शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2012

छत पर आग उगाने वाले दीवारों के सन्नाटों में क्या घटता है

कंधों पर सूरज

डॉ. कविता वाचक्नवी


( अपनी काव्य-पुस्तक " मैं चल तो दूँ " से)








प्रश्न गाँव औ’ शहरों के तो
हम पीछे सुलझा ही लेंगे
तुम पहले कंधों पर सूरज
लादे होने का भ्रम छोड़ो ।


चिकने पत्थर की पगडंडी
नदी किनारे जो जाती है
ढालदार है
पेड़, लताओं, गुल्मों के झुरमुट ने उसको
ढाँप रखा है
काई हरी-हरी लिपटी है

कैसे अब महकेंगे रस्ते
कैसे नदी किनारे रुनझुन
किसी भोर की शुभ वेला में
जा पाएगी

कैसे सूनी राह
साँस औ’ आँख मूँद
पलकें मींचे भी
                 चलता
प्रथम किरण से पहले-पहले
प्रतिक्षण
मंत्र उचारे कोई ?

कैसे कूद - फाँदते बच्चे
धड़-धड़ धड़- धड़ कर उतरेंगे
गाएँगे ऋतुओँ की गीता ?

कैसे हवा उठेगी ऊपर
तपने पर भी ?
कैसे कोई बारिश में भीगेगा हँस कर ?


छत पर आग उगाने वाले
दीवारों के सन्नाटों में
क्या घटता है -
हम पीछे सोचें-सलटेंगे
तुम पहले
कंधों पर सूरज
लादे होने का भ्रम छोड़ो।



©  सर्वाधिकार सुरक्षित

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सोमवार, 13 फ़रवरी 2012

"पुरुष-सूक्त" : मेरी पाँच कविताएँ

पुरुष - सूक्त
© - डॉ. कविता वाचक्नवी
[ अपनी काव्य-पुस्तक "मैं चल तो दूँ" (2005) से उद्धृत ]





१.





श्यामवर्णी बादलों के
वर्तुलों में
झिलमिलाती धूप
फैली थी जहाँ
गाल पर
उन बादलों के स्पर्श
महके जा रहे।






२.





चेतना ने
ठहर
तलुवों से सुघर पद
छू लिए,
आँख में
विश्रांति का
आलोक - आकर
सो गया।






३.






साँझ नंगे पाँव
उतरी थी लजाती
सूर्य का आलोक अरुणिम
बस
तनिक-सा
छू गया।







४.





राग का रवि
शिखर पर जब
चमकता है
मूर्ति, छाया
मिल परस्पर
देर उतनी
एक लगते।






५.






थाम नौका ने
कलाई
लीं पकड़
हाथ से
पतवार दो
कैसे छुटें
और लहरों पर लहर में
खो गए
दोनों सहारे
ताकते ही रह गए
तटबंध सारे।


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रविवार, 12 फ़रवरी 2012

"... अमर वचन ये विद्यासागर नौटियाल के "

"... अमर वचन ये विद्यासागर नौटियाल के " 




"हरी घास को चर जाएँगे वृषभ काल के 

इक्कीसवीं सदी में 

अमर वचन ये 

विद्यासागर नौटियाल के "



नौटियाल जी नहीं रहे, यह दु:खद समाचार मिला तो मन कष्ट से भर गया। मन में उनकी स्मृतियों को ताज़ा करती अपने ईमेल्ज़ में उनसे हुए संवादों को खोजती रही।


' पहल ' पत्रिका पर केन्द्रित मेरे हिन्दी-भारत पोर्टल पर छपे आलोक श्रीवास्तव जी के लेख (पाखंडी नैतिकता का अश्वमेध जारी है : पहल के बहाने ) के संदर्भ में टिप्पणी करते हुए उन्होंने अपने ईमेल में लिखा था - 



"maine blog dekkha. 2006 ke baad se maine 'kathadesh' se apne rishte tod liye the . usne mujhe bhi kaafi be-izzatkiya tha. lekin mein kisi se aisi chhejon ka zikra tak nahin karta.apna samay kimti hota hai, uska upyog rachnatamak karyon mein hi k iya jana chahiye, aisa mera maana hai.


'kathadesh ' ki' pahal' se tulna nahin ki jani chahiye.

hari ghass ko char jayenge brishabh kaal
ke/ ikkiswin sadi mein/amar bachan ye/vidya sagar nautiyal ke."


