सोमवार, 15 अगस्त 2011

ब्रिटेन में बवाल की गुत्थियाँ : कविता वाचक्नवी

ब्रिटेन में बवाल की गुत्थियाँ
  - कविता वाचक्नवी


गत दिनों ब्रिटेन में घटी लूटपाट और  दंगाफसाद की घटनाओं ने सारे विश्व का ध्यान इस ओर खींचा। लंदन में रहने वाले अपनों की चिंता में उनके आत्मीयों ने संपर्क कर हाल चाल जाने और इस सारे बवाल की जड़ और कारणों की भी पूछताछ की। लोगों ने इन्हें गंभीरता से जानना चाहा। उसी का परिणाम थे, इस अवधि में लिखे गए मेरे ये तीन लेख -

शहर आग की लपटों में - 1
शहर आग की लपटों में - 2 

उक्त लेखमाला के समापन के पश्चात् एक लंबा ईमेल अभिषेक अवतंस जी का आया जिसमें उन्होंने इस पूरे घटनाक्रम के कारणों को अपने तरीके से देखते हुए कुछ और जिज्ञासा की। वह ईमेल इस आलेख के नीचे यथावत् अंकित है। उन्हें लगता है कि मेरे उक्त लेखों में बताए गए कारणों के अतिरिक्त भी और कई छिपे हुए कारण हैं जिनकी अनदेखी की गई। और-और कारणों व उनके लिंक्स से जुड़े तथ्यों को प्रश्नांकित करता उनका ईमेल मुझे काफी सीमा तक अकारण संदेह में गोते खाते कुछ ढूँढ निकालने की कवायद-सा लगा। अब जरा उस पर विचार कर लिया जाए। 


सच है कि दंगे ( वस्तुतः ये दंगे नहीं लूटमार और शैतानी /`फ़न' के लिए किया कहा जा रहा है इन्हें ) क्यों हुए, उसके कारणों के तो विस्तृत कारण कई होंगे ही। क्यों कि प्रत्येक क्यों के पीछे क्यों लगाई जाए तो कई सारे क्यों के कारण निकलते हैं; जैसे `नई पीढ़ी निरंकुश है' ; तो `क्यों निरंकुश है' , कहा जाएगा कि `उन्हें कानून का डर नहीं'  है। तो `डर क्यों नहीं है' और `कानून क्यों ऐसा है' के प्रश्न उठेंगे। इसके पीछे शायद 50 से अधिक मुद्दे होंगे, कि कानून इसलिए ऐसा है कि ... (5-6 सामाजिक और सैद्धान्तिक कारण तो अभी ही मुझे सूझ रहे हैं) और `बच्चे ऐसे क्यों हैं' के 30 से अधिक कारण समझ पड़ रहे हैं, गिनाए जा सकते हैं। फिर बच्चों के आयु वर्ग, उनके भाषा वर्ग, उनके आर्थिक और भौगोलिक वर्ग और उन सब की संस्कृतियों और पारिवारिक सामाजिक बुनावट, उनकी समस्याएँ, नए समाज में विलय, दूरियाँ, इन दूरियों के कारक, ... और पता नहीं क्या क्या .... 


दूसरी बात, यह स्पष्ट करना अनिवार्य है कि मैं राष्ट्रभक्त व्यक्ति हूँ और भारत व भारतीयता से प्रेम करती हूँ। बात इतने पर ही समाप्त नहीं होती। इसके साथ ही मैं उस प्रत्येक राष्ट्र का उतना ही सम्मान करती हूँ जो राष्ट्र अपने राष्ट्र को वरीयता देता है, प्रेम करता है। दूसरे के देश में घुस कर, रह कर और गद्दारी कर के नहीं बल्कि स्वाभिमान के रूप में। 


भारत का यह दुर्भाग्य है कि `देश' किसी के एजेंडे में नहीं होता। देश-देश नाम रट कर, उस की बात तो बहुत से लोग करते हैं किन्तु जब कुछ करने की बारी आए तो अंततः 95 % से अधिक लोग केवल स्वार्थ और किसी अन्य/छद्म/गोपन उद्देश्य में संलिप्त हैं। अमेरिका के वर्चस्व को गाली देते हैं क्योंकि उसकी चीन से प्रतिद्वंद्विता है। चीन को उठाने के लिए भारत का एक बड़ा वर्ग अमेरिका को धिक्कारता आया है। भला कोई पूछे कि अमेरिका क्या भारत का शत्रु देश है ? जबकि चीन है, उसने आक्रमण कर के इसे घोषित भी किया और आज तक भारत पर गिद्ध दृष्टि जमाए है। इस कारण व ऐसे ही कुछ तथ्यों के कारण,  कोई मुझे पूछे तो, मैं अमेरिका का पक्ष लूँगी। 


