गुरुवार, 12 दिसंबर 2013

क्यों न हो समलैंगिकता प्रतिबन्धित

क्यों न हो समलैंगिकता प्रतिबन्धित : कविता वाचक्नवी



उच्चतम न्यायालय के समलैंगिक सम्बन्धों के विपक्ष में आए निर्णय पर जिस तरह से देश में स्यापा मचा है उसे देख कर सिर पीटने का मन होता है। जिस देश में HIV के आंकड़ों का अनुपात देख कर पैरों तले धरती सरक जाए, उस देश को आधुनिक बनाने के नाम पर और कितने जीवनों का बलिदान लेने की मुहिम में लगे हैं लोग ! 

चिदम्बरम फरमाते हैं कि "इस निर्णय के कारण अब भारत किवापस 1860 के दौर में चला गया है"। हद्द है भाई ! जिस देश में साफ शौचालय तो क्या, घरों में शौचालय तक नहीं है, जिस देश में दैनंदिन रूप से हजारों बलात्कार होते हैं, जिस देश में स्त्रियाँ आज भी अपने मौलिक अधिकारों के लिए नियमित घुटती/मरती व मार दी जाती हैं, जिस देश में लाखों बच्चे अपने शिक्षा के मौलिक अधिकार से वंचित हैं, जिस देश में भूख से मरने वालों की सुनने वाला कोई नहीं, जो देश सर्वाधिक भ्रष्ट देशों की सूची में है, वह देश अपने इन कारणों से पिछड़ा नहीं दीखता आपको ? उस देश में समलैंगिकता को वैध बनाना ही सबसे बड़ी आवश्यकता दीखता है, ताकि अपने को आधुनिक कहलाया जा सके ? कितना हास्यास्पद है ! 


एड्स से मरने वाले और ग्रस्त परिवार के करोड़ों सदस्यों की राय माँग कर देखिए, आपको पता चल जाएगा कि कितने देशवासी इन सम्बन्धों की माँग करते हैं। बस अन्तर यह है कि वे लोग अपनी आवाज़ लेकर मीडिया के सामने प्रदर्शन करने नहीं जुट सकते जिनके पास जीवन और मृत्यु के संघर्ष से बाहर आने का न तो अवसर है और न सुध ! जिनके पास ये अवसर, यह सुविधा और यह मौका उपलब्ध है वे निस्संदेह वह वंचित वर्ग नहीं हैं, जिसके लिए जीवन और मृत्यु प्राथमिकताएँ हैं। 


ऐसे यौन-सम्बन्धों के अधिकारों के लिए लड़ने से पहले दूसरे मूलभूत अधिकारों की किसी को नहीं पड़ी। बिना मूलभूत अधिकारों की दिशा में आगे बढ़े कोई देश यौन-अधिकारों के लिए लड़ रहा है, यह बेहद डरावना है और निन्दनीय भी। आज तो ऑस्ट्रेलिया की सरकार ने भी इन सम्बन्धों को अवैधानिक करार दे दिया... ! मिस्टर चिदम्बरम ! कितना पिछड़ा हुआ है ना ऑस्ट्रेलिया ? 


क्या आप जानते हैं ये इन सम्बन्धों को वैध करार देने से खाए पिए अघाए लोग जो शोषण में पूर्व संलिप्त हैं, उन्हें इस यौन शोषण का लाईसेन्स भी यह कानून उपलब्ध करवा देगा। वे अपने अधीन्स्थों का यौन शोषण धड़ल्ले से यह सिद्ध कर कर पाएँगे कि ये स्वेच्छा से बने सम्बन्ध हैं। 
कुछ तो आँख खोलना सीखिए अब भारतवासियो! 

- #Vachaknave#LGBT #Court #HIV #Aids #India #Rights #Law

18 टिप्‍पणियां:

  1. सही कह रही हैं आप मगर यहां के लोग इस बात को कहाँ समझते हैं उन्हें तो आधुनिकता ऐसी ही बातों मे दिखती है

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  2. Samlaigikta aur aprakritik yaunachar mein Kay dark hai? Hum kaun hain iski anumati dene wale?

