गुरुवार, 12 जून 2008

रंगों का पंचांग (कहानी)




रंगों का पंचांग






फोन के पास रखी घड़ी का समय नहीं बदला मैंने, और न ही अपनी कलाई घड़ी का। ये दोनों अब तक यहाँ साढ़े पाँच घंटे के अंतर पर चल रही हैं। घड़ी में दिखते समय का अर्थ सिर्फ समय नहीं होता, उससे बँध कर चलता जीवन भी होता है। एक साल हो गया पर अब भी भारत की दिनचर्या, भारत के दिवस और रात्रि की जीवनचर्या मुझे अपने साथ चलाती-उठाती हैं।

त्रोंदहाइम, यहाँ राजधानी के बाद सबसे बड़ा नगर है। शिक्षा और शोध का गढ़ भी। एक वर्ष और कुछ दिन हो गए हमें नॉर्वे आए। मार्च का महीना था वह। 5 मार्च। पिछले वर्ष भारत छोड़कर यहाँ आने से पहले के चार महीनों में जूझ-जूझ कर समेटी, या कहूँ - कुछ बेची, कुछ बाँधी अपनी गृहस्थी के व्यस्त दिनों की याद इस माह आती ही रहती है। कभी कहती - "बस, एक महीने बाद हमें साल पूरा हो जाएगा यहाँ।" या "केवल चार दिन रह गए 5 मार्च में", "आज पूरा एक साल हो गया, बस इसी समय चले थे हम" आदि आदि। और इस "इसी समय" का हिसाब फोन के पास रखी 'नॉर्डमेंडे' की घड़ी से चलता। मेरे लिए सुबह से शाम के चार, पाँच, आठ, दस उस समय बजते जब उस घड़ी पर बजते। मार्च पूरा 5 तारीख का मुख और फिर 5 तारीख की पीठ देखते, ओझल होते देखते बीत रहा है।

तापमान माइनस बाईस डिग्री सेल्सियस या माइनस चौबीस डिग्री सेल्सियस के आसपास चल रहा है। बिना ग्रिल-सुरक्षा की, बीच में से खोखली, दो दीवारों वाली मोटे पारदर्शी काँच की निर्मल खिड़कियों से दिखाई देता प्रत्येक दृश्य ऐसा है जैसे दीवार टँका चित्र। `स्नो` तो दिसंबर में ही 'आइस' बन गई थी। एक रात में तीन-चार बार बुलडोज़र आकर दरवाजों के आगे, रास्तों पर पड़ी हिम का बिछौना तहा कर सड़क के पैताने रख जाता और पंद्रह-बीस दिन में ही सड़कों के पैताने सफेद तकियों का ढेर-सा जम जाता - बर्फ के पहाड़ ! बच्चे ठंड और बर्फ के प्रभाव से बचने वाली अत्याधुनिक विशेष वेशभूषा वाले वस्त्र पहने निश्चिंत इसमें खेलते। घंटों बर्फ के पहाड़ में गुफा बनाकर घुसे रहते और उसमें बैठे खेलते। गुफा के द्वार पर 'स्नो-मैन' को विधिवत् टोपी, मफलर पहना कर दरबान-सा खड़ा किया जाता। छोटे बच्चे आमतौर पर `स्नो बोर्ड` पर बैठकर पहाड़ी से नीचे फिसलने के खेल खेलते हैं और बड़े बच्चे 'आइस-स्केटिंग' करते दिखाई देते।

छह महीने दिन और छह महीने रात वाला यह देश अभी घड़ी देखकर ही दिन-रात की चर्या करता है। दिवस-मध्य में आकाश के एक ओर थोड़ा प्रकाश उभरता और कुछ देर बाद ही लुप्त हो जाता। ये सूर्यदेव के दर्शन हैं। चारों ओर सफेदी की चादर चढ़ी रहती। मकानों की ढालू लाल छतें, पेड़, झाड़ियाँ, पौधे, सड़कें, बगीचे, भवन, ........... सब - सब ओर। केवल अंधमहासागर की काले पानी की कँटीली लहरें युवा विधवा के काले केशों की तरह लहरातीं। भारतीय परिदृश्य से जोड़कर मेरे मन में कोई कहता - "एक सफेदी की चादर ने सारे रंगों को निगला"। मार्च महीना आते-आते यह चादर थोड़ी मैली होने लगी, छीजने लगी और पाँवों में धूल दीखने लगी सफेद पहाड़ियों के।