इसके उत्तर में (`पल्लव' के सुझाव पर ) मैंने उनसे पूछा था कि क्या आपकी ये पंक्तियाँ वहाँ ब्लॉग पर प्रतिक्रियाओं में लगा दूँ अथवा नहीं। इस पर उनका जो उत्तर आया, उस से उनकी सत्यनिष्ठा, साहस व विवेक का प्रमाण मिलता है। 


आज उन दिवंगत आत्मा को प्रणाम निवेदित करते हुए, स्क्रीनशॉट ( चित्र ) के रूप में उस ईमेल को मैं ज्यों का त्यों दे रही हूँ।










उक्त ईमेलाचार में भविष्यवाणी व चेतावनी-सी देकर हिन्दी समाज को सचेत करती उनकी रोमन में लिखी काव्यपंक्तियों को ( प्रारम्भ में ) देवनागरी में कर दिया है।


क्या इन पंक्तियों में छिपी वेदना का अर्थ हम लगा पाएँगे ? और लगा पाए तो क्या अपने को  इस "हरी घास को चर जाने" वाले छद्म, अनाचार से विलग करने का साहस कर पाएँगे ? 

यदि नहीं, तो हमारी श्रद्धांजलियाँ केवल औपचारिकता-भर नहीं लगतीं आपको ?




रविवार, 5 फ़रवरी 2012

श्वेत बिछौने और रजत के कण : मेरी आँखेँ, मेरे क्लिक्स

श्वेत बिछौने और रजत के कण : मेरी आँखेँ, मेरे क्लिक्स


  इस बार लंदन में ढंग से हिमपात बहुत देर से हुआ। वर्ष 2008 में अक्तूबर के अंत में ही हिमपात हो गया था, 2009 में दिसंबर को हुआ था। तभी मैंने ये कुछ संस्मरण-से  व वर्णन दो खंडों में इन दो लिंक्स पर लिखे थे -



 गत वर्ष 2010 में मैं यात्रा पर थी और 2011 का हिमपात होते होते 2012 में पहुँच गए हैं।

कल रात के हिमपात का पता गत सप्ताह के प्रारम्भ से था, क्योंकि हैंडसेट पर ही सप्ताह-भर की पल पल की खबर अग्रिम देखने की सुविधा स्मार्टफोन का आविष्कार  करने वाले वैज्ञानिकों ने उपलब्ध करवा दी हैं।

कल हम सब सुबह से हिमकणों की प्रतीक्षा बार बार द्वार खोल कर देखते करते रहे।  सायं हिमपात प्रारम्भ हुआ व सोने जाते तक सब कुछ ढँक चुका था। तब मैंने अपनी फेसबुक प्रोफाईल पर हर्ष से भर लिखा -


"आज शाम से जोरदार हिमपात .... अहा... हा !!! आधी रात में भी अब बाहर चकाचौंध भर गई है और मुख्य द्वार के काँच से बाहर झाँकने पर एक लोमड़ी मेरे आँगन में खड़ी मिली। :)
...इस सफ़ेद बिछौने पर सुबह उठकर टहलने जाना पक्का कर सोने जा रही हूँ।"

प्रातः उठते ही हम सब (बिटिया दामादजी व बेटे ) बाहर टहलने निकल गए।  बाहर का दृश्य देख मुझे अपने नॉर्वे के दिन याद आ गए। खैर, उन बातों को छोड़ इस प्राकृतिक सुषमा का आनंद लेते, मेरे कैमरे से कुछ दृश्य सदा के लिए संस्मरण बन गए। कुछ चित्रों में पीछी झील व नहर पूरी जम चुके स्पष्ट दीख रहे हैं।


देखें बाहर का रूप ( सभी चित्रों को एक एक कर क्लिक कर सही आकार में देखें )


सभी चित्रों का स्वत्वाधिकार सुरक्षित है। 























`स्त्री होकर सवाल करती है..!' : `दैनिक जागरण' में

`स्त्री होकर सवाल करती है..!' : `दैनिक जागरण' में 



गत दिनों मैंने बोधि प्रकाशन द्वारा प्रकाशित एक संकलन के विमोचन की सूचना इन्हीं पन्नों पर दी थी। 
आज 5 फरवरी 2012 के `दैनिक जागरण' में `स्त्री होकर सवाल करती है...' संकलन पर एक प्रतिक्रिया -







 facebook women writer
स्त्री होकर सवाल करती है..!


राजू मिश्र।


फेसबुक को लेकर यह भ्रम टूटा है कि आत्म प्रचार का अखाड़ा या फिर टाइमपास का ही माध्यम मात्र है। यह भी साबित हुआ है कि सकारात्मक कर गुजरने की गुंजाइश हर जगह और हर परिस्थिति में होती है। इस बात की गवाह है-'स्त्री होकर सवाल करती है..!' इस पुस्तक में ऐसी कविताओं को संकलन सूत्र में पिरोया गया है, जो फेसबुक पर सक्रिय 383 महिला रचनाकरों की हैं। यह ऐसी रचनाएं हैं, जिन्हें अपनी वाल पर टैग देखकर मित्र सराहना करते, कुछ दो शब्द लिखने में भी सकुचाते, तो कुछ लाइक का बटन दबाकर काम चलाते रहे। इन रचनाओं को संकलित किया है साहित्यकार मायामृग ने।


