सोमवार, 17 जून 2013

जीवन : Life : कविता वाचक्नवी

जीवन : कविता वाचक्नवी


जीवन तो
यों
स्वप्न नहीं है
आँख मुँदी औ’ खुली
चुक गया।


                     यह तपते अंगारों पर
                     नंगे पाँवों
                     हँस-हँस चलने 
                     बार-बार
                     प्रतिपल जलने का
                     नट-नर्तन है।


Life : by Kavita Vachaknavee

Translation : by Parul Rastogi

Life
Though
Not a dream
That
Washes away
With
Blink of eyes
But;
An act
To walk alone
On smouldering coals
Bare feet
Each second in deep pain
Still smile on curving lips
Life is nothing
But an acrobat's show....


रविवार, 16 जून 2013

तुम्हारे वरद-हस्त : ©-कविता वाचक्नवी

तुम्हारे वरद-हस्त ©-कविता वाचक्नवी 
पितृदिवस पर 15 बरस पुरानी एक कविता, अपने काव्यसंकलन "मैं चल तो दूँ" (2005) से 

पिताजी श्री इंद्रजित देव 










मेरे पिता !
एक दिन
झुलस गए थे तुम्हारे वरद-हस्त,
पिघल गई बोटी-बोटी उँगलियों की।
देखी थी छटपटाहट
सुने थे आर्त्तनाद,
फिर देखा चितकबरे फूलों का खिलना,
साथ-साथ
तुम्हें धधकते
किसी अनजान ज्वाल में
झुलसते
मुरझाते,
नहीं समझी
बुझे घावों में
झुलसता
तुम्हारा अन्तर्मन

आज लगा...
बुझी आग भी
सुलगती
सुलगती है
सुलगती रहती है।
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शनिवार, 8 जून 2013

आपके वस्त्र आपकी सोच का पता नहीं देते

आपके वस्त्र आपकी सोच का पता नहीं देते : कविता वाचक्नवी



यद्यपि यह सही है कि हमें अपने आसपास के परिवेश को देखकर वस्त्रों का चयन करना चाहिए, जैसे क्लब में धोती और टोपी पहन कर जाने से अजूबे लगते हैं और अनाथालय में लाखों के हीरे जवाहरात पहन कर जाने से अजूबे। इसी तरह भारत या किसी भी क्षेत्र के स्थानीय परिवेश आदि के अनुसार वस्त्र पहनने से अजूबा नहीं लगते व न लोगों के ध्यानाकर्षण का केंद्र; किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि सिर पर कपड़ा लेने वालों को ही प्रार्थना और भक्ति का अधिकार है और प्रार्थना का पहरावे से कोई सम्बन्ध है या जिनके वस्त्र निश्चित श्रेणी के नहीं हैं उन्हें प्रार्थना या भक्ति का अधिकार नहीं या वे अयोग्य हैं। यदि युवक युवतियाँ मन्दिर या किसी प्रार्थनास्थल पर आधुनिक वस्त्र पहन कर आते हैं तो उनकी आलोचना करने या उन्हें दोष देने की अपेक्षा प्रसन्न होना चाहिए कि अत्याधुनिक जीवनशैली के लोग भी अपने मूल्यों या पारिवारिक संस्कारों को बचाए हुए हैं। 


आर्यसमाज के प्रकाण्ड विद्वान व विख्यात वैज्ञानिक स्वामी डॉ. सत्यप्रकाश सरस्वती (चारों वेदों के अंग्रेजी भाष्यकर्ता, पचासों अंग्रेजी हिन्दी पुस्तकों के लेखक, इलाहाबाद विश्वविद्यालय के केमिस्ट्री विभागाध्यक्ष व शब्दावली आयोग के स्तम्भ) अष्टाध्यायी पर एक संगोष्ठी की अध्यक्षता कर रहे थे तो कोट टाई में एक सज्जन जब बोलने उठे तो सभा में उपस्थित सभी लोग (सब मुख्यतः गुरुकुलों के ही लोग थे ) हँसने लगे व कहने लगे कि पहनते हैं कोट टाई और बोलेंगे पाणिनी पर। जब स्वामी जी अध्यक्षीय वक्तव्य देने लगे तो उन हँसी उड़ाने वालों के कटाक्ष का उत्तर देने के लिए बोले कि हमें सर्वाधिक गर्व है कोट-टाई वाले इन सज्जन पर कि अत्याधुनिक होते हुए भी वे पाणिनी का महत्व समझते हैं और उसका गहन अध्ययन किया है। 