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  3. मैं उच्चतम न्यायालय के निर्णय का स्वागत करता हूँ । आप का यह लेख बहुत ज़रूरी है , छद्म आधुनिकता की दुहाई देने वालों की आँखें खोलने के लिए । जो दुष्कृत्य अप़ाकृतिक है , उसे मौलिक अधिकार बताना बहुत ग़लत है ।

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  4. छोटा लेकिन सारगर्भित और बेहद विचारणीय आलेख. समलैंगिकता के पक्ष में बोलने वाले मानसिक बीमार लोग हैं. यह अप्राकृतिक और आपराधिक कर्म है और इसके लिए गंभीर सजा दी जानी चाहिए. जो लोग सड़कों पर उतरकर इसके लिए प्रदर्शन कर रहे हैं उसे भी प्रतिबंधित किया जाना चाहिए.

    इतने अच्छे आलेख के लिए हार्दिक बधाई.

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  5. बहुत सार्थक सटीक और आवश्यक एक दायित्व पूर्ण लेख ,..आभार आपका।

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  6. कविता जी! ये ठीक है कि भारत में कई सारी मूलभूत समस्याएँ हैं. लेकिन इसका ये मतलब नहीं है कि दूसरी समस्याओं पर विचार न किया जाय. शौचालय ना होना एक बड़ी समस्या है लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि उसकी वजह से किसी व्यक्तिगत अजादी पर बात न की जय. आप बात अगर एड्स की कर रहीं हैं तो आपको ये भी पता होगा कि ३७७ के विरुद्ध याचिका एक एड्स मुक्ति के लिए काम करना वाली संस्था ने ही की थी. उनके अनुसार समलैंगिकता के अपराधीकरण के चलते बहुत से समलैंगिक एड्स के मरीज़ इलाज के लिए सामने नहीं आना चाहते. ऑस्ट्रेलिया का एक उदाहरण क्या सिद्ध करता है? उन देशों को भी देखिये जो इसे न जाने कब का वैधानिक मान्यता दे चुके हैं और उनके विकास या सामजिक संरचना वैसी ही चल रही है. बलात्कार के केस में भी अक्सर यही साबित करने की कोशिश की जाती है कि सबकुछ लडकी की सहमती से हुआ था इसकी वजह से हम हेट्रोसेक्चुअलिटी पर तो प्रतिबन्ध नहीं लगाते. बल्कि धारा ३७७ के चलते समलैंगिकों के साथ होने वाले अपराध सामने नहीं आ पा रहे, जो कि बहुत खतरनाक है. वैसे भी धारा ३७७ काफी समय से लागू थी उस वक्त भी देश में बहुत सी समस्याएँ थीं. उनका भी निराकरण होना चाहिए लेकिन किसी ख़ास वर्ग की अनदेखी करके नहीं. कविता जी को लोगों को मूर्ख उद्घोषित करना बहुत पसंद है. कोई आपके विचारों से सहमत नहीं तो ज़रूरी नहीं कि उसकी आँखें मुंदी हुई हैं.

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    1. श्वेता रानी खत्री जी, मैंने अपनी वॉल पर तर्क और कुतर्क या सुतर्क के उत्तर देने का शास्त्रार्थ नहीं चलाया। मैंने अपने विचार रखे हैं। आप अपने विचारों के लिए स्वतंत्र हैं। आपको हठपूर्वक बाध्य होने को किसी ने नहीं कहा। मुझे आप लाख बातें सुना लीजिए, धिक्कार लीजिए, पिछड़ा सिद्ध कर लीजिए.... शौक से। पर सुप्रीम कोर्ट तो निस्संदेह आपसे अधिक बेहतर सोचने की क्षमता रखता होगा या वे भी सब कम अक्ल हैं ? आप जिन देशों के उदाहरण दिखाना चाहती हैं उनकी सामाजिक बुनावट व हमारी व्यवस्था और बुनावट में जमीन आसमान का अंतर है। उसको समझे बिना बहुधा लोगों को ऊँचा ऊँचा बोलना-बताना अच्छा लगता है, वे इस अच्छा लगने का आनंद शौक से लें। स्वयं को अत्याधुनिकक समझने का शौक भी न पाला तो क्या जिया ! जिन्हें समलिंगियों से संसर्ग करना है वे शौक से करें। सुप्रीम कोर्ट कोई उनके बेडरूम में झाँकने तो आ नहीं आ रहा। हाँ जब भरे पेट वाले मालदार लोग अपने अधीनस्थों का दैहिक शोषण करते पाए जाएँगे तो उनकी मुरम्मत का प्रावधान जरूर कर दिया है न्यायालय ने। जैसे कोई स्त्री पुरुष संबंध बनाते हैं तो कोर्ट थोड़े आता है जाँच करने; पर जब ये संबंध असहमति से व अनिच्छा से या बलात बनते हैं तो उनके लिए दंड का प्रावधान होना चाहिए कि नहीं ? कोर्ट का निर्णय उन सम्बन्धों के लिए दंड प्रावधान करने के लिए है। वरना बड़ी मछलियाँ तो यों भी दिन रात निगलने में लगी ही हैं सब छोटी मछलियों को। आप छोटी मछलियों को वक्तव्य का अधिकार दिलाने के नाम पर बड़ी मछलियों को दंड से बचाने की मुहिम चलाना चाहें तो कोई क्या कर सकता है।