यह संकलन उस धारणा को भी बकवास करार देता है कि किचन में आटा रांधने वाली घरेलू स्त्री का सृजनात्मकता से कोई वास्ता नहीं। संकलन निकालने का विचार कैसे कौंधा? इस सवाल पर मायामृग कहते हैं-'..विचार लगातार रचनाओं को पढ़ते हुए बना। महसूस हुआ कि यहां मौजूद रचनाकारों पर जो आक्षेप साहित्यिक गोष्ठियों में बहुधा लगाए जाते हैं, वे वैसे नहीं हैं।'


बहरहाल फेसबुक पर इस संकलन की चर्चा बुलंदी पर है। रचनाकार अपनी कविताओं को किताबी शक्ल में पाकर फूली नहीं समा रहीं। कवि ललिता प्रदीप पांडेय का मानना है कि संकलन का यह प्रयोग सर्वथा नया है और स्वस्तिमयी आश्वस्ति देने वाला है। संकलन की संपादक डा. लक्ष्मी शर्मा कहती हैं कि यह पूरी परंपरा को चुनौती है, जिसने सवालों का सदा कत्ल किया। पुरुष सत्ता स्त्री के सवाल को हमेशा दबाती आई है। मायामृग कहते कैं कि रिस्पांस वाकई उत्साह बढ़ाने वाला है। नई योजनाओं के लिए प्रोत्साहित करता है। अभी आगे के लिए कुछ स्पष्ट तय नहीं किया है, लेकिन फेसबुक पर मौजूद रचनाकारों से विषय के बंधन से रहित कविताएं, गजलें आमंत्रित करने पर विचार चल रहा है। उम्मीद है जल्द कुछ तय हो पाएगा।


प्रमुख रचनाएं


अनवरत युद्ध [आभा], प्रेम करने वाली औरतें [अतुल कनक], नदी [अर्पण], ए आदमी [अलका], तुम्हारा यह घर [अनुज], स्त्री और स्त्री [अर्पिता], औरत [बेबी], कमरा, बच्ची और तितलियां [गोपीनाथ], पहचान हूं मैं [गीता], डर है [हिमांशु], दोष [प्रयास], स्तब्ध [कविता], सोचना तो होगा [अजय], भरोसे की कीमत [ललिता पांडेय], अभाव [निशा], कैसे कर लेते हो ? [निधि ] नई युद्ध नीति [प्रेम], मैं हूं स्त्री [प्रेरणा], स्त्रियां [रमेश], स्त्रियों के नाम [रवि], परिचय [शर्मिष्ठ], कल जब मैं न रहूंगी [सुमन]।

शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2012

10वाँ अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी उत्सव : `हिन्दी की वैश्विक भूमिका' - स्मारिका में लेख

10वाँ अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी उत्सव : `हिन्दी की वैश्विक भूमिका' - स्मारिका में लेख 

राष्ट्रीय लिपि देवनागरी : कविता वाचक्नवी



गत माह दिल्ली में प्रवासी दुनिया, अक्षरम, हंसराज कॉलेज-दिल्ली विश्वविद्यालय, भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद् विष्णु प्रभाकर जन्मशताब्दी समारोह समिति के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित `10वाँ अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी उत्सव' 10 से 12 जनवरी को सम्पन्न हुआ। 


गत वर्षों से उत्सव अपने महत्वपूर्ण व सार्थक आयोजनों के चलते अपनी एक महत्वपूर्ण व विशिष्ट पहचान बना चुका है। 8वें अंतराष्ट्रीय हिन्दी उत्सव में 6 व 7 फरवरी 2010 को मैं स्वयं इसमें भागीदार रहकर इसका साक्षात् अनुभव कर चुकी हूँ। 


इस वर्ष के आयोजन का विषय था "हिन्दी की वैश्विक भूमिका"। इस विषय पर केन्द्रित एक स्मारिका भी प्रतिवर्ष की भांति प्रकाशित की गई। 


इस स्मारिका में मेरा भी एक लेख "राष्ट्रीय लिपि : देवनागरी" संकलित है, जिसे आप यहाँ देख सकते हैं। यह लेख मैंने मूलतः वर्ष 1999 ई. में लिखा था। 

पूरी स्मारिका  यहाँ देखें 





गुरुवार, 2 फ़रवरी 2012

" अभ्यास " : कविता वाचक्नवी


 " अभ्यास "
- कविता वाचक्नवी



' हरिभूमि ' (दिल्ली ) के आज  2 फरवरी 2012 अंक में पृष्ठ 4 पर प्रकाशित एक 10-12 बरस पुरानी मेरी छोटी-सी कविता -


" अभ्यास "

भोर का 
चिड़ियों की चह् चह् का 
जिन्हें अभ्यास हो 
रात्रि का 
निर्जन अकेलापन 
उन्हें 
कैसे रुचे ? 






  अपनी  पुस्तक "मैं चल तो दूँ" (2005), सुमन प्रकाशन, से उद्धृत