सोमवार, 15 अप्रैल 2013

जब मैं परीक्षा हॉल में छुरा ले कर गई : कविता वाचक्नवी

जब मैं परीक्षा हॉल में छुरा ले कर गई  : कविता वाचक्नवी



आज अपने जीवन का एक खतरनाक-सा प्रतीत होता प्रसंग लिखने जा रही हूँ । लोग अक्सर मुझ से मेरे साहस और जुझारूपन के बारे में पूछते हैं और मुझे लिखते भी हैं। उसका उत्स क्या है, यह भी जानना चाहते हैं। कुछ साहस जन्मजात ही शायद प्रकृति ने मुझ में भर कर भेजा है और उत्स तो पिताजी व आर्यसमाज के संस्कार ही हैं। 

यों इस तरह की कई घटनाएँ हैं किन्तु आज पहली घटना व शायद सबसे कम आयु में घटी सबसे बड़ी घटना का उल्लेख करती हूँ।


यह बहुत रोचक घटना मेरे विद्यार्थी जीवन की है। हरिद्वार में 1980 में वार्षिक परीक्षाएँ सम्पन्न हो जाने के बाद सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय ने सभी केन्द्रों पर हुई खूब नकल के चलते वे परीक्षाएँ निरस्त कर दी थीं और छह-आठ महीने बाद दुबारा परीक्षाएँ ली गईं। इस से दूसरे नगर (यमुनानगर) से हरिद्वार जा कर परीक्षा देने वाले मुझ जैसे विद्यार्थियों को बहुत असुविधा हुई और जो वर्ष खराब हुआ उसकी भरपाई भी नहीं हो सकती थी। इसे लेकर मेरे मन में बहुत खीज व आक्रोश था। पिता जी का जो समय व धन का अपव्यय इस कारण हुआ था, उसे लेकर दु:ख भी था। मेरी परीक्षाओं के दिनों में पिताजी मेरे वस्त्र तक अपने हाथों से धोया करते थे और स्वयं खाना बनाकर देते थे ताकि मैं पढ़ने में लगी रह सकूँ। अतः  दी  जा चुकी वार्षिक परीक्षाएँ निरस्त हो कर दुबारा होने से पिताजी के लिए कष्ट का ध्यान कर क्रोध भी था। अस्तु! 


अगले वर्ष 1981 में परीक्षाओं का केंद्र मैंने सहारनपुर बदल लिया ताकि नकल करने वालों से बचा जा सके। किन्तु सहारनपुर में भी खूब नकल चल रही थी। मैंने परीक्षा हॉल में खड़े होकर खूब जोरदार ढंग से परीक्षक को अपना विरोध जताया किन्तु परीक्षक ने मुझे ही डपट कर बैठा दिया कि मैं अपनी परीक्षा देने में ध्यान दूँ और सारी दुनिया को सुधारने का ठेका न लूँ। अन्ततः मुझे बाध्य होकर बैठ जाना पड़ा क्योंकि 3 घंटे में मुझे अपनी परीक्षा भी लिखनी ही थी। पर मैंने उसे चेतावनी दी कि मैं उसकी व नकल करने वाले दूसरे विद्यार्थियों की लिखित शिकायत विश्वविद्यालय को करूँगी। 


इसका परिणाम यह हुआ कि उस शाम सहारनपुर के बेहट रोड पर कुछ गुंडों ने मुझे घेर कर धमकाया कि अगर जिंदा रहना चाहती हो तो अपने पर ध्यान दो वरना जिंदा नहीं छोड़ेंगे और एक लड़का (जिसका नाम 'राजकुमार' था) बोला कि अगर एक शब्द भी बोली तो सहारनपुर के किसी गटर या आम के बगीचे में पड़ी हुई तुम्हारी लाश मिलेगी। 


मैं सहारनपुर के जिस परिवार में ठहरी थी, वे मेरे कॉलेज के प्राचार्य शुभनाथ मिश्र जी का ही आवास था और उनकी धर्मपत्नी दरभंगा नरेश की साली लगती थीं। मैं उन्हें माताजी कहा करती थी और वे दंपत्ति मुझे अत्यंत स्नेह करते थे। उन माता जी ने कुछ दिन पहले ही मेरे जन्मदिवस के उपहार के रूप में मुझे राजपरिवार का एक पीतल का छुरा भेंट में दिया था जो एक बहुत पुराना ऐतिहासिक छुरा था और बंद होने पर धातु का आयताकार 'स्केल' जैसा लगता था पर दोनों ओर से उसका फोल्डिंग कवर खुल जाता था व हत्थे का रूप ले लेता था। अभी भी वह मेरे पास सुरक्षित है। तो यों, वह छुरा मेरे पास था ही क्योंकि उन्हीं दिनों मिला ही था। 


