शनिवार, 21 मई 2011

हम न अब तक सीख पाए ज़िंदगी का ये शऊर : - कविता वाचक्नवी

हम न अब तक सीख पाए ज़िंदगी का ये शऊर......:      - (कविता वाचक्नवी)




अपनी एक पुरानी रचना आज कहीं पुराने पन्नों में दीख गई |  संभवतः ईस्वी सन् १९९९ में लिखी थी और  भारत में किसी शरदपूर्णिमा की रात को आयोजित एक कविसम्मेलन में पहली बार इसे पढ़ा था |

 सोचा,  आज यहाँ वागर्थ पर वही रचना सहेजी जाए |





दर्द को कहना धुआँ औ’ प्रेम को  कहना  कपूर
हम न अब तक सीख पाए ज़िंदगी का ये शऊर


चाहतों की प्यास को ना छाँह का भी आसरा
प्यार उनका ज़िंदगी की रेत में ऊँचा खजूर


लाख परदे तुम गिराओ या करो कितना दुराव
हाथ पर   सरसों उगी है आँख  देखेगी ज़रूर 


द्वेष, निंदा, क्रोध, स्पर्धा    आग पानी में भरें
पलक में चुभते कभी भी तोड़िए तिन का ग़ुरूर


पीर की उलझन में उनको उलझने का शौक है
बात सीधी और सादी  आपकी हरदम हुज़ूर 


घाव गहरे पीठ के पीछे लगे कुछ इस तरह
दर्द का होगा नशा भी और रोने का सुरूर








11 टिप्‍पणियां:

  1. @ cmp
    आप तो बड़े `समीक्षक' हो गए हैं, आधी पंक्ति में समीक्षा कर देते हैं.

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  2. बहुत सुन्दर और सार्थक है आपकी कविता, कविता जी !

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  3. हाँथ पर सरसों जमीं तो आँख देखेगी ज़रुर , क्या बात है कविता जी इसे कहते है सोंच और उस पर सुंदर अभिव्यक्ति , बधाई

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  4. आपने सही इशारा किया है कि सभ्यता की यात्रा में मनुष्यता कई ऐसे तथाकथित शिष्ट आचार विकसित किए हैं, जिन्हें अगर न सीखा जाए तो इंसान और दुनिया दोनों बेहतर हो सकते हैं.

    यहाँ प्रासंगिक नहीं है पर अचानक स्वर्गीय बृजपाल सिंह शौरमी की एक तेवरी का प्रथम तेवर याद आ रहा है -

    ''एक कटोरी दूध में डूबे हुए पहाड़ को
    आदमी ने चाँद कहकर झूठ की शुरूआत की!!''

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  5. @ रवीन्द्र जी, रचना पर आपकी प्रतिक्रिया देख अच्छा लगा. आभारी हूँ.

    @ सुनील जी, रचना आपको रुची, जानकार हर्ष हुआ. धन्यवाद स्वीकारें.

    @ प्रवीण पाण्डेय जी, पसंद करने और आगमन के लिए धन्यवाद.

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  6. @ ऋषभ जी, आपका रचना के मर्म तक यों पहुँच जाना बड़ा भला लगता है. कई बार लगता रहा है कि आप किसी भी रचना को बड़ी अर्थवत्ता प्रदान कर देते हैं.

    स्व. शौरमी को आपसे जितना जाना है, वे अछूते बिम्बों के माध्यम से अभाव की व्यथा के अद्भुत कवि थे. आप ने उन्हें जिन्दा रखा है, वरना संत्रासों में असमय युवा मारे गए उस रचनाकार की इस तिकड़मबाज हिन्दीजगत में क्या पूछ ! हर बार बस आह-सी निकलती है.

    आप अपने ब्लॉग पर शौरमी की रचनाओं का एक अलग विभाग बना कर हम सब की श्रद्धांजली का प्रावधान कर सकते हैं ?

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  7. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  8. अतुकांत की आपदा से ग्रस्त समकालीन हिन्दी काव्य में ऐसी रचनायें जीवनी शक्ति का संचार करती हैं। रचना के लिए हार्दिक बधाई

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