गुरुवार, 6 दिसंबर 2012

मानव तुम सबसे सुंदरतम....

जीवन और मानवमन का रूप सौंदर्य  :  कविता वाचक्नवी

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बहुधा हमारे समाज के लोग टीवी आदि पर आने वाले बिग ब्रदर या बिग बॉस सरीखे कार्यक्रमों को आड़े हाथों लेते हुए इन कार्यक्रमों की लानत-मलानत किया करते हैं।


भारत में बिताए समय में या उसके बाद भी जब कभी मैंने इस प्रकार के कार्यक्रमों को देखा... मुझे तब-तब व्यक्ति के भीतर बसे व्यक्ति और समाज के भीतर बसे मानवमन के दर्शन हुए।


आडंबरहीन साधारण मानवमन के सुख दु:ख, करुणा, क्रोध, ईर्ष्या-द्वेष, प्रेम-अनुराग, आक्षेप, अपेक्षा, रुदन, पीड़ा, व्यथाएँ, अकेलापन, संबंध, मेलजोल, सुरक्षा, कामना, कल्पना, भ्रम, उत्साह, भांति-भांति के मनोभाव और विचार, उल्लास, स्वप्न, आशाएँ, दुराशाएँ और आवेश आदि में लोक-चित्त व व्यवहार के विविध रूपों का सौंदर्य उभर-उभर कर मोहता रहा है। 


 मानवहृदय व व्यवहार के ये विविध मनोहारी रूप कहानी या उपन्यास लिखते समय रचे गए पात्रों की मानिंद लेखक के नियन्त्रण से स्वतंत्र हो कथा की दिशा बदल कर अपने साथ व अपने अनुकूल कर लेने वाले कथापात्रों की भाँति मुझे अपने जीवन की गति-मति से रिझाने-लुभाने वाले पात्र लगा करते हैं। और उनके सभी तरह के व्यवहार व मनोभावों का ऐसा सौंदर्य देखना मुझे मानव मन के और-और समीप ले जाकर स्वयं पर मुग्ध करने को ललसाता रहता है। मानव स्वभाव, जीवन और मनुष्य के प्रति और अनुराग जगाता है।





13 टिप्‍पणियां:

  1. वाह! मानव व्यवहार के इतने रूपों को कथा-पात्र समझ कर उन पर बहुत अच्छी अभिव्यक्ति दी है...इनमे जैसे जान सी डाल दी...

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  2. मानव मन का जितना विश्लेषण किया जाया कम है। हर बार विश्लेषण में एसे भेद उजागर होते हैँ। जो कल्पना ये परे होते हैं।

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  3. मानव मन का जितना विश्लेषण किया जाया कम है। हर बार विश्लेषण में एसे भेद उजागर होते हैँ। जो कल्पना ये परे होते हैं।

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  4. बिग बॉस आधे-अधूरे तीन-चार एपीसोड ही देख सका हूँ अभी तक। किसी तटस्थ अध्येता या मानव विज्ञान के छात्र को तो इस कार्यक्रम में बहुत कुछ मिल सकता है किंतु जब स्वयं को बिग-बॉस के सदस्यों बीच रखकर विश्लेषण करने की बारी आती है तो निराशा ही होती है।

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  5. देह के भीतर बैठे मानव-मन के संस्कार जगाना साहित्य और कलाओं का उद्देश्य रहा है -पर आज वास्तविकता नाम पर जो कुछ परोसा जाता है उसमें विकृतियाँ ही अधिक उद्घाटन और गलत संदेश जाने की संभावना अधिक होती है.

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    1. प्रतिभा जी, समाज पर मीडिया का प्रभाव अलग मुद्दा है, उस संदर्भ में आपकी बात सही होगी। किन्तु मैंने तो मात्र किसी मनुष्य को उसके अपने सुख दु:ख, आक्रोश व विविध मनोभावों के साथ संचालित होते देखने की बात कही है। मानो हमारे गुड्डे गुड़िया अपने संसार में अपने जीवन से व मानवीय चित्त की सारी कमियों और विशेषताओं के साथ किसी गुड़ियाघर में हमारे रचाए नाटक को जीवन मान स्वतः संचालित होने लगें।

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    2. सहमत हूँ ,साहित्य की मनोहारिता ऐसे निर्बंध चित्रण में सबसे अधिक प्रतिफलित होती है.

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  6. You through your blogs, poem and write-up ferreted to be spunky Writer, unruffled by any circumstances and write-up of concepts to realty by keeping an eagle eye on the happenings. With a renewed focus, the topics carry the subjective task with curious topics and the arguments for that. As written already for one of your write-ups/blogs, your efforts and compilation for such arduous task is commendable, fortified with ruminative phase and in the near future, destined to reach great heights in your contribution to the Society!

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  7. मानव मन का अति सूक्ष्म वर्णन कर पाना शायद आसन नहीं होता पर अपने जिस प्रकार से उसे समझा है उसे अंकित किया है .सराहनीय है .

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