अगले दिन मैं परीक्षा देने के लिए जाते समय वह छुरा अपने साथ ले गई, ताकि यदि कोई आक्रमण करे तो अपनी सुरक्षा के काम आएगा। परीक्षा हॉल में अपनी मेज पर अपने सामान (रुमाल व अतिरिक्त पेन आदि ) के साथ उसे भी मैंने रख दिया और परीक्षा देने लगी। कुछ देर में हॉल में घूमते-घूमते परीक्षक मेरी मेज पर आए और उसे देख कर बोले कि स्केल क्यों लेकर आई हो। मैंने उत्तर दिया कि यह स्केल नहीं है। तब उन्होंने उसे हाथ में उठाया और छुरा देख कर इतना घबरा गए कि कमरे से बाहर भाग गए और पाँच मिनट में कमरे में भीड़ लग गई। पुलिस को बुला लिया गया और छुरा पुलिस ने ले लिया। मैंने पुलिस का विरोध किया और कहा कि यह मेरे उपहार की वस्तु है, इसे कोई नहीं ले सकता और जितना समय मेरा परीक्षा लिखने का बर्बाद किया है उतने मिनट मैं बाद में अलग से लूँगी। उस कमरे में दरवाजे पर दो पुलिस वाले तैनात कर दिए गए और कॉलेज के परिसर व गेट पर भी बीस पच्चीस और पुलिस वालों को बिठा दिया गया। वे पुलिस वाले परीक्षा के बाद परीक्षाकेंद्र से आचार्य जी के घर तक प्रतिदिन मेरे पीछे आते। 


जिस परीक्षक ने पहले दिन मुझे डपटा था, पता चला कि वह इतना डर गया कि बीच परीक्षाओं में उसी दिन से लंबी छुट्टी पर चला गया। पक्का स्मरण नहीं किन्तु संभवतः 'राजकुमार' ने उस वर्ष की शेष परीक्षाएँ ही नहीं दीं। अंतिम पर्चा देकर मैं प्रिंसीपल के कमरे में गई। वह पुलिस वालों से खचाखच भरा था। मैंने उन से मेरा छुरा वापिस देने को कहा। लंबी बहस के बाद छुरा मुझे वापिस मिला। पुलिस ने घंटा-भर मुझ से तरह तरह के सवाल किए। काफी प्रशंसात्मक व सहयोगी रवैये से बातें करते रहे व मेरा अता-पता आदि जानने की कोशिश भी की किन्तु अपना पता व पिताजी का नाम आदि मैंने नहीं बताया। जब मैं चलने लगी तो पुलिस वालों की ओर से जो मुख्य व्यक्ति था, उसने दो पुलिस वालों से कहा कि इसके साथ वहाँ तक साथ जाना, जहाँ यह रह रही है। मुझसे अंत में बोला कि "तुम लगभग 20-25 साल की होगी, इतनी धाकड़ हो और इतनी हिम्मत कहाँ से पाई, डर नहीं लगता तुम्हें ?" मुझे याद है उसके 'धाकड़'   शब्द को सुन मैंने हँसते हुए कहा था - "पिताजी कहते हैं कि साँच को आँच नहीं लगती, झूठ को डर लगता है और सच्चाई की जीत होती है, ऊपर से आर्यसमाज की बनाई हुई हूँ जिस से हर गलत चीज डर कर भागती है, इसलिए डरूँगी क्यों, मरती भी तो दो चार को मार कर ही मरती।" 


वे पुलिस वाले मेरे पीछे-पीछे आचार्य जी के आवास तक निगरानी करते आए और वहाँ से सहारनपुर के बस अड्डे पर मेरे यमुनानगर की बस मैं बैठने तक डटे रहे। इस घटना के बाद मेरा नाम 'छुरे वाली कविता' और "योद्धा" के रूप में पुकारा जाने लगा था। मैंने उन परीक्षाओं में लगभग सभी विषयों में 75% से अधिक अंक पाए थे। उस समय के कुछ परिचित अब तक मुझे "योद्धा जी" कह कर पुकारते हैं। 