बच्चों ने जिद करके विशेष चैनल देखने की व्यवस्था करवाई थी। यों, मन तो मेरा भी था। यहाँ टी।वी. सरकारी नियंत्रण में है। लाइसेंस लेकर भुगतान करना पड़ता है। अतिरिक्त चैनलों के लिए एक काले-से बडे़ तवे के आकार वाले यंत्र को छत पर लगवाना पड़ता है।

मैंने 'ऊब्स' से लाई डिब्बा-बंद मशरूम को तल कर शाम को कॉफी बनाई। बच्चों को बादाम-टुकड़ा वाली आइस्क्रीम से पहले आधा-आधा लीटर वाले गत्ते के लंबे डिब्बों में बंद दूध अलग-अलग दिया ही था। फ़्रीजर में से और आइस्क्रीम की मशक्कत करते बच्चों को मना करते-करते कॉफीमेकर के स्टैंड से जार उठा कर बड़े मग में कॉफी उढ़ेलनी शुरू कर ही रही थी कि फोन की अलग धुन वाली घंटी दनदना उठी और उसी से समझ लग गई कि या तो भारत में कोई याद कर रहा है या जर्मनी में। जार को तुरंत वापिस मशीन के स्टैंड पर लगा कर मैं लॉबी की ओर लपकी। यहीं पर चोंगा उठाते-उठाते बगल की सुर्ख सीट वाली आरामकुर्सी पर बैठ गई और तुरंत आदतन "हैय" कह दिया। उधर से "शुभ-शुभ बोलो जी, हाय-वाय न करो, अज्ज ते होली दियाँ वधाइयाँ लओ " सुनते ही खुशी, दु:ख, पछतावा, आश्चर्य, सदमा, झटका - जैसा कई कुछ मुझ पर एक साथ गुजर गया। दीदी ! दीदी बोल रही थीं उधर से - "ओए सोणयो ! पछाणया जे, के भुल्ल गए ओ सानूँ? गोरयाँ नाल रैह्-रैह् के ?" (पहचाना या भूल ही गए हो हमें, गोरों के साथ रह-रह कर?) मेरा तो जैसे रक्त जम गया था, या चलना भूल गया था - "हाय, अज्ज होली हैगी ? सानूँ पता ई नइँ...." (आज होली है ? हाय हमें पता भी नहीं) । दीदी बोलीं - "देस्सी त्यौहार तुहाणूँ क्यों याद रैह्ण्गे? हुण तुसी नवाँ साल, क्रिसमस ते ईस्टर वेखो" (देसी त्यौहार तुम लोगों को क्यों याद रहेंगे ? अब तुम नया साल, क्रिसमस और ईस्टर देखो") ।

