शुक्रवार, 18 दिसंबर 2009

रूप से स्निग्ध हुई प्रकृति और जीवन के एकाकार क्षण

रूप से  स्निग्ध हुई प्रकृति और जीवन के एकाकार क्षण


मैंने ५ अक्टूबर को जब भीतर बरसात न हो तो इनकी लिपटन सुहाती ही है   में लिखा था -



रात-भर बरखा हुई......
पर रात को तो लिखते हुए  मैं  देर तक जग ही रही थी, बिना आहट टिम टिम बुदकी-सी फुहार गिरी जान पड़ती है |


 इसी ठण्ड और बूँदाबांदी  में  जूते - जैकेट चढ़ा कर सुबह के नियमित भ्रमण  पर निकले | घर से सटी  झील का चक्कर लगाया | चश्मे के कांच पर बाहर बूँदें लिपट लिपट गईं |



.... पर जब भीतर बरसात न हो तो इन की लिपटन सुहाती ही है | ....सो सुहाती रही |  सारस, बतखें, बगुले अपनी धमाचौकड़ी छोड़ जाने कहाँ गुम  थे आज |





इस पर मित्रों की बड़ी उत्साहवर्धक प्रतिक्रया आई और चित्रों की अनुपस्थिति को भी इंगित किया गया| स्वयं मैं ही चित्र लगाना चाहती थी, किन्तु फिर  भारतीय परिवारों में दीपावली की चहल पहल  की स्थितियों और तत्पश्चात एक माह के लिए यूके के उत्तरी भागों में प्रवास पर चले जाने के कारण वह हो नहीं पाया और न ही लिखने के क्रम में उस मनःस्थिति और अवकाश की संभावना बनी| 




इस बीच अपनी कुछ  "मैं चल तो दूँ"  के रूप में पुस्तकाकार प्रकाशित पुरानी कविताएँ अवश्य मैंने गत दिनों यहाँ प्रस्तुत कीं|


शीत यों तो यहाँ पश्चिम का स्थाईभाव ही है किन्तु फिर भी अक्टूबर से इसका रूप अपने उठान पर होता है| गत वर्ष ठीक दीपावली के दिन से लन्दन में हिमपात शुरू हो गया था| इस बार शीत ज़रा देर से आया| बच्चे तो अभी दिसंबर तक जॉब आदि पर निकलते समय भी सामान्य हल्की शीत वाला ही पहरावा पहन रहे थे, ... और मैं उन्हें नसीहतें दे दे कर बार बार चिडचिडा देती थी कि वे " अभी ठण्ड हुई कहाँ है" कह कर मुझे टाल देते| वास्तव में तापमान की दृष्टि से अभी ठण्ड हुई भी नहीं थी| बच्चों का बचपन नोर्वे में माईनस चालीस ( -४० ) तक पर बीता है ( और उसमें भी वे स्नो में गुफा बनाकर घंटो बाहर उसमें घुसे रहते थे ), इसलिए इन्हें शीत का अभ्यास है परन्तु मुझे शीत से वैसा अपनापा नहीं है|



हाँ, मुझे सुहाता खूब है| विशेषतया हिमपात| हिमपात से घिरे खूब खूब टहलना मेरा मनभावन है| चारों और श्वेत बिछौने - ओढ़ने के मखमली रोमांच से घिर सिमटना और चहकना अपूर्व आनंद देते हैं| मन होता है बच्चा बन कर प्रकृति की उस नर्म नर्म गोद में धँस जाया जाए|



अब वह सब तो संभव नहीं, इच्छाओं की उम्र भले न बढ़ती हो पर देह की वय के तो अपने नियम होते हैं, कारण होते हैं, सीमाएँ और करणीय अकरणीय के हानि लाभ होते हैं| सो, बीमार हो जाने जैसे खतरे उठाने से अच्छा है कि इन वय के नियमों के अनुसार थोड़ा समझौता करते आगे बढ़ा जाए|



दिसंबर का मध्य आ गया और देर करते करते ही सही, संभावनाएँ बनने लगीं कि त्यौहार पर यह श्वेत बिछौना यहाँ क्रिसमस को जीवंत व पारम्परिक रूप दे ही देगा| और कल यह संभव हो भी गया| यकायक शाम को ४ बजे अन्धेरा घिरने से थोड़ा पहले ही नरम नरम रूई के फाहे-से उड़ते उड़ते आन पड़ने शुरू हो गए| रात में घुप्प अँधेरे के समय लगभग ७.३० बजे बाहर का दरवाजा खोला तो मानो दिन निकल आया हो| ज़रा-सी चाँदनी ही धरा पर सफेदी छितराती है तो कितना उजाला भर देती है| ...और यहाँ तो धरा ही श्वेत पट ताने जगमगा रही थी| मैंने तुरंत अपने कैमरे की बैटरी को रात भर के लिए चार्ज होने पर लगा दिया| रात ३ बजे तक खिडकियों के ब्लाईंड्स हटा कर उनका काँच पोंछ पोंछ कर बाहर तकती रही| हिम था कि मन में उजास भरता जा रहा था| सुबह १० बजे देखा कि सूर्य चमचमा रहा है तो झटपट जूते जैकेट चढ़ा कर, बिना खाए पिए ,तुरंत कैमरा लेकर बाहर आसपास घूमने दौड़ पड़ी| कैमरा उस शीत में लगातार बाहर रखने के कारण कुछ कुछ देर का अंतराल भी चाहता था| हाथ मानो जम जम कर सिकुड़ सिकुड़ जा रहे थे| फिर भी हमने कुछ दृश्य सहेज लिए|



