बुधवार, 5 जून 2013

जब दुल्हन आने पर घर में नाचे मोर

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           (विश्व पर्यावरणदिवस पर विशेष )


राजस्थान, 26 दिसंबर की कड़कड़ाती शीत मेरे विवाह के बाद पहली सुबह थी और लगभग 7 बजे हमें आवाज देकर उठाया गया क्योंकि आँगन में कई सारे मोर-मोरनियाँ आ गए थे। बाद में इन मोरों से ऐसा रिश्ता बना कि मेरे आँगन में 4-5 मोर तक एक साथ नाचा करते थे... जीवन में शायद ही किसी ने इतने रोमांचक अनुभव पाए हों। मेरे परिवार के लोग कहा करते थे कि ब्याह वाले घर बहू आने पर हीजड़े (शब्द के लिए क्षमा) तो घर-घर में नाचते/नचवाते हैं लोग, पर तुम्हारे ब्याह के बाद तो अपने आप ही मोर नाचने आ जाने की गाथा विरल ही के भाग्य में होती है :) । उस पहली मोर-नाच वाली सुबह की एक 'मूवी' भी हमने लगभग 31 वर्ष पहले घर पर तभी बनाई थी। 


घरों में बिस्तर पर कुत्तों और बिल्लियों की कहानी तो बहुतों ने सुनी होगी पर बिस्तर पर मोर की अलबेली गाथा केवल मेरे ही साथ हुई। एक मोर हमारा पालतू ही हो गया था और वह शीत की दुपहरी में आँगन में फोल्डिंग चारपाई बिछा कर धूप सेंकने के लिए मेरे सोए होने पर चारपाई पर चढ़ आता और वहीं अपने पैकेट को खींच कर ला उढ़ेलता दाने खाता या मेरे हाथ से खाता .... । हम लोग नियमित दैनिक अग्निहोत्र करते तो वह नियम से पूरा समय निश्शब्द साथ में वहीं बैठा रहता। मेरे इधर उधर होने पर स्वयं भण्डार में घुस जाता और अपने लिए रखे अनाज के डिब्बे को गिराकर या पैकेट को उढ़ेल कर दाने खाया करता। मैं न दीखती तो घर के सब कमरों को पार करता एक ओर से दूसरी ओर पूरा घर चहलकदमी करते हुए फलाँग आ जाता। घर में चोर घुस आने की आशंका में उसने एक दिन ऐसा कोहराम मचाया कि जब तक मुझे अपने कदमों के पीछे चलाता हुआ लेकर दूसरी ओर दीवार खोदते कर्मचारियों तक नहीं ले गया तब तक डेढ़ घण्टा चीखता रहा। उसके साथ मेरे पचासों चित्र हैं, चारपाई पर, हाथ से खाते हुए, नाचते हुए आदि आदि। वे सब चित्र भारत के सामान में बंद पड़े हैं अन्यथा आज उन्हें अवश्य लगाती। 


राजस्थान छोड़ते समय उसके छूट जाने की पीड़ा से मन बहुत व्यथित था। अपनी गोदावरी बाई को दस-बीस किलो अनाज के पैसे देकर आई थी कि वह रोज नियत समय पर आकर उसे दाना देती रहे। गोदावरी ने कहा कि उसे पहचानेगी कैसी, तो चलते चलते मैंने उस नीलकण्ठ की गर्दन पर सफ़ेद पेंट के कुछ चिह्न बना दिए थे ताकि पहचाना जा सके। वह कैसा विकल हुआ होगा कई दिन तक ! कोई छोटा-मोटा जीव होता तो उसे साथ ही ले आती पर इतने बड़े मोर को छोड़कर ही जाना संभव था। 


बाद में तोता (मधुरम्), खरगोशों का जोड़ा, मछलियाँ और अब हमारी मौलि (बिल्ली) हमारे प्रेम के ऐसे पात्र बने कि इनके स्नेह और लगाव से मन द्रवित हो जाया करता है ... पर मोर के पालतू जो जाने का संस्मरण संसार में शायद ही किसी के पास हो.... मैं इकलौती वैसी भाग्यशाली हूँ । 


विवाह से पूर्व घर में पलती गाय-बछड़ों आदि से चल विवाह के बाद मोरों के साथ शुरू हुई यह जीवनयात्रा आज 'राजहंसों', बतखों, मौलि (हमारी बिल्ली) और जाने कितने पंछियों के सान्निध्य में आ पहुँची है। ये जीव हमारा जीवन कितना स्निग्ध बना डालते हैं... हमारा अस्तित्व इनके सामीप्य में और सँवर उठता है। विश्व पर्यावरण दिवस पर इन अपने चहेतों के लायक सृष्टि बचाई रख पाने की कामना से बड़ी कामना और क्या हो ! 

(हंसों के कई चित्र गत दिनों लगाए थे कुछ और चित्र दो चार दिन में लगाऊँगी। तब तक एक चित्र गोद में सवारी करती मौलि का )
कुछ चित्रों को यहाँ देखा जा सकता है - क्लिक करें यहाँ  / यहाँ

और लोमड़ी के साथ हमारा एक वीडियो भी गत दिनों मैंने साझा किया था -


6 टिप्‍पणियां:

  1. अच्छा लगा पढ कर। मनीषा जैन
    Www.manishajainwrites.blogspot.com

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