में गहराता चला गया है ।
जवाब देंहटाएंदिनांक 23/12/2012 को आपकी यह बेहतरीन पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपकी प्रतिक्रिया का स्वागत है .
धन्यवाद!
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जवाब देंहटाएंवाकई समम बदला है लेकिन स्त्री के लिए समाज नहीं बदला...
जवाब देंहटाएंवाकई समम बदला है लेकिन स्त्री के लिए समाज नहीं बदला...
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