संसार में मानवतावाद का नाम लेकर छद्म राजनीति करने वालों की भरमार है। और ये सब के सब लोग वही हैं जिन्हें मात्र दूसरों का कुछ न कुछ हड़पने की लालसा अधिक है। हमारा अधिकांश बुद्धिजीवी वर्ग बिकाऊ है , बिका हुआ है या मानसिक दिवालियापन का शिकार है; और ऊपर से विशेष बात यह कि उसे देश-वेश से कहीं कोई वास्ता नहीं। 


अब, ऐसे देश, जो देश भक्त हैं, शांत और उदार भी ( पाकिस्तान, चीन, अरब और अन्य मुस्लिम देशों की भांति कट्टर, अशांत, वर्चस्व की घातों में लिप्त और भारत के लिए खतरा नहीं ), ये यदि अपने यहाँ अतिक्रमण, नियम, गैरकानूनी कार्य/चीजें/अपराध... जैसी हजारों हजार चीजें अपने देश के हित में कम  अथवा प्रतिबंधित करना चाहते हैं और बाहर से आए हुए लोगों को समान अवसर भी देते हैं, छल कर के नियमित लाखों लोग जो छिप कर घुसते चले आ रहे हैं, उन पर भी पकड़े जाने पर नियमानुसार कार्यवाही करते हैं;  तो क्या बुरा करते हैं ? क्या भारत की तरह बांग्ला देश और अफगानिस्तान, नेपाल और जाने किस-किस स्थान और रास्ते से आने वालों को अपनी छाती पर बैठाकर दामाद की तरह झेलते हुए सब कुछ बर्बाद होने दें ? आपको अनुमान भी न होगा कि कड़े नियमों के बावजूद कितने प्रकार की धोखेबाज़ी से किन-किन देशों के लाखों लोग यहाँ कैसे छिप कर भितरघात कर रहे हैं। लंदन में ही जैसे अलग-अलग स्थान मिनी.... और मिनी .... बन चुके हैं, कहे जाते हैं । इन देशों से आए लोगों का 70 प्रतिशत आपराधिक तरीके से घुसा हुआ है और आपराधिक गतिविधियों में या लुके छिपे किए जाने वाले कामों में लगा है।


हर देश की पुलिस, संविधान और व्यवस्था का सम्मान किया जाना चाहिए, हम भारतीय तो अपने यहाँ किसी का करते नहीं, व्यवस्था और कानून तो वहाँ क्या ही कहने, जनता में आत्मानुशासन का पूरी तरह अभाव है, ऐसे में दूसरे देशों की न्यायव्यवस्था, उसकी समस्याएँ, (विकसित देश होने के कारण निरंतर होती उन लोगों की घुसपैठ, जो किसी नियम कानून, अनुशासन, व्यवस्था, ईमानदारी जैसे चीज में दीक्षित ही नहीं होते, से उपजे समाज सांस्कृतिक, आर्थिक आदि संकट ) का अनुमान भी नहीं लगा सकते। हमें तो किसी देश की व्यवस्था और ईमानदारी की प्रशंसा ऐसे लगती है जैसे भारत को किसी ने छोटा दिखा दिया। जबकि होना यह चाहिए कि हमें भी अपने देश में वैसी व्यवस्था और कड़ाई बरतनी चाहिए, अतिक्रमण रोक कर राष्ट्र हित को सर्वोपरि रखना चाहिए। हम नहीं रखते क्योंकि ........ ( इस क्योंकि के कई कारण हैं। उनकी मीमांसा में नहीं जाना चाहती) और कोई दूसरा अपनी व्यवस्था और नियम के चलते संविधान के पालन में जुटा हो और कुछ कार्यवाही कर रहा हो तो उस पर अपनी आदत के चलते आपत्ति करते हैं। जो लोग जिस देश में रहते हैं, उस देश के नियम का यदि पालन नहीं कर सकते तो वे सब द्रोही हैं। मुझे इस देश की व्यवस्था पर बहुधा भरोसा है। यहाँ तय है कि तब तक किसी को कुछ नहीं हो सकता जब तक वह कोई गैर-कानूनी काम नहीं कर रहा। भारत के परिप्रेक्ष्य में इसे समझाना-समझना अत्यंत कठिन है। लगता है हमारे पास इसका कॉन्सेप्ट ही नहीं है। 


