शनिवार, 23 नवंबर 2013

बना रहे प्रेम

 बना रहे प्रेम  :  कविता वाचक्नवी


मैंने कभी प्रेम जैसे विषय पर सार्वजनिक रूप में व अभिधा में लिखा नहीं है। किन्तु कल एक लेखक मित्र का एक वाक्य पढ़ने में आया कि प्रेम क्षणिक आवेग होता है।  मेरे विचार ठीक इस से भिन्न हैं। प्रेम को क्षणिक कहने की वह बात पढ़कर कुछ विचार मन में आए। 

लोग प्रेम को क्षणिक आवेग कहते हैं। मेरा मानना है कि प्रेम में पड़े दो लोगों के कारणों के चलते प्रेम को ही क्षणिक कह देना उचित नहीं। यदि प्रेम अस्थायी व क्षणिक है तो इसका कारण प्रेम करने वालों के अपने गुण-दोष हैं।

वह स्वयं में क्षणिक आवेग होने के कारण नहीं मरता, अपितु कोई हमें प्यार करता रहे इसके योग्य बने रहना पड़ता है। ज़रा-सा योग्यता से चूके तो कर्त्तव्य समझ कर कोई प्यार नहीं कर सकता।

जैसे किसी को भी किसी के भी भोलेपन पर बरबस प्यार आता है.... मान लें हमारे उस भोलेपन पर रीझ कोई हमें प्रेम करने लग जाए, किन्तु निकट आने पर पाए कि हमारा वह भोलापन तो दिखावा मात्र था और वस्तुतः हम भोलेपन से एकदम उलट कर्कश और क्रूर हैं, तो प्यार के अयोग्य तो हो ही जाएँगे। किस बूते तब अपने को प्यार करने की योग्यता सिद्ध कर सकते हैं ? .... और किस बूते उस विरत हुए/हुई व्यक्ति को दोष दे सकते हैं ? योग्यता हमारी हमें ही प्रमाणित करनी होती है कि हमारे गुणों, व्यवहार आदि पर कोई रीझ जाए और रीझा रहे। 

रीझ जाना कठिन नहीं, वह क्षणिक आवेग में होता है, किन्तु रीझे रहना कठिन है उसके लिए स्थायी गुण चाहिए होते हैं। योग्यता यहीं से तय होती हैं।

प्रेम के क्षणिक होने का दूसरा पक्ष भी है, वह प्रेम में पड़े किसी भी एक साथी के छली होने से जुड़ा है जो किसी भी भोले-भाले व्यक्ति को प्रेम के नाम पर भ्रम में रखता है और अपना मन्तव्य/स्वार्थ सिद्ध कर पलायन कर जाता है। ऐसे में भी दोषी व्यक्ति ही है। 

प्रत्येक प्रेम सम्बन्ध में जब तक दोनों पक्ष निश्छल, परस्पर प्रतिबद्ध, ईमानदार व खरे न हों तब तक बात बनती नहीं और निरर्थक ही दोष प्रेम के अस्तित्व को क्षणिक कहकर प्रेम को दे दिया जाता है।

प्रेम को केवल दैहिक आकर्षण या देहाधृत मान कर चलेंगे तो क्षणिकता का आरोप उस पर लगाना पड़ेगा क्योंकि देह तो पल पल बदलती है और इसीलिए उस से जुड़ा आकर्षण विकर्षण भी।  

इसी बहाने प्रेम विषयक मेरी एक कविता पढ़ें, इसका शीर्षक ही है 'प्रेम' और स्त्री-पुरुष के प्रेम पर ही केन्द्रित भी है । इस लिंक को क्लिक कर उसे पढ़ा जा सकता है। 



रविवार, 17 नवंबर 2013

साहित्य का अभिशप्त माह : चली गईं डोरिस भी

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आज सुबह ही लिखा था -  



"सर्व श्री रावूरि भारद्वाज, राजेन्द्र यादव, परमानन्द श्रीवास्तव, विजयदान देथा, के. पी. सक्सेना, हरिकृष्ण देवसरे जैसे साहित्यकारों के गत कुछ ही दिनों में एकसाथ परलोक गामी होने के क्रम में आज एक नाम और जुड़ गया- 'जूठन' जैसी कृति के रचनाकार ओम प्रकाश वाल्मीकी का।



कुछ वर्ष पूर्व जैसे एकसाथ कई हास्यव्यंग्य के रचनाकार अल्पावधि में दिवंगत हुए थे, साहित्य के लिए यह वैसा ही अभिशप्त माह बन गया है। एक साथ दिवंगत आत्माओं को शान्ति लिखते- लिखते व श्रद्धांजलि जैसा शब्द टाईप करते हाथ काँप-काँप जाते हैं। " 

पर इस सब के बावजूद ...... ओह्ह्ह्ह्ह एक और दु:खद समाचार !


