गुरुवार, 30 जून 2011

मेरी एक शाम : ज़ावेद अख्तर जी, प्रसून जोशी व शबाना जी के साथ

मेरी एक शाम :  ज़ावेद अख्तर जी, प्रसून जोशी व शबाना जी के साथ 
 - (डॉ.) कविता वाचक्नवी





अभी  अभी एक गरिमापूर्ण आयोजन से लौटी हूँ |


प्रसून जोशी और ज़ावेद अख्तर जी को ३०/६/११ (आज) सायं ६.३० बजे `वातायन' द्वारा, लगभग ७०-८० लोगों की उपस्थिति में ब्रिटिश पार्लियामेंट के हाऊस ऑफ़ कॉमन्स में आयोजित एक प्रतिष्ठित समारोह में उनके काव्यलेखन के लिए पुरस्कृत किया गया |


इस अवसर पर प्रसून जोशी ने अपनी कुछ कविताओं का पाठ भी किया | एक गीत तरन्नुम में भी सुनाया जो सर्वाधिक मार्मिक था कि कैसे एक बेटी अपने पिता से विवाह के लिए मना करते हुए एक एक कर सुनार, व्यापारी और जाने किस किस से उसका विवाह न करवाने की प्रार्थना करती है, क्योंकि वह न हिसाबी किताबी है ... न सोने चाँदी की महिमा समझ सकती है ..... आदि आदि ; किन्तु अंत में कहती है कि मेरा ब्याह, बस, किसी लोहार से करवा देना बाबा ! जो मेरे जीवन की तमाम बेड़ियाँ काट सके | 


मैंने इसके कुछ अंशों की वीडियो भी ली है जो  फिर किसी दिन बाँटूँगी | 


अख्तर साहब ने भी अपनी कई रचनाएँ सुनाईं |  मुझे उनकी स्मृति पर दंग रह जाना पड़ा | मुक्त छंद की भी अपनी कितनी रचनाएँ उन्हें ज़ुबानी याद हैं | आश्चर्य  हुआ | उपस्थितों के आग्रह पर कुछेक और रचनाएँ उन्हें सुनानी पडीं | `शतरंज' और `वक्त' ने खूब तालियाँ बटोरीं | 


कविता की दृष्टि से अख्तर साहब का बिम्ब निर्माण अनूठा है और बेहद नाज़ुक व अमूर्त किन्तु सचल  बिम्बविधान रचते हैं वे | लोक का संस्कार उनमें गहरे रचा पचा है | जीवनानुभव में रची पची  भाषा उनकी काव्यात्मक होती है ;  जबकि प्रसून के पास भी लोक है और बड़ा जीवंत है किन्तु  ज़ावेद जी के अनुभव में बसे काल और प्रसून के अनुभव में बसे काल की अपनी अपनी अलग छवियाँ है अतः  रचनाओं में लोक का कालिक अंतर स्पष्ट दिखाई देता है |


  प्रसून की भाषा और कहन आम आदमी की भाषा से गहरे जुड़ते हैं | बिम्ब दैनंदिन जीवन ( जो अब नागरी चर्या में लगभग लुप्तप्राय है ) के छोटे छोटे अवसरों से उठाए हुए हैं और उन्हें बड़ी अर्थवत्ता प्रदान की गयी है | संवेदना बहुत गहरी है | प्रसून के भरोसे फ़िल्मी गीतों में कविता के बचे रहने की बड़ी आस ज़िंदा रहती है | 


हाँ एक बात और ! फिर से पुष्टि हुई कि  रचनाकार / लेखक  दूसरे सलेब्रिटिज़ की तुलना में कुछ अधिक सहज होते हैं |


 कार्यक्रम का एक रोचक पक्ष शबाना जी को अपने ब्लैकबेरी से ज़ावेद जी के फोटो खींचते देखना था |


 कार्यक्रम के उपरांत मैंने अनौपचारिक क्षणों के भी कई चित्र लिए | कुल  लगभग ५०-६०  चित्र व कुछेक वीडियोज़  हैं | 


सभी तो नहीं यहाँ लगा रही, हाँ, उनमें से कुछेक ये रहे   -    (क्लिक कर के बड़े आकार में देखा जा सकता है ) ->




































ध्यातव्य है कि लन्दन के नेहरु सेंटर एवं यू के हिंदी समिति के तत्वाधान में लोर्ड बैरोनैस फ्लैदर के संरक्षण में आज ३० जून सायं ब्रिटिश पार्लियामेंट के हाउस ऑव लॉर्ड्स के एक एतिहासिक कक्ष में `वातायन : पोएट्री ऑन साउथ बैंक ' के वार्षिक सम्मान समारोह का आयोजन किया गया. 