अभिषेक जी ने अश्वेत जनता के नाखुश होने की बात लिखी है; तो केवल वही वर्ग नहीं अपितु और भी बहुत से लोग / वर्ग भी नाखुश हैं, होंगे, होते हैं। ऐसा हर व्यक्ति उस स्थान पर नाखुश मिल जाएगा जो स्वयं खुशी में भागीदारी नहीं कर रहा होता। मेरे घर में प्रत्येक वह व्यक्ति नाखुश हो सकता है जो अपने दायित्व ठीक से नहीं निभाएगा। वह भले बाहर से आया हुआ व्यक्ति हो या स्वयं घर का ही। साथ ही प्रत्येक वह सदस्य भी नाखुश होगा जो घर में बिना दायित्व किए अधिकार पाने वालों से कुछ कर्तव्य की आशा करता है या गृहस्वामी से ऐसा नियम लागू करवाने की। 


अभिषेक जी ने दंगों को गरीबी की बेल्ट से जोड़ कर देखना चाहा है।  कोई अन्य इसे ऐसे भी क्यों नहीं देख पाता कि किसी वर्ग-विशेष की बहुलता वाले क्षेत्र (बेल्ट ) से ही ऐसा क्यों होता है? गरीबी है तो उसका कोई एक कारण होता है क्या ? यहाँ तो गरीब होकर लोग कितना कुछ बिना मेहनत किए आराम से पाते हुए मौज कर सकते हैं। बहुत बड़ा वर्ग निष्क्रिय हो कर इसी लिए अपना कोई योगदान नहीं देता। देश के नागरिक ऐसी कथित गरीबों के पालन का बोझ उठाते उठाते बेहाल हो चुके हैं। इसका ही प्रतिफल है कि देश आर्थिक खोखला हो रहा है और पूर्ति के लिए जो मार्ग अपनाए जा रहे हैं वे और भी संत्रस्त करने वाले हैं। और हाँ, गरीबी वस्तुत: इस संदर्भ में एक सापेक्ष अवधारण है। भारत में गरीबी की अवधारणा से भिन्न। यह गरीबी यूके के सामान्य स्तर ( जो भारत का उच्च मध्यवर्ग है ) से कम होने मात्र को परिभाषित करती है। 


रही प्रधानमंत्री की बात, तो जब वे कह रहे हैं कि दंगों के कारक और क्यों का उत्तर इतना सरल नहीं है तो वास्तव में नहीं है। लेकिन अ-सरल होने के उन कारकों को ; जिनकी ओर उनका संकेत है, आप इतनी सरलता से ताड़ नहीं सकते जितनी सरलता से इन्हें कुछ चीजों से जुड़ता (ईमेल में ) लग रहा है । अभिषेक जी तो उलटे इसे अत्यंत सरल सिद्ध कर रहे हैं। जबकि क्यों का उत्तर और अ-सरल होने की बात का जो मंतव्य है, वह अधिकांशतः देश में ऊपर लिखी स्थितियों से जुड़े मुद्दे, परिणाम आदि के साथ साथ, तीनों लेखों में रेखांकित उदारवादी नीतियों के चलते पनपी निरंकुशता और नई पीढ़ी में इस निरंकुशता का आधिक्य आदि है। फिर इस निरंकुशता के भी कई कारण हैं। संवैधानिक स्थिति का तो मैंने लिखा ही है कि अपराध करके दंड का भय न होना बड़ा कारण है। आधुनिक समाजों में टूटते परिवार भी बड़ा कारण हैं। संस्कार हीनता का दौर भी कारण है। बिना श्रम किए सरकारी सुविधाओं पर मौज मस्ती करने वालों को देख कर समाज के अन्य अंगों में निरुत्साह की प्रवृत्ति और विद्वेष, ड्रग्स के धंधो का बढ़ता बाजार और लत, इन लोगों द्वारा लूटपाट और ड्रग्स के धंधे के लिए बनाए गए गैंग और उनकी गतिविधियाँ,  और  मूल्यों का निरंतर छीजना। ये चीजें हैं जिनके चलते प्रधानमंत्री का कथन सही ही है । मुझे Portage, Indiana से एक  युवती मैत्रेयी ने लिखा - "मुझे डेविड कैमेरून का वक्तव्य और पार्लियामेंट में लम्बे डिबेट भी बहुत आश्चर्य जनक लगे. क्योंकि मूल्यों के बारे में, और बच्चों को पालने में  माता पिता के ज़िम्मेदारी के बारे में देश के नेता बात करें, आज के दिनों में यह इतना दुर्लभ है. नैतिक मूल्यों के बारे में चर्चा आखिरी बार कब हुआ था याद नहीं हैं. पुराने फैशन की, गाँधी जी- नेहरु जी के दिनों कि बात लगती है अगर कोई देश का नेता इनका ज़िक्र करे." 