बच्चे अब तक मेरे पास आ गए थे। कलाई के ऊपर हथेली को अंदर की ओर घुमाते हुए, गर्दन व भवें ऊपर उठाते हुए वे संकेत में पूछ रहे थे कि किसका फोन है ? मैंने तुरंत बिटिया को फोन दे दिया - "लो, मौसी से बात करो।" पंजाबी नहीं बोलते बच्चे। इसीलिए सब इनसे हिंदी में ही बात करते हैं। बेटी बात कर रही थी। मैंने स्पीकर फोन का बटन दबा दिया और स्वयं को जरा सम्हालने की कोशिश की। दीदी ने पूछा "आज होली खेली भइया के साथ?" बेटी ने कहा - "माँ ने हमें बताया ही नहीं कि आज होली है। मौसी! आपने भी पहले क्यों नहीं बताया ?" मैंने फोन ले लिया और पूछती रही - "बुआ जी के घर से सब लोग आए थे ? आँगन की ईंटों पर तो बाल्टियों से उढ़ेले और पिचकारियों से खींचे रंग की बौछारें कितनी सुंदर लग रही होंगी ? आँगन में दीवार-सहारे खड़ी-चारपाइयों की रस्सियाँ कई दिन तक लाल-हरी रहेंगी ?" पता नहीं किस-किस बीती घटना की फिल्म गुजरती जा रही थी मेरी आँखों के परदे के पीछे। अंत में मैंने (शायद पश्चाताप और ग्लानि के भाव से बचने के लिए भी) शिकायत की - "पिछले पार्सल में भी तुम लोगों ने पंचांग वाला कैलेंडर नहीं भेजा। मैं दिसंबर से लगातार माँग रही हूँ। दीदी ने कहा - "बहाने छड्ड। ऐत्थे कलंडर तक्क के होली खेड्दी सी ? अपणी पुन्नों ते मस्या तक दा पता नईं तैनूँ, ते घड़ी वेखदी रैह् साड्डे ऐत्थे दी। जल्दी मैनूँ होली दी वधाई दे ते सारयाँ नूँ साड्डा प्यार कैह् दईं। तेरे जीजा जी सुणण गे, ते मत्था तरेड़नगे के ओणाँ दी साली रंग लाण ताँ आ नईं सक्कदी, होली तक भुल्ल गई ए। रख रही हाँ हुण फोन, ध्यान रक्खीं बच्चयाँ दा ते अपणा" (बहाने छोड़! यहाँ कैलेंडर देख कर होली खेलती थी? अपनी पूनों और मावस तक का पता नहीं तुझे और घड़ी देखती रहती हो हमारे यहाँ की। जल्दी से अब मुझे होली की बधाई बोल और सबको हमारा प्यार कहना। तेरे जीजा जी सुनेंगे तो माथा सिकोड़कर गुस्सा होंगे कि उनकी साली रंग लगाने तो आ नहीं सकी, होली तक भूल गई। रख रही हूँ अब फोन, ध्यान रखना बच्चों का और अपना )।

बस! यह फोन क्या था, पूरा का पूरा वज्रपात था। पिछले वर्ष होली से कुछ दिन पहले ही हम यहाँ पहुँचे थे। वहाँ से बच्चे पिचकारियाँ तक पैक करवा कर यहाँ लाए थे, पर बदले हुए संसार और बदले हुए वातावरण के कौतुक में इतने निमग्न थे कि होली बीत गई । .... और इस बार भी???

कॉफीमेकर का स्विच ऑफ करके मैंने थर्मोस्टेट वाले एयरहीटर के पास आरामकुर्सी खींच कर उस पर धम्म से अपने को गिरा दिया। मेरे होंठ खिंचे हुए थे और साँस तेज चलने लगी थी। सच ही तो बात है, क्या होली कभी कैलेंडर देख कर मनाई जाती थी ? वहाँ तो खुली आँखों, बंद आँखों, सब तरह से होली की चहल-कदमी सुनाई पड़ने लगती थी। सचमुच, यह देश बेगाना है! यहाँ के पेड़-पौधे तक बेगाने हैं! कोई मुझे नहीं बताता कि लो सुनो, सूँघो और देखो, ... फिर बताओ कि कौन आ रहा है। और वहाँ ? वहाँ घर पर तो मेरा अम्बड़ा, मेरा जामुन, शहतूत सब बौराए झूमने लगते थे। और तो और, आँगन का नीम तक मिठा जाता था, छोटी-छोटी मधुमिक्खयाँ उसे घेर कर चूमने लगती थीं, सफेद बौर से लद जाता था नीम। कच्चे, हरे, छोटे-छोटे शहतूत झूला झूलते। कोयल तो इतनी बावरी हो जाती अमराई में कि पंचम गाते न अघाती। चीख-चीख कर, मतवाली हो इतना-इतना कूकती कि कई बार खीझ हो उठती थी। टेसू के तन-बदन में अंगारे दहकने को होते, उसकी डालियों की कलाइयाँ लाल चूड़ियों से भर जातीं। पीपल पर लालिमा लिए हरे पारदर्शी पत्ते छूने पर भी शरमा जाते। अशोक की एक-से-एक अटी-सटी टहनियों के जमावड़े में कुछ नन्हीं शाखें छिप-छिपकर बातें सुनने रातों-रात प्रकट हो जातीं। गन्ने, "फिर मिलेंगे" कहकर, जा चुके होते और सरसों के लचीले बूटे सारी देह पर अलंकार धारे मेरे खेतों में स्वर्णिम आभा बिखेरते। कनकों से भरे खेत-खलिहानों में मानो स्वर्ण के अंबार भर जाते, ढेरों-ढेर गेहूँ ! ढेरों-ढेर सोना! इक्का-दुक्का बादाम के पेड़ नंगे बदन पर हरे-धुले वस्त्र धारे अपनी छत तान लेने की वृत्ति से बाज नहीं आते थे।