आज सोचती हूँ तो लगता है कि वह साहस शायद आज मैं न कर सकूँ।

कुछ वर्ष पूर्व जब कक्षा नवीं या दसवीं  में पढ़ने वाली मेरी बेटी अपने स्कूल में चार लड़कों को पीट कर आई थी तो इस 'छुरे वाली योद्धा कविता' के भीतर बसी माँ को भी डर लगा था कि कहीं कोई उस से बदले के लिए आगे न बढ़ जाए। 


बाद में साहित्यिक जगत के कई लोगों से भी इसी साहस से कुछ पंगे लेने का क्रम बना रहा जो आज तक  जारी है और ब्लॉग जगत और फेसबुक की दुनिया तक भी चलता आ रहा है। 

बस अन्तर केवल यह है कि बड़ी उम्र की इस दुनिया के लोग अधिक शातिर व घाघ हैं। इनके पास बदला लेने के कई दूसरे हथियार हैं, जिन से कई-कई बार लगातार वार होते रहे हैं, होते रहते हैं, पर साहस फिर फिर उठा देता है और लाख बचने के बावजूद फिर कहीं न कहीं पंगा हो ही जाता है, जाने कितनी बड़ी-बड़ी हानियाँ उठाने के बाद भी "छुटती नहीं है गालिब मुँह को लगी हुई" की तर्ज पर 'छुटती नहीं है हमको आदत लगी हुई" है। 

पर इतना तय है कि साहस बाहर से आरोपित नहीं किया जा सकता। यदि हम सही मार्ग पर हैं और सच के समर्थन में खड़े हैं तो साहस स्वतः आ जाता है। झूठ सच में बहुत कमजोर होता है, बस आवश्यकता होती  है उस झूठ को ढहा देने का सामर्थ्य रखने वाले सच के शौर्य की व अपना लाभ-हानि विचारे बिना गलत को गलत व सही को सही कहने के साहस व ईमानदारी की।


(यह संस्मरण कई दिन से लिखा हुआ रखा था और मैं गूगल इमेजिस् पर अपने वाले उस छुरे से मिलती जुलती कोई छवि खोज रही थी। ज्यों का त्यों तो वैसी नहीं मिली किन्तु जो चित्र प्रयोग किया है यह उस से बहुत मिलता जुलता है। इसकी जानकारी यहाँ क्लिक कर पढ़ी जा सकती है )


35 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही अच्छा लगा पढ़कर...अतिशय साहसिक कदम..उस ज़माने में एक लड़की द्वारा उठाया गया यह कदम अप्रतिम है...बिल्कुल ही जंगल में आग की तरह इस घटना की खबर फैली होगी...सच की इस लड़ाई का अच्छा परिणाम तो साथ-साथ ही दिख गया...परीक्षा केंद्र से लेकर आपके आने जाने तक साथ में पुलिस की प्रतिनियुक्ति रही...स्पष्ट है की केंद्र पर कदाचार रुक गया ...बिल्कुल ही सच लिखा है आपने...
    " साहस बाहर से आरोपित नहीं किया जा सकता.यदि हम सही मार्ग पर हैं और सच के समर्थन में खड़े हैं तो साहस स्वतः आ जाता है."

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    1. जी बिलकुल, तीस-बत्तीस साल पहले के उस जमाने में जब हमारे घरों की लड़कियों को दरवाजे पर खड़े तक होने की अनुमति नहीं थी, उस समय यह घटना ऐतिहासिक व जंगल की आग के जैसी थी।

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  2. ...Bahut hi Prerak Aur Sachchai Ke Prati Samarpit Tatha Sahas se Paripurn Aapke Jeevan Ki Yeah Ghatanaa Bahut hi Lajawab Aur Shiksha Prad Hai..Ish Ghatanaa Se Yeah Sands milta Hai ki Samay Chahe Koi bhi Ho..Sachchai ki Hi Vijay Hoti Hai.. Aapne Sach Hi Leekha Hai.." Pitaji Kahate hain Sanch Ko Aanch Nahi Lagati, Jhooth ko Dar Lagta Hai..Aur Sachchai Ki Jeet hoti Hai"...Aabhar Aapko Aise Sachchi Aur Prerak Prasan ko Hum Sabke Sath Bantate Ke Liye..