इसी प्रकार वर्ष 2001/2002 में जब विद्यानिवास मिश्र जी से मेरी लम्बी बातचीत हुई [ जिसे 'हिन्दुस्तानी एकेडेमी, इलाहाबाद ' की पत्रिका 'हिन्दुस्तानी' ने विद्यानिवास जी पर केन्द्रित अपने विशेषांक (2009) में प्रकाशित भी किया ] तो विद्यानिवास जी ने उस समय एक बड़े पते की बात कही थी कि "कोई साड़ी में भी 'मॉड' हो सकता है और कोई स्कर्ट पहन कर भी दक़ियानूसी।" अभिप्राय यह कि पहरावा व्यक्ति के समाज की स्थानीयता, कार्यक्षेत्र व परिवेश आदि से जुड़ा होता है उसका व्यक्ति की सोच, विचारों और अच्छे-बुरे होने से कोई सम्बन्ध नहीं होता। न ही पहरावे को धर्म (?) व संस्कृति आदि से जोड़ कर देखा जाना चाहिए। 


भारत में पुरुष 50 वर्ष से भी पूर्व से पैंट-बुश्शर्ट और कोटपैण्ट आदि पहनते चले आ रहे हैं और इन्हें पहनने के चलते उनके संस्कारवान या संस्कारहीन होने पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता किन्तु स्त्रियों के संस्कारशील होने की पहचान उनका साड़ी पहनना ही समझते हैं; जो स्त्री साड़ी नहीं पहनती वह संस्कारहीन या मर्यादाहीन है, वह भारतीय नारी नहीं है। भारतीयता इतनी मामूली व हल्की चीज समझ ली गई है कि साड़ी पहनना ही भारतीय होना है और साड़ी न पहनना भारतीयता व संस्कारों से च्युत होना समझ लिया जाता है। कल स्त्रियों के एक परिचर्चासमूह में एक पत्रकार ने लिखा कि "मन्दिरों आदि में जीन्स इत्यादि पहन कर आने वाली मर्यादाहीन लड़कियों द्वारा स्त्री के सम्मान की बात करने का कोई औचित्य नहीं"। कितना हास्यास्पद है कि मर्यादा ऐसी चुटकी में हवा हो जाने वाली वस्तु हो गई है कि यदि लड़की जीन्स आदि पहन ले तो वह मर्यादाहीन कही जाएगी और उससे स्त्री के सम्मान के लिए कुछ भी कहने का अधिकार छीन लिया जाएगा व सम्मान पाने के अधिकार से भी उसे वंचित कर दिया जाएगा। 


यों भी स्त्री के वस्त्रों के अनुपात से उसके चरित्र की पैमाईश करने वाले कई प्रसंग उठते रहते हैं और स्त्री के वस्त्रों को उसके साथ होने वाले अनाचार का मूल घोषित किया जाता रहा है। जबकि वस्तुत: अनाचार का मूल व्यक्ति के अपने विचारो, अपने संस्कार, आत्मानुशासन की प्रवृत्ति, पारिवारिक वातावरण, जीवन व संबंधों के प्रति दृष्टिकोण, स्त्री के प्रति बचपन से दी गयी व पाई गयी दीक्षा, विविध घटनाक्रम, सांस्कृतिक व मानवीय मूल्यों के प्रति सन्नद्धता आदि में निहित रहता है। पुरुष व स्त्री की जैविक या हारमोन जनित संरचना में अन्तर को रेखांकित करते हुए पुरुष द्वारा उस के प्रति अपनी आक्रामकता या उत्तेजना को उचित व सम्मत सिद्ध करना कितना निराधार व खोखला है, इसका मूल्यांकन अपने आसपास के आधुनिक तथा साथ ही बहुत पुरातन समाज के उदाहरणों को देख कर बहुत सरलता व सहजता से किया जा सकता है।