शहर जाने पर ताँगा रुकवा, कड़े के गिलास में मलाई मारकर लस्सी पीने का जगता लोभ तब किसी की नहीं सुनता था। सिर पर खड़ी परीक्षाएँ भला क्या चीज थीं - फाग मचने पर? बचपन में इन दिनों हम दंगल देखने जाया करते थे। लड़कियों की वहाँ जाने की मनाही को नकारने के कई गुर आजमाए जाते। लौटते हुए हर किसी की जुबान पर एक ही धुन होती - "मेरा रंग दे बसंती चोला, माए, रंग दे, ....." । थोड़ा बड़े होने पर `साहित्य-दर्पण` पढ़ाते, खाँसते- खूँसते गुरुजी ने किसी दिन - "नवपलाश पलाशवनं पुर: , मृदुलतान्तलतान्त मनोहरम् ......" जो उद्धृत किया तो कई दिन तक पलाशवन की मृदुल आग की बात करती बड़ी लड़कियों के हँसने का अर्थ ही समझ नहीं आता था। पर बड़े होने पर हम सहेलियाँ हरियाई लताओं को सींचने वाली शकुंतला का बिंब निर्माण, फाग की अमराई में कच्ची अमियों के फूटने की प्रतीक्षा में मुख ऊपर कर ताकती किसी सुंदरी सखी को देख कर, करतीं। इधर सड़कों के किनारे कच्ची पटरी पर खरबूजे और तरबूजों वाले अपनी-अपनी ढेरियों के पास रात गुजारना शुरू कर रहे होते। कुम्हार के यहाँ से खूब धुआँ उठता, और बाहर वह घुटनों तक अपनी टाँगे साने मिट्टी को रौंदता मिल जाता या चाक पर कुहनियों तक बाँहें चढ़ाए। उसकी लाठी लुकाने की शैतानी भी हमारी दिनचर्या का हिस्सा थी। जलजीरे वालों के लाल कपड़े से ढँके घड़ों वाले ठेले, सड़कों के किनारे लग जाते। बन्टे वाली सोडा बोतल का जमाना आया तो इन दिनों छिप-छिप कर उसकी आजमाईश भी शुरू कर ली जाती। यमुना में पानी बढ़ जाता था। क्यों बढ़ता था, यह बड़े होने पर ही पता लगा। बचपन में तो हम समझते थे कि होली या वैसाखी पर खूब नहाने के लिए अधिक पानी की आवश्यकता पड़ती है, इसलिए बढ़ता होगा। तब नहीं पता था कि पहाड़ की सफेद बर्फ, ठंडी बर्फ, जमी बर्फ, सूरज के प्यार भरे स्पर्श पा खुशी के मारे रो पड़ी होगी।

कटाइयाँ शुरू हो जातीं। तब थ्रेशर नहीं थे। टीले के टीले गेहूँ खेतों में खड़ा हो जाता। सिर, नाक, मुँह पर कपड़ा बाँधे औरतें छाज लेकर दोनों बाहें ऊपर उठाए गेहूँ के दानों की चादर जमीन से सिर तक तान देतीं। सोने के मोती गिरते दिखाई पड़ते। सब ओर रंग ही रंग, खुशी ही खुशी, उत्साह ही उत्साह, काम ही काम, मस्ती ही मस्ती। बैलों के गलों की घंटियों में रंगीन धागे नए सिर से पिरो कर पहनाए जाते। सफेद बैलों की देह पर कई लोग गुलाबी हथेलियों की छाप लगा देते। कितना मनोहर लगता था। हम लोग तो छोटे हो गए कपड़ों को होली की तैयारी में बाहर निकालने की गुहार गाए रहते ( और होली भी तो दस दिन, पंद्रह दिन, पहले ही से नाचना शुरू हो जाती।