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  3. अत्यन्त रोचक संस्मरण। आपका साहस काबिले-तारीफ था। खैर छुरा हर लड़की को लेने को तो नहीं कहा जा सकता परन्तु मन में साहस और आत्मविश्वास अवश्य होना चाहिये।

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  4. आपने लिखा....हमने पढ़ा
    और लोग भी पढ़ें;
    इसलिए कल 21/04/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
    आप भी देख लीजिएगा एक नज़र ....
    धन्यवाद!

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  5. सच्चे अर्थ में भारतीय नारी. हमने अपनी बेटियों को शिक्षा और संस्कार देने में जो कोताही की, उसे ही भुगत रहे हैं

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  6. अच्छा लगा पढकर ...कैसा लगता है जब कोई पढकर आया हो और दूसरे लोग नक़ल कर रहे हों !!

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  7. पढ कर बहुत बल मिला... आप का साथ / सुरक्षा का एहसास...

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  8. चाकू-छुरे क्या आपने तो भाले भी चलाए हैं!
    खतरनाक .........????!!!!!!

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    1. जी हाँ, चलाए तो भाले भी हैं और उनमें मैं राज्यस्तर की विजेता भी रही हूँ। पर वे तो 'भाला फेंक' (जेवलियन थ्रो) का अंग थे। यह प्रसंग किसी खेल का अंग नहीं न। इसलिए छुरा आदि के कारण खतरनाक तो हो ही गया।

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  9. आपकी यह आप बिती सुनकर पहले तो उन कमिनो पर क्रोध आया थोङा आगे पढा तब मन को सांन्ति मिली । माता बच्ची जन्मे तो आप जैसी....

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  10. "सब मेरी ही गलती है" या "मुझे क्या पड़ी है ?" ये विचार अब आपके पाठ से ध्वस्त ।स्वस्ति। आलस और बहाने ढूँढने मैं इने सक्षम हो गए, सच से शक्ति जुटा सकते हैं, यह समझना और आचरण में लाना अगली परीक्षा होगी।

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    1. हाँ मैत्रेयी, मुझे क्या पड़ी है, वाली धारणा का बोलबाला आजकल अधिक है।

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  11. आपके इस रूप को पढ़कर बहुत अच्छा लगा .साहस का यह परिचय निश्चय की प्रशंसा के काबिल है .बढ़िया .

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  12. Very happy to read this-The country needs such type of inspirational story.still we are struggling for the change of mentality after more than thirty years. Does the story gives the message that the girl should take responsibility and should have weapons with them ?

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    1. यह संस्मरण क्या संदेश देता है, यह तो पढ़ने वाले पर निर्भर करता है। केवल महिलाओं का हथियार रखना आदि से इतर व बड़े संदेश भी इसमें खोजे जा सकते हैं। महिलाओं के हथियार रखने वाले विषय पर भी विचार किया जाना चाहिए, यदि हथियार के औचित्यपूर्ण प्रयोग का विवेक बना रहता है, तो। अन्यथा हथियार किसी समस्या का पूर्ण हल नहीं हैं। आत्मरक्षा के लिए हथियार ठीक हैं किन्तु यदि उस से बढ़ कर हो जाते हैं तो समाज के लिए खतरा भी। अतः हथियार का अधिकार देने से पहले उसके प्रयोग का विवेक भी विकसित करवाना होगा।

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  13. aapke jeevan ki yah ghatna kafi prernadayak h...ummed karti hu aage v aap aisi aur baatein hamare sath share karti rahengi.

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    1. ऐसा विचार तो है कि जीवन के कुछ यादगार पल एक एक कर लिखे जाएँ।

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    2. Jarur likhiye ma'am..kyuki aapke liye wo sirf kuch yadgar pal h..par hum jaise pathko k liye wo prerna dene ka kam karenge .......aapki lekhni ka intezar rahega...

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  14. बड़ा ही दिलचस्प संस्मरण है....छुरा देखकर परीक्षक तक काँप गया
    फेसबुक ने अब जाना...समझो इस पर अवार्ड मिल गया.
    निडर हो ऐसी ही बनी रहो और हम किसी से कम नहीं वाली बात को सिद्ध करती रही हो....''योद्धा'' (झांसी की रानी)

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  15. कविताजी यह वाकई एक खतरनाक कदम था ....आजकल के हालातों में तो और भी ज्यादा .....लेकिन अंत भला तो सब भला ......आप सकुशल अपने घर आ गयीं ....एक सांत्वना जो आजकल हर घर का चैन छीने हुए है .....बढ़िया संस्मरण

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