रविवार, 19 जून 2011

तुम्हारे वरद-हस्त

तुम्हारे वरद-हस्त 


(डॉ.)  कविता वाचक्नवी

(अपने संकलन "मैं चल तो दूँ" (२००५) से )





मेरे पिता !
एक दिन
झुलस गए थे तुम्हारे वरद-हस्त,
पिघल गई बोटी-बोटी उँगलियों की।

देखी थी छटपटाहट
सुने थे आर्त्तनाद,
फिर देखा चितकबरे फूलों का खिलना,
साथ-साथ
तुम्हें धधकते
किसी अनजान ज्वाल में
झुलसते
मुरझाते,

नहीं समझी
बुझे घावों में
झुलसता
तुम्हारा अन्तर्मन

आज लगा...
बुझी आग भी
सुलगती
सुलगती है
सुलगती रहती है।



4 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत गहन अभिव्यक्ति...वाकई बुझी आग भी सुलगती है.

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  2. अमेरिका में पिदर दिवस मनाया जा रहा है जो केवल एक दिन ही अपने पिता को याद करते हैं। हम तो हर दिन अपने माता-पिता का आशीर्वाद लेते हैं उन्हें याद करके। इस अवसर पर एक मार्मिक कविता के लिए बधाई॥

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