वस्तुत: जब तक स्त्री - देह के प्रति व्यक्ति की चेतना में भोग की वृत्ति अथवा उपभोग की वस्तु मानने का संस्कार विद्यमान रहता है, तब तक ऐसे प्रत्येक व्यक्ति को सौ परदों में छिपी स्त्री को देख कर भी आक्रामकता व उत्तेजना के विकार ही उत्पन्न होते हैं| देह को वस्तु समझने व उसके माध्यम से अपनी किसी लिप्सा को शांत करने की प्रवृत्ति का अंत जब तक हमारी नई नस्लों की नसों में रक्त की तरह नहीं समा जाता, तब तक आने वाली पीढ़ी से स्त्रीदेह के प्रति 'वैसी" अनासक्ति की अपेक्षा व आशा नहीं की जा सकती| योरोप का आधुनिक समाज व उसी के समानान्तर आदिवासी जनजातियों का सामाजिक परिदृश्य हमारे समक्ष २ सशक्त उदाहरण हैं। असल गाँव की भरपूर युवा स्त्री खुलेपन से स्तनपान कराने में किसी प्रकार की बाधा नहीं समझती क्योंकि उस दृष्टि में स्तन यौनोत्तेजना के वाहक नहीं हैं, उनका एक निर्धारित उद्देश्य है, परन्तु जिनकी समझ ऐसी नहीं है वे स्तनों को यौनोत्तेजना में उद्दीपक ही मानते पशुवत् जीवन को सही सिद्ध किए जाते हैं और अपनी उस दृष्टि के कारण जनित अपनी समस्याओं को स्त्री के सर मढ़ते चले जाते हैं ।


जो लोग स्त्री के वस्त्र देखकर सम्मान करते-न करते हैं, वे वस्तुतः स्त्री का नहीं, उसके वस्त्रों का सम्मान करते हैं और सच बात तो यह है कि वे स्त्री की देह पर ही अटके रह जाते हैं व देह से उबरने या उस से आगे जाने/ परे जाने की योग्यता ही उनमें नहीं होती, वे स्त्री को भोग के उपादान की भाँति देखते हैं। कोई इन तथाकथित 'भद्र' (?) लोगों से पूछे कि भई आप क्यों सिर पर पगड़ी नहीं पहनते और क्यों कोट पैण्ट शर्ट आदि पहनते हैं, आपके यह सब पहनने से मर्यादा क्यों नहीं भंग होती? 


सच बात तो यह है कि हमें, आपको व सबको प्रसन्न होना चाहिए कि जीन्स आदि पहनने वाली बच्चियाँ भी अभी आपके पारिवारिक मूल्यों व शिक्षाओं आदि के संस्कारों को अपनाए हुए हैं और उनमें रुचि लेती हैं। लेकिन उस से उल्टा सोच कर बच्चियों पर कटाक्ष करना और उनके अधिकारों व सम्मान के औचित्य पर प्रश्नचिह्न लगाना मूर्खता व अज्ञान से अधिक कुछ भी नहीं है। यह एक प्रकार से स्त्रीशोषण, पितृसत्तात्मकता व देहवाद से इतर अन्य कुछ भी नहीं है। ऐसे लोगों के दिमाग के जाले साफ करने के लिए सब को मिल कर आगे आने होगा व प्रयास करने होंगे।

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इसी विषय पर एक संवाद/परिचर्चा यहाँ भी पढ़ी जा सकती है - "डिफ़ेन्स मैकेनिज़्म है स्त्री की लपेट"

बुधवार, 5 जून 2013

जब दुल्हन आने पर घर में नाचे मोर

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           (विश्व पर्यावरणदिवस पर विशेष )


राजस्थान, 26 दिसंबर की कड़कड़ाती शीत मेरे विवाह के बाद पहली सुबह थी और लगभग 7 बजे हमें आवाज देकर उठाया गया क्योंकि आँगन में कई सारे मोर-मोरनियाँ आ गए थे। बाद में इन मोरों से ऐसा रिश्ता बना कि मेरे आँगन में 4-5 मोर तक एक साथ नाचा करते थे... जीवन में शायद ही किसी ने इतने रोमांचक अनुभव पाए हों। मेरे परिवार के लोग कहा करते थे कि ब्याह वाले घर बहू आने पर हीजड़े (शब्द के लिए क्षमा) तो घर-घर में नाचते/नचवाते हैं लोग, पर तुम्हारे ब्याह के बाद तो अपने आप ही मोर नाचने आ जाने की गाथा विरल ही के भाग्य में होती है :) । उस पहली मोर-नाच वाली सुबह की एक 'मूवी' भी हमने लगभग 31 वर्ष पहले घर पर तभी बनाई थी। 