झील पर पंछियों की अजब चहल पहल थी| कई बच्चे भी हिम के स्वागत के आयोजन में स्नो बाल्स और फ़ुटबाल के खेलों का मजा लेने घरों के आगे चहल पहल किए हुए थे|



अपने अति उत्साह में प्रकृति की रमणीयता के बिम्ब कुछ चित्रों द्वारा सदा सहेज कर रखने का लोभ तो इस रूप की आभा के सामने बहुत कम है|



आप भी देखें मेरे कैमरे में बंदी इस रूप से स्निग्ध हुई प्रकृति और जीवन के एकाकार क्षणों को -






पथ पर पग पग पर बिखरा है रजत तुम्हारे स्नेह बिंदु-सा





अपना दुबका लॉन (1)





अपना दुबका लॉन (2)





अपना दुबका लॉन (3)





पथ पर पग पग पर बिखरा है रजत तुम्हारे स्नेह बिंदु-सा





पड़ौसी





पथ पर पग पग पर बिखरा है रजत तुम्हारे स्नेह बिंदु-सा





उत्सव की तैयारी में सजे पड़ौसी द्वार





पथ पर पग पग पर बिखरा है रजत तुम्हारे स्नेह बिंदु-सा





पथ पर पग पग पर बिखरा है रजत तुम्हारे स्नेह बिंदु-सा






रजत कणों की ऐसी बरखा धवल धरा का रूप निखारे






घर से सटी झील
लो, मैं आ गई







घर से सटी झील
विहंगम प्रकृति









अज्ञातों के चरणचिह्न भी होते हैं







घर से सटी झील
पंचतत्व का साथ








तैरता उड़ता खगकुल कुलकुल-सा बोल रहा










नभ का द्वंद्व






नभ का द्वंद्व





झील की सीमंतरेखा पर हिम का पहरा
और दूर
पहरों को धता बताता किलकता बचपन








यों आकाश से मेरे आगे तक आता है किरण का पथ





कवि जगदीश गुप्त   की  इन काव्यपंक्तियों  के उल्लेख  सहित  कुछ और चित्रों के साथ मिलते हैं   फिर से-



"आँख ने
हिम-रूप को
जी-भर सहा है।
सब कहीं हिम है
मगर मन में अभी तक
स्पन्दनों का
ऊष्ण जलवाही विभामय स्रोत
अविरल बह रहा है

हिम नहीं यह -
इन मनस्वी पत्थरों पर
निष्कलुष हो
जम गया सौन्दर्य |"




शेष अगली बार 
By Kavita Vachaknavee  


  From my album



















5 टिप्‍पणियां:

  1. बढिया चित्र संजोये हैं आपने... बडे नयनाभिराम... पर उस सर्दी में लोग ठिठुर रहे होंगे॥

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  2. चित्र सभी दर्शनीय और सहेज कर रखने जैसे हैं.
    पृष्ठभूमि की अपेक्षा अग्रभूमि पर जमी कैमरे की आँख फोटोकार की कलादृष्टि का द्योतक है.
    चित्रों के शीर्षकों की सृजनात्मकता भी प्रभावित करती है.

    लेकिन मेरे जैसे कला के अपारखी को तो विवरण के जीवंत गद्य में सचमुच रमणीयता की अनुभूति होना ही बड़ी बात है.
    अभिनंदन!

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  3. इमेल द्वारा प्राप्त सन्देश


    कविता जी,
    इतने जीवंत शब्दचित्रों और छायाचित्रों से प्रकृति के इस उत्सव में हमें सहभागी बनाने के लिए मैं सचमुच आपका आभारी हूँ और
    अब इस लमहे को एक बार जीने के लिए आकुल-व्याकुल होकर "मैं चल तो दूँ" को पढ़ने के लिए उत्सुक हो उठा हूँ . कृपया इस रचना के प्राप्ति स्थल की सूचना दें.
    एक बार फिर इतनी रमणीक और मनोहारी प्रकृति से एकाकार कराने के लिए आभार और बधाई !!!

    विजय कुमार मल्होत्रा
    पूर्व निदेशक (राजभाषा),
    रेल मंत्रालय,भारत सरकार

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  4. ठंड तो यहाँ भी है लेकिन इस बर्फ़ को देखकर अब बहुत राहत महसूस हो रही है। हम तो गुनगुनी धूप के प्रदेश में रह रहे हैं जी।

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  5. हिम की टिमटिम से आँखें चकाचौंध हो जाती हैं और हम सब बच्चे बन जाते हैं. आपके मन का उत्साह मैं समझ सकती हूँ :) इतने मोहक दृश्य और घर के पिछवाड़े सुंदर झील भी..ऐसे मौसम में आनंद ही आनंद...

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