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  7. इस लेख को यहाँ नेट पर पढ़ने के पश्चात भारत से Spl Metropolitan Magistrate at Delhi High Court द्वारा व्यक्तिगत संदेश के रूप में जो टिप्पणी भेजी गई है, वह यों है -
    "Excellent you are really an Ambassador of Indian heritage and culture. Best wishes...Sky is the limit..Vande Matram..Jaihind"

    उनकी इस टिप्पणी व उत्साहवर्धन के उत्तर में मैंने उन्हें लिखा -

    "आपके इन उत्साहवर्धक शब्दों से बहुत बल मिला।
    आभारी हूँ। यद्यपि इसमें अभी मैंने दूसरे पक्ष की चर्चा नहीं की थी जो अधिक विकराल है। वह उन लोगों का है जो अपने अधीनस्थों या आवश्यकता के मारों या कमज़ोरों का दैहिक शोषण करते हैं, दंड का प्रावधान होना उनके कृत्यों के लिए अत्यावश्यक है। यों यह एक मनोरोग तो है ही, प्रारम्भ में इसका पता नहीं चलता और दो चार वर्ष मौज मस्ती जैसा लगता है, यह भी लगता है कि हम सामान्य समाज से अलग व विशिष्ट हैं किन्तु बहुत ही जल्दी इसके भीषण दुष्परिणाम सामने आने लगते हैं। HIV और एड्स जैसी बातों के साथ जोड़कर इन अधिकारों को लोग नहीं देख रहे। एचआईवी का खतरा उठाते हुए कोई सभ्य समाज इन अधिकारों का समर्थन नहीं कर सकता, यह समझना चाहिए लोगों को। अस्तु! पुनः आभारी हूँ । "

    इसके उत्तर में उन्होने पुनः संदेश भेजा -

    "You are very right Doctor Kavita, We so called elite citizen are not paying back to society as much we would have given. We forget that before 15-20 years there was finger counted cases of HIV but now they have swollen like anything despite of our all efforts of media. It shows that the strategy we have adopted to eradicate this dreaded disease of HIV is required to be redesigned in the present socio- economic era. A fairly numbers of poor people who are still under poverty line are increasing which shows that our publicity for HIV awareness campaign of HIV are limited to urban only. We are on the right track and one day we will win."

    सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के प्रति मेरी आस्था है तो है ही , अब इन माननीय मजिस्ट्रेट के शब्दों से और बल मिला है। आभारी हूँ।

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  8. बहुत ही सारगर्भित लेख, बधाई l आशा है लोग इस पक्ष की महत्ता को समझेंगे l

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  9. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  10. कृपया इस मुद्दे के दूसरे पहलू पर भी नज़र डालें - 377 पर 7 तर्क

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  11. कविता जी शायद मैं पहली बार आपसे असहमत हूँ .. आपने जो मुद्दे जोड़े या उठाय वो सही हो सकते हैं लेकिन हर पहलू के दो रूप होते है एक स्त्री या पुरुष में दोनों तत्व होते है यानि एक स्त्री में पुरुष तत्व भी होता है और एक पुरुष में स्त्री तत्व , अर्धनारीश्वर का कांसेप्ट यही है . अब कुछ में यह तत्व ज्यादा मात्रा में है ..वह अपने समान लिंग के प्रति भावनात्मक रूप से आकर्षित रहते हैं इसका मतलब यह नहीं है कि उन्होंने कोई गुनाह किया है ...जैसा सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में कहा है .... हर चीज़ अपने साथ अच्छाई और बुराई दोनों लाती है ....इसका मतलब यह नहीं कि उसके सिर्फ बुरे पक्ष को देखा जाय ... हर पहलू पर विचार आवशयक है

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