गुरुवार, 12 अक्टूबर 2023

वर्तमान की वह पगडंडी जो इस देहरी तक आती थी.....

युद्ध : बच्चे और माँ (कविता)

साहित्य अकादमी के वार्षिक राष्ट्रीय बहुभाषीकवि सम्मेलन की चर्चा मैंने अभी पिछली बार की थी। वहाँ काव्यपाठ में प्रस्तुत अपनी रचनाओं में से एक अभी बाँट रही हूँ।

२५ नव. की रात्रि में इसका पाठ करने से पूर्व मैंने अन्यभाषी श्रोताओं के लिए इसका सार अंग्रेजी में उपलब्ध कराते हुए कहा था कि बच्चे का आतंकवादी में रूपांतरण, आतंक और सृष्टि की निर्मात्री माँ के बीच दो विपरीत ध्रुवों को स्पष्ट करने के साथ साथ यह कविता रेखांकित करती है कि आतंक और युद्ध की स्थितियों की सर्वाधिक पीड़ा स्त्री भोगती है क्योंकि यह संसार उसका रचा हुआ है। तब क्या पता था कि अगले ही दिन २६ नव. को एक बड़ा हादसा भारत की धरती भी घटने की तैयारी कर चुका था। उन अर्थों में इस कविता को उन्नीकृष्णन की माता ( जिसे मैं भारत की वीर माता विद्यावती की प्रतीक मानती हूँ) के चरणों में समर्पित कर रही हूँ व प्रत्येक उस माँ के भी जिनके जाये आतंक या युद्ध का शिकार बने ।




युद्ध : बच्चे और माँ
- कविता वाचक्नवी





निर्मल जल के
बर्फ हुए आतंकी मुख पर
कुँठाओं की भूरी भूसी
लिपटा कर जो
गर्म रक्त मटिया देते हैं
वे,
मेरे आने वाले कल के
कलरव पर
घात लगाए बैठे हैं सब।



वर्तमान की वह पगडंडी
जो इस देहरी तक आती थी
धुर लाशों से अटी पड़ी है,
ओसारे में
मृत देहों पर घात लगाए
हिंसक कुत्तों की भी
भारी
भीड़ लगी है।



मैं पृथ्वी का
आने वाला कल सम्हालती
डटी हुई हूँ
नहीं गिरूँगी....
नहीं गिरूँगी....


पर इस अँधियारे में
ठोकर से बचने की भागदौड़ में
चौबारे पर जाकर
बच्चों को लाना है,
इन थोथे औ’ तुच्छ अहंकारी सर्पों के
फन की विषबाधा का भी
भय
तैर रहा है......।




कोई रोटी के कुछ टुकड़े
छितरा समझे
श्वासों को उसने
प्राणों का दान दिया है
और वहीं दूजा बैठा है
घात लगाए
महिलाओं, बच्चों की देहों को बटोरने

बेच सकेगा शायद जिन्हें
किसी सरहद पर
और खरीदेगा
बदले में
हत्याओं की खुली छूट, वह।



एक ओर विधवाएँ
कौरवदल की होंगी
एक ओर द्रौपदी
पुत्रहीना
सुलोचना
मंदोदरी रहेंगी..........।



किंतु आज तो
कृष्ण नहीं हैं
नहीं वाल्मीकि तापस हैं,
मैं वसुंधरा के भविष्य को
गर्भ लिए
बस, काँप रही हूँ
यहीं छिपी हूँ
विस्फोटों की भीषण थर्राहट से विचलित
भीत, जर्जरित देह उठाए।




त्रासद, व्याकुल बालपने की
उत्कंठा औ' नेह-लालसा
कुंठा बनकर
हिटलर या लादेन जनेगी
और रचेगी
ऐसी कोई खोह
कि जिसमें
हथियारों के युद्धक साथी को
लेकर
छिप
जाने कितना रक्त पिएगी।



असुरक्षित बचपन
मत दो
मेरे बच्चों को,
इन्हें फूल भाते हैं
लेने दो
खिलने दो,
रहने दो मिट्टी को उज्ज्वल
पाने दो सुगंध प्राणों को।



जाओ कृष्ण कहीं से लाओ
यहाँ उत्तरा तड़प रही है !!
वाल्मीकि !
सीता के गर्भ
भविष्य
पल रहा ।
अपनी पुस्तक "मैं चल तो दूँ" (२००५) से


3 टिप्‍पणियां:

  1. कविता जी, ब्लागिंग में इतनी श्रेष्ठ रचना भी कभी देखने को मिलेगी सोचा न था। इसे हम कविता कह सकते हैं। मैं तो समझता था कि यहाँ केवल नर्सरी के पौधे ही मिलेंगे। पर यह कविता तो किसी मीठे फलों से लदे वृक्ष का आभास दिला रहा है।

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  2. ''युद्ध ; बच्चे और माँ '' निश्चय ही हमारे समय की श्रेष्ठ कविता मानी जा सकती है. कवयित्री ने कई संश्लिष्ट बिम्बों तथा मिथकों के सहारे युद्ध और आतंकवाद के कई पहलुओं को एक साथ उभारने में सफलता प्राप्त की है.इसमें संदेह नहीं कि आतंक सवेदनाओं के बहते पानी को बर्फ की कटीली धार में तब्दील कर देता है जिस पर कुंठाओं का बुरादा लिपटा रहता है. मानवद्रोह और जगतशत्रुता को जन्म देने वाली कुंठा के मूल को भी इस कविता में रेखांकित किया गया है.लाशों के ढेर और कुत्तों का चित्र जिस जुगुप्सा और क्रोध को उपजाता है ,कमांडो की अपनी शाश्वत भूमिका में उतरी माँ मानो उसका प्रतिकार करती दीखती है.अन्तरराष्ट्रीय कूटनीति और बाजारवादी नृशंसता की भी रचनाकार को साफ़-साफ़ समझ है. सारी हताशा के बावजूद यह प्रीतिकर सच है कि रचनाकार ने मानवीय और लोकतांत्रिक जीवन मूल्यों में अपने विश्वास को नहीं खोया है ---अन्यथा तो अनेक कविताएँ ऐसी परिस्थितियों में गुस्सैल नारेबाजी बनकर रह जाती हैं. यह समझ आज बेहद ज़रूरी है कि फौरी तौर पर भले ही 'आतंक का जवाब आतंक ' की नीति ठीक लगती हो, लेकिन वह संवेदनहीनता का स्थाई समाधान नहीं है. आतंकवाद से तो आतंकवाद ही बहुगुणित होगा. ऐसे में बच्चों के आने वाले कल को संवारने वाला मात्तृसुलभ संकल्प चाहिए. कवयित्री की इस चिंता को हमारे समय की मुख्य चिंता कहा जा सकता है कि...





    ''असुरक्षित बचपन
    मत दो
    मेरे बच्चों को,
    इन्हें फूल भाते हैं
    लेने दो
    खिलने दो,
    रहने दो मिट्टी को उज्ज्वल
    पाने दो सुगंध प्राणों को।''



    कवयित्री डॉ. कविता वाचक्नवी को ऐसी जीवंत कविता के लिए अनेकशः बधाई !!!

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  3. दिनेशराय जी और ऋषभ जी,

    आपकी इतनी आशंसात्मक टिप्पणियों पर क्या कहूँ! प्रशंसा तो विषबेल है अत: इससे प्रसन्न होने की बात नहीं कहूँगी। हाँ, आप की सदाशयता के प्रति आभार अवश्य व्यक्त करना चाहती हूँ।

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