आयोजन में कवि और लेखक श्री प्रसून जोशी एवं श्री जावेद अख्तर को वातायन कविता सम्मान से सम्मानित किया गया. मुख्य अतिथि के रूप में अभिनेत्री शबाना आज़मी, लोर्ड देसाई तथा डॉ. मधुप मोहता की उपस्थिति ने कार्यक्रम को गरिमा प्रदान की .


लेखक, संगीतकार और फिल्मकार डॉ. संगीता दत्ता के संचालन में संपन्न इस समारोह का शुभारम्भ रीना भारद्वाज (गायिका ‘यह रिश्ता’) द्वारा सरस्वती वंदना के गायन  से हुआ. 


लेखक, फिल्मकार नसरीन मुन्नी कबीर ने प्रसून जोशी के साहित्यिक योगदान पर प्रकाश डाला. प्रसून के गीत ‘तारे जमीं पर’ का अंग्रेज़ी काव्यान्तरण कवयित्री, लेखक और फिल्मकार रुथ पडेल ने प्रस्तुत किया तो प्रसून ही के एक अन्य गीत ‘मेरी माँ ’ को कवयित्री/ लेखिका इंडिया रस्सल ने भाषान्तरित कर पढ़ा | 


कार्यक्रम की अध्यक्षता कैम्ब्रिज विश्विद्यालय के पूर्व प्राध्यापक एवं लेखक डॉ. सत्येन्द्र श्रीवास्तव ने की तथा प्रस्तावना यू के हिंदी समिति के अध्यक्ष, `पुरवाई' और `प्रवासी टुडे' के संपादक डॉ. पद्मेश गुप्त ने प्रस्तुत की.

वातायन की संस्थापकाध्यक्ष और प्रवासी टुडे की प्रबंधसंपादक दिव्या माथुर ने अतिथियों का धन्यवाद ज्ञापित किया.



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अपडेट ( 9 दिसंबर 2011)


ऊपर प्रारम्भ में मैंने प्रसून जोशी की एक रचना का उल्लेख किया है जिसमें बेटी अपने पिता को संबोधित करती गाती है। उक्त गीत का पाठ उपलब्ध करवाने की बात कह कर मैं भूल गई थी किन्तु आज स्मरण आने पर वह गीत यथावत् प्रस्तुत कर रही हूँ। नीचे प्रसून जोशी द्वारा इसी कार्यक्रम में उस गीत का वीडियो भी है, जिसमें लगभग 8:30 से 10:56 तक इस गीत का सस्वर पाठ  है।


गीत के शब्द हैं -

बाबुल जिया मोरा घबराए, बिन बोले रहा न जाए।

बाबुल मेरी इतनी अरज सुन लीजो, मोहे सुनार के घर मत दीजो।
मोहे जेवर कभी न भाए।

बाबुल मेरी इतनी अरज सुन लीजो, मोहे व्यापारी के घर मत दीजो
मोहे धन दौलत न सुहाए।

बाबुल मेरी इतनी अरज सुन लीजो, मोहे राजा के घर न दीजो।
मोहे राज करना न आए।

बाबुल मेरी इतनी अरज सुन लीजो, मोहे लौहार के घर दे दीजो
जो मेरी जंजीरें पिघलाए। 

बाबुल जिया मोरा घबराए।





रविवार, 19 जून 2011

तुम्हारे वरद-हस्त

तुम्हारे वरद-हस्त 


(डॉ.)  कविता वाचक्नवी

(अपने संकलन "मैं चल तो दूँ" (२००५) से )





मेरे पिता !
एक दिन
झुलस गए थे तुम्हारे वरद-हस्त,
पिघल गई बोटी-बोटी उँगलियों की।

देखी थी छटपटाहट
सुने थे आर्त्तनाद,
फिर देखा चितकबरे फूलों का खिलना,
साथ-साथ
तुम्हें धधकते
किसी अनजान ज्वाल में
झुलसते
मुरझाते,

नहीं समझी
बुझे घावों में
झुलसता
तुम्हारा अन्तर्मन

आज लगा...
बुझी आग भी
सुलगती
सुलगती है
सुलगती रहती है।