बुधवार, 16 दिसंबर 2009

बिटियाएँ

बिटियाएँ

कविता वाचक्नवी


 http://www.dollsofindia.com/dollsofindiaimages/paintings3/lonely_woman_AE20_l.jpg

पिता !
अभी जीना चाहती थीं हम
यह क्या किया........
हमारी अर्थियाँ उठवा दीं !
अपनी विरक्ति के निभाव की
सारी पग बाधाएँ
हटवा दीं.......!
अब कैसे तो आएँ
तुम्हारे पास?
अर्थियों उठे लोग
(दीख पड़ें तो)
प्रेत कहलाते हैं
‘भूत’(काल) हो जाते हैं
बहुत सताते हैं ।
हम हैं - भूत
-------अतीत
समय के
वर्तमान में वर्जित.........
विडम्बनाएँ........
बिटियाएँ.........।


अपनी पुस्तक "मैं चल तो दूँ"  (२००५, सुमन प्रकाशन ) से




7 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर व मार्मिक रचना और क्या कहूं

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  2. बहुत सुन्दर। लड़कियों की कहानी कहती हुई!

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  3. हर पिता और बेटी की मजबूरी को उजागर करती मन को छू लेने वाली कविता॥

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  4. मार्मिक और संक्षिप्त अभिव्यक्ति पर बधाई लें.

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  5. kavita ji bahut hi marmsparshi rachna ..sahaj aur teekha prahar kerti pourush (chadam)ko lalkarti..wah

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