नहीं रहीं नोबेल विजेता उपन्यासकार : डोरिस लेस्सिंग 
- कविता वाचक्नवी


मेरी अत्यंत प्रिय ब्रिटिश लेखिका व नोबेल से सम्मानित डोरिस लेस्सिंग नहीं रहीं। अभी अभी उनका देहान्त हो गया। जिस वर्ष उन्हें नोबेल मिला था तब मैंने विकीपीडिया पर उनके विषय में हिन्दीलेख तैयार किया था जो आज भी यथावत् वहाँ है और साथ ही उन्हें (डोरिस को) हिन्दी में लिखकर सीधे बधाई भेजी थी जिसे उन्होंने हिन्दी में प्राप्त / हिन्दी समाज से प्राप्त एकमात्र बधाई-सन्देश के रूप में लेते हुए उसे व्यक्तिगत मान दिया था और इस तरह उन से सीधा परिचय हुआ था। यहीं लन्दन में ही रहती थीं। उनका न रहना व्यक्तिगत रूप से बड़े आघात जैसा है। किसी जीते जागते नोबेल विजेता से व्यक्तिगत परिचय कैसा गर्व देता है यह बताया नहीं जा सकता। आज वह स्थिति बदल गयी....। नोबेल की घोषणा होते ही प्रेस और मीडिया की भीड़ जब उनके यहाँ पहुँची तो उनके सामने वे शाक-फल खरीद कर लौटी थीं। मीडिया से बातचीत उन्होने अपने घर के मुख्यद्वार की चौखट पर बैठ कर की। वह वीडियो व चित्र संसार भर में खूब चर्चा में आए। न्यूयॉर्क टाईम्स की साईट पर आज भी उन्हें देखा जा सकता है। 

डोरिस के दो वक्तव्य -

“I’ve got the feeling that the sex war is not the most important war going on, nor is it the most vital problem in our lives.”

और १९९४ में भी उनका वक्तव्य था - “Things have changed for white, middle-class women,” और कहा, “but nothing has changed outside this group.”


उन्हें नोबेल पुरस्कार घोषणा के तुरंत बाद सूचना देने पत्रकार उनके घर पहुँचे तो यह दृश्य हुआ


डोरिस लेसिंग (२२ अक्तूबर १९१९-१७ नवंबर, २०१३) २००७ में साहित्य का नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाली ब्रितानी लेखिका थीं। उन्हें यह पुरस्कार अपने पाँच दशक लंबे रचनाकाल के लिए दिया गया। महिला, राजनीति और अफ़्रीका में बिताए यौवनकाल उनके लेखन के प्रमुख विषय रहे। १९०१ से प्रारंभ इस पुरस्कार को प्राप्त करने वाली लेसिंग ११वीं महिला रचनाकार थीं। ब्रिटिश कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्य रह चुकी डोरिस ने हंगरी पर रूसी आक्रमण से व कार्यप्रणाली व नीतियों से क्षुब्ध होकर १९५४ में पार्टी ही छोड़ दी थी। अपने आरम्भिक दिनों में उन्होंने डिकेंस, स्कॉट,स्टीवेन्सन, किपलिंग, डी.एच. लोरेन्स, स्टेन्थॉल, टॉल्स्टॉय, दोस्तोवस्की आदि को जी भ­र पढ़ा। अपने लेखकीय व्यक्तित्व में माँ की सुनाई परीकथाओं की बड़ी भूमिका को डोरिस रेखांकित करती थीं। १७ नवम्बर २०१३ रविवार को तड़के अपने आवास पर उनका निधन हो गया। इनके निधन से 3 सप्ताह पहले ही लंबी बीमारी से जूझ रहे इनके पुत्र का निधन हो गया था।

जीवन परिचय

ईरान में जन्मीं डोरिस के माता-पिता दोनों ब्रिटिश थे। पिता पर्शिया के इम्पीरियल बैंक में क्लर्क व माँ एक नर्स थीं। १९२५ में परिवार (आज के) जिम्बाब्वे में स्थानांतरित हो गया। जिन सपनों को लेकर वे यहाँ आए थे- वे चकनाचूर हो गए। लेसिंग के अनुसार उनका बचपन सुख व दु:ख की छाया था,जिसमें सुख कम व पीड़ा का अंश ही अधिक रहा। अपने भाई हैरी के साथ प्राकृतिक जगत के रहस्यों को समझने-बूझने में लगी लेसिंग को अनुशासन, घरेलू साफ़-सफ़ाई व घरेलू तथा सामान्य लड़की बनाने आदि के प्रति माँ बहुत सतर्क व कठोर रहीं। १३ वर्ष की आयु में लेसिंग की विधिवत शिक्षा का अंत हो गया । किंतु ये अन्य दक्षिण अफ़्रीकी लेखिकाओं की भाँति न रहकर शिक्षा से वहीं विरत नहीं हो गईं अपितु स्वयं ही शिक्षार्जन की दिशा में बढ़ती रहीं । अभी पिछले दिनों दिए गए इनके एक वक्तव्य के अनुसार- "दु:खी बचपन 'फ़िक्शन"(लेखन) का जनक होता है, मेरे विचार से यह बात सोलह आने सही है"। १९ वर्ष की आयु में १९३७ में सैलिस्बरी आने पर टेलीफ़ोन ऑपरेटर के रूप में भी इन्होंने कार्य किया। यहीं इनके दो विवाह हुए। पहला १९३९ में फ़्रैन्क विज़डम से, जिससे इन्हें दो बच्चे हुए। किन्तु यह सम्बंध चार वर्ष ही रहा और १९४३ में तलाक हो गया। दूसरा विवाह एक जर्मन राजनैतिक कार्यकर्ता गॉटफ्रीड लेसिंग से किया जिसकी परिणति भी १९४९ में तलाक के रूप में हुई। इस विवाह से हुए एकमात्र बेटे को लेकर ये ब्रिटेन आ गई थीं।


साहित्यिक जीवन

डोरिस लेसिंग के साहित्यिक जीवन का प्रारंभ १९४९ से माना जा सकता है जब वे दूसरे विवाह से हुए बेटे के साथ १९४९ में लंदन पहुँचीं। उनका पहला उपन्यास "द सिंगिंग ग्रास" इसी वर्ष प्रकाशित हुआ और यहीं से विधिवत इनके लेखकीय जीवन की शुरुआत हुई। इनका साहित्य अधिकांश अपने अफ़्रीकी जीवनानुभ­वों से जुड़