क्रिसमस, पुनर्पाठ `चरित्रहीन' और 'बर्फ की चट्टानें' : कविता वाचक्नवी
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शरतचंद्र को पढ़ना हर बार अपने को अपनी संवेदना को पुनर्नवा बनाने के कार्य में नियुक्त करने जैसा होता है।
'चरित्रहीन' सबसे पहली बार वर्ष 1976 में पढ़ा था; जब मेरी हिन्दी अध्यापिका 'तारा' ने पुस्तकों के प्रति मेरे अतिरिक्त अनुराग के चलते हमारे हायरसेकेंडरी स्कूल की भरपूर समृद्ध लायब्ररी में मुझे आधिकारिक रूप से विशिष्ट दायित्व की अनुमति (मेरे लिए वह अधिकार था) दिला दी थी।
मैं अपने साथ घर में इस उपन्यास को लेकर आई तो बुआ ने नाम देखकर परिवार के बड़े लोगों से मेरी शिकायत की कि 'चरित्रहीन' जैसे गंदेनामों के 'घटिया नॉवेल' (?) पढ़ने लगी है (पर संयुक्त परिवार की सारी लानत- मलानत, विरोध, प्रतिबंध के बावजूद छिप-छिपा कर यह उपन्यास दो दिन में पूरा पढ़ डाला था) ....... उन्हें नहीं पता था कि मैं विश्व के महान लेखक शरतचन्द्र के शब्दों का पारायण कर रही हूँ.... जिसका जादू एक बार सिर चढ़ जाए तो व्यक्ति बौरा जाता (हिप्नोटाईज़) है। शरतचंद्र ने 'चरित्रहीन' से मुझे पहले पहल जो हिप्नोटाईज़ किया तो आज तक "पुनर्मूषको भव" संभव ही नहीं हो पाया और मूर्च्छा बनी चली आ रही है।
नशा तारी करने के लिए पुनर्पाठ हेतु इस बार फिर इसे खोजकर कहीं से ले आई हूँ और साथ ही दो और पुस्तकों का प्रबंध किया है।
क्रिसमस और हिमपात के आयोजनों के बीच इनका साथ अक्षय ऊर्जा का स्रोत बनेगा, भले ही 'बर्फ की चट्टानें' भी साथ रख ली हैं।
शरतचन्द्र को पढ़ना एक अनुभव रहा है।
जवाब देंहटाएंआपने वाकई सटीक बात कही है, आपकी अध्ययनशीलता को सलाम
जवाब देंहटाएंकविता जी का कार्य, जिसे वे तृण तुल्य बताती हैं, हिमिगिरि सा विशाल है, सत्यम् शिवम् सुन्दरम् का समन्वय है। आपके सतत योगदान की शुभकामना ।
जवाब देंहटाएं..... ओम विकास
ओम जी,
हटाएंयह वस्तुतः आपका बड़प्पन व सदाशयता ही है जो जो आप मेरी पीठ थपथपा कर मुझे बालसुलभ हर्षातिरेक से भर देते हैं। अन्यथा आप भी भी जानते हैं कि वास्तव में इसका मूल्य तृणतुल्य ही है।
स्नेह बना रहे ....