घरों में बिस्तर पर कुत्तों और बिल्लियों की कहानी तो बहुतों ने सुनी होगी पर बिस्तर पर मोर की अलबेली गाथा केवल मेरे ही साथ हुई। एक मोर हमारा पालतू ही हो गया था और वह शीत की दुपहरी में आँगन में फोल्डिंग चारपाई बिछा कर धूप सेंकने के लिए मेरे सोए होने पर चारपाई पर चढ़ आता और वहीं अपने पैकेट को खींच कर ला उढ़ेलता दाने खाता या मेरे हाथ से खाता .... । हम लोग नियमित दैनिक अग्निहोत्र करते तो वह नियम से पूरा समय निश्शब्द साथ में वहीं बैठा रहता। मेरे इधर उधर होने पर स्वयं भण्डार में घुस जाता और अपने लिए रखे अनाज के डिब्बे को गिराकर या पैकेट को उढ़ेल कर दाने खाया करता। मैं न दीखती तो घर के सब कमरों को पार करता एक ओर से दूसरी ओर पूरा घर चहलकदमी करते हुए फलाँग आ जाता। घर में चोर घुस आने की आशंका में उसने एक दिन ऐसा कोहराम मचाया कि जब तक मुझे अपने कदमों के पीछे चलाता हुआ लेकर दूसरी ओर दीवार खोदते कर्मचारियों तक नहीं ले गया तब तक डेढ़ घण्टा चीखता रहा। उसके साथ मेरे पचासों चित्र हैं, चारपाई पर, हाथ से खाते हुए, नाचते हुए आदि आदि। वे सब चित्र भारत के सामान में बंद पड़े हैं अन्यथा आज उन्हें अवश्य लगाती। 


राजस्थान छोड़ते समय उसके छूट जाने की पीड़ा से मन बहुत व्यथित था। अपनी गोदावरी बाई को दस-बीस किलो अनाज के पैसे देकर आई थी कि वह रोज नियत समय पर आकर उसे दाना देती रहे। गोदावरी ने कहा कि उसे पहचानेगी कैसी, तो चलते चलते मैंने उस नीलकण्ठ की गर्दन पर सफ़ेद पेंट के कुछ चिह्न बना दिए थे ताकि पहचाना जा सके। वह कैसा विकल हुआ होगा कई दिन तक ! कोई छोटा-मोटा जीव होता तो उसे साथ ही ले आती पर इतने बड़े मोर को छोड़कर ही जाना संभव था। 


बाद में तोता (मधुरम्), खरगोशों का जोड़ा, मछलियाँ और अब हमारी मौलि (बिल्ली) हमारे प्रेम के ऐसे पात्र बने कि इनके स्नेह और लगाव से मन द्रवित हो जाया करता है ... पर मोर के पालतू जो जाने का संस्मरण संसार में शायद ही किसी के पास हो.... मैं इकलौती वैसी भाग्यशाली हूँ । 


विवाह से पूर्व घर में पलती गाय-बछड़ों आदि से चल विवाह के बाद मोरों के साथ शुरू हुई यह जीवनयात्रा आज 'राजहंसों', बतखों, मौलि (हमारी बिल्ली) और जाने कितने पंछियों के सान्निध्य में आ पहुँची है। ये जीव हमारा जीवन कितना स्निग्ध बना डालते हैं... हमारा अस्तित्व इनके सामीप्य में और सँवर उठता है। विश्व पर्यावरण दिवस पर इन अपने चहेतों के लायक सृष्टि बचाई रख पाने की कामना से बड़ी कामना और क्या हो ! 

(हंसों के कई चित्र गत दिनों लगाए थे कुछ और चित्र दो चार दिन में लगाऊँगी। तब तक एक चित्र गोद में सवारी करती मौलि का )
कुछ चित्रों को यहाँ देखा जा सकता है - क्लिक करें यहाँ  / यहाँ

और लोमड़ी के साथ हमारा एक वीडियो भी गत दिनों मैंने साझा किया था -