हर दुकान वाला अपनी दुकान के चबूतरे पर थालियों में नुकीली रंगीन ढेरियाँ सजा कर बैठ जाता। लोहे के पत्तरे वाला गोल गहरा चम्मच एक ओर पड़ा होता। अबीर की टुकिड़याँ चाँदी-सी चमकतीं। छोटी से लेकर बड़ी तक अनेक चटक रंगों की पिचकारियाँ दुकान में ऊपर टँगी होतीं। शादी के बाद, बच्चों ने भी कमोबेश ऐसा ही फागुन देखा। ये नहीं देख पाए तो केवल खेत और बैल। दीदी ब्याह कर मथुरा गईं तो हमारे लिए कौतूहल बरपा गया, जब उन्होंने आकर बताया कि किस तरह उनके ननदोई को पहली होली पर मथुरा में इनकी सखियों-साथिनों ने लाठियों से घेर कर पर्व मनाया था।

मैं ब्याह कर बंबई आई। जब तक बच्चे छोटे थे, तब तक होली में भीगने की मनाही रही कि दूध पीने वाले बच्चे को ठंड लग जाएगी। बच्चे बड़े हो गए तो बाल्टी भर-भर कर रंग बनाकर उन्हें देती रहती। वे 'पार्किंग एरिया' के आगे आपस ही में खेल लेते, हम फोटोग्राफी कर किलकते। बंबई में रंगपंचमी को रंग खेलने का जोर होता है। वहाँ पास-पड़ोस के साथ मिलकर खेलने का अवसर न हमें मिला, न बच्चों को। एक बार सामने की बाल्कनी वाले फ्लैट में एक सिंधी परिवार रहने आया। उन्हें होली वाले दिन रंग में पुते देखा था तो अपने अकेले पड़ जाने के मलाल को थोड़ी राहत मिली थी, पर जब बच्चों ने जोर से आवाज देकर सामने उंगली करके दिखाया तो बड़ी भाभी के ब्लाउज़ में आगे की ओर शराब की बोतल उढ़ेलते देवर और सारे हँसते रिश्तेदारों को देख घिन भर आई थी।

आज होली से जुड़ी कोई अच्छी-बुरी घटना नहीं घट रही मेरे आस-पास। यहाँ के पेड़-पौधे, लोग, वातावरण ......... कोई भी उन होलियों का साक्षी नहीं है। ये तो उनकी नकल भरना चाहें, तो भी नहीं भर सकते। मैं याद करूँ तो क्या-क्या ? और भूलँ तो क्या-क्या ?

बच्चों को क्या कहकर, कैसे, और कितने दिन, कितने वर्ष बहलाना पड़ेगा- कुछ पता नहीं। मेरी होलियों की यादें बहलाने के लिए और उस बहाने बच्चों को बहलाने के लिए, ठीक यही रहेगा कि आज फिर से वे सारे दृश्य शब्द-शब्द कर इनसे बाँटे जाएँ, जो वर्षों तक हमने जिए हैं। और हाँ, जाकर 'क्षॉपमैन्सगाटे' में देखते हैं, कहीं विदेशी पिचकारियाँ और रंग मिल जाएँ ......... तो। यहाँ नॉर्वे में भारत से साढ़े पाँच घंटे बाद होली बीतेगी। अभी भी समय है !!..............

3 टिप्‍पणियां:

  1. बढिया कहानी- विदेश में बैठे भारतीय की वेदना झलकती है।

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  2. कविता जी, आपकी कहानी पढ़ी, एक सच्ची कथा को आपने शब्द दिया है। बधाई स्वीकार करें। कथा-व्यथा को भी अपनी कहानी भेजे।
    http://kathavyatha.blogspot.com/
    शम्भु चौधरी

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