इसलिए,  देश की बुनावट और बनावट को समझने के लिए अश्वेतों की गरीबी, नाराजगी जैसे तथ्य केवल ऊपरी बातें हैं। मुझे नहीं पता कि भारत का मीडिया क्या दिखा रहा है, और हिन्दी चैनल... बाप रे बाप ! सारा का सारा दृश्य श्रव्य मीडिया लगभग बिका हुआ है और ऊपरी बातें करके `टाईमपास' करने, बेवकूफ बनाने और अपने स्वामियों के मत में मत देने को बाधित है। 




अभी पूरा ब्रिटेन का नागरिक समाज और  देश एकजुट हो कर एक-एक की धरपकड़ में सहयोग के लिए जुटा हुआ है। छोटी-से-छोटी भागीदारी या मूक दर्शक की तरह वहाँ उपस्थित होने जितनी भागीदारी वाले को भी बख्शा नहीं जा रहा। यहाँ तक की 2 टीशर्ट चुराने वाला एक अध्यापक तक सदा के लिए क्रिमिनल रेकॉर्ड वालों में सम्मिलित हो गया है। फेस रिकग्नीश्न विधि से, सी सी टीवी फुटेज, वीडियोज़, फिंगर प्रिंट्स, मीडिया के चित्र, गए सामान की बरामदगी द्वारा उसके टैग का कंप्यूटर न. निकाल उठाईगीरों तक पहुँच  - जैसी विधियों के चलते बख्शा तो कोई नहीं जा रहा। वैसे भी यहाँ एक-एक व्यक्ति का रेकॉर्ड होता है, उसका अपना एक आयडेंटिटी रेकॉर्ड, उसका क्रेडेट रेकॉर्ड, NHS और पुलिस के पास रेकॉर्ड, जैसे बीसियों कम्प्यूटरीकृत सिस्टम में उपलब्ध जुड़े हुए प्रत्येक विवरण। इसलिए धरपकड़ कोई बहुत कठिन चीज नहीं है।

कमी है तो बस एक चीज की कि उदारता, कानून का कड़ा न होना, मुक्त समाज-व्यवस्था, सामाजिक पारिवारिक टूटन के चलते नई पीढ़ी के साथ जुड़ी विसंगतियाँ, आर्थिक व संसाधनात्मक लाभ लेने वालों की भरमार, ऊपर से उनके हित में बने कानून के चलते सरकार के बंधे हाथ, उस से सरकार व उन वर्गों के प्रति उपजता विद्रोह .... आदि जैसे कारण। इनके चलते स्थाई समाधान देने में सफल होंगे भी या नहीं, कब होंगे, कैसे होंगे जैसे अनिश्चित संभाव्यों वाले समाधान की विवशता !!


इस सब के बावजूद आम नागरिक का जीवन बेहद शांत, देश का वातवरण तनाव, भय व चिंता से अधिकांशतः मुक्त ही है। जो हुआ है वह शैतानियों के चलते हुआ है। अन्यथा सामान्य जनजीवन बहुधा निरापद है। इस घटनाक्रम के बाद एकजुट होकर सहयोग करते लोगों का अवदान और दाय अनुकरणीय व अनुपम है। यही वह तत्व है जो बड़े से बड़े कुचक्र को भी परास्त करने की शक्ति रखता है। 


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From: Abhishek Avtans (abhiavtans@gmail.com)
To: Dr.Kavita Vachaknavee(.....................com)
Sent: Friday, 12 August 2011, 23:06
Subject: (3) " शहर आग की लपटों में" - 3


कविता जी
नमस्कार

लंदन के दंगों से जुड़े आपके तीनों आलेखों को हिन्दी विमर्श के माध्यम से पढ़ने का मौका मिला। सचमुच लंदन के दंगे निन्दनीय हैं। लूटपाट और हिंसा को कभी भी सही नहीं ठहराया जा सकता है परन्तु पूरे प्रकरण को आपराधिक अवसरवादिता करार देने से मुझे इनकार है। लंदन के दंगों से जुड़े कुछ और पहलू पेश है:

१. अप्रैल 2011 में अश्वेत रैप गायक स्माइली कल्चर की पुलिस के हाथों मौत के बाद 2000 से अधिक अश्वेत लोगों की हिस्सेदारी में एक बहुत बड़ा अहिंसक और शांतिपूर्ण प्रदर्शन स्कॉटलैंड यार्ड में आयोजित किया गया था पर जिसे शायद ही किसी ने गंभीरता से लिया था। यहाँ देखें खबर

२. दक्षिणी लंदन की अश्वेत जनता IPCC पर भरोसा नहीं करती और पुलिस के स्टॉप एण्ड सर्च कार्यक्रमों से नाखुश है। यहा देखें राय

२. टॉटनहम जहाँ दंगों की शुरूवात हुई थी, वहाँ बाल गरीबी के आँकड़े पूरे लंदन में चौथे स्थान पर हैं और वयस्क बेरोजगारी राष्ट्रीय औसत से दोगुनी है। देखें यहाँ रिपोर्ट

३. OECD के अनुसार यू.के. में सामाजिक गतिशीलता अन्य समृद्ध विकसित देशों के मुकाबले कम है यानी गरीब घरों के बच्चे आमतौर पर अंतत: गरीब ही रह जाते हैं। देखें यहाँ रिपोर्ट 

४. उपभोक्तावादी संस्कृति के प्रभाव से लूट्पाट का मुख्य निशाना मुख्य रूप से बड़े स्टोर थे और लूटपाट को अंजाम देने वालों वयस्कों और किशोरों का सारा ध्यान महंगे फैशनेबल कपड़ों, जूतों, स्मार्टफोन, लैपटॉप, फ्लैटस्क्रीन टी.वी. आदि पर था। उनके लूटपाट का मकसद पेट भरना न हो कर हर कीमत पर ब्रांडेड उपभोक्ता उत्पादों को हासिल कर उच्चतर प्रतिष्ठा प्राप्त करना था। देखें यह खबर

५. भविष्य के प्रति निराशावादिता और अपने हमउम्रों के सामने इज्जत पाने की होड़ में कई युवा दंगों में शामिल हुए। देखे खबर
कुल मिलाकर कहा जाए तो लंदन में दंगे क्यूँ हुए इसका जवाब इतना सरल नहीं है जैसा कि प्रधानमंत्री डेविड केमरोन कह रहें हैं।


सादर
अभिषेक अवतंस

5 टिप्‍पणियां:

  1. कविता जी , आप के सुलझे विचारों से प्रखर हुआ यह आलेख तथा सारी
    कडीयाँ पढ़ रही हूँ और आपके कहे विचारों से १०० % सहमत हूँ -
    - लावण्या

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  2. ब्लॉग पृष्ठ का वर्तमान रंग संयोजन ऑखों में ग्लेयर पैदा करता है तथा थकान बढ़ाता है. स्पीड रीडिंग तो खैर असंभव ही है. अतः कृपया किताब की तरह सफेद पन्नों में काला अक्षर कर दें तो बेहतर रहेगा.

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  3. अभिषेक जी का पत्र सूचनाओं से भरा है. उस मे तथ्यों को एक अलग पहलू से देखने की कोशिश है. आप के विचार भी महत्वपूर्ण हैं...और देश की जो अवधारणा वाँछित है, ज़ाहिर है, भारत मे आप नही खोज सकते.सच पूछिए तो पूरे इतिहास मे कभी भी देश की वह परिकल्पना ही हमारे यहाँ कभी विकसित नही हो सकी. आज़ादी की लड़ाई मे कुछ सार्थक प्रयास हुए, लेकिन आज़ादी मिलते ही हम ने उसे एक गैर ज़रूरी और अंनप्रोडक्टिव वस्तु मान कर गटर मे फैंक दिया.... फलतः, भारत आज भी एक बनता हुआ देश है, जिस के बनने मे हम ही लोग अवाँछित बाधा डाल रहे हैं.... आप ने ठीक कहा है कि हम लोग यहाँ बैठ कर वहाँ की यथास्थिति को नही भाँप सकते. इसी लिए आप से जानना चाह रहे हैं. बेशक यह समझाना आप के लिए भी उतना आसान नही है , लेकिन इन तीन लेखों और अभिषेक जी के पत्र से चीज़ें मेरे सामने काफी स्पष्ट हुई हैं. मैं अभिषेक जी के एकाध लिंक ही देख पाया हूँ. लेकिन इस विमर्श के बाद इस उथल पुथल की पृष्ट्भूमि को कुछ कुछ स्मेल करने लगा हूँ.तमाम लिंक देख कर फिर से कुछ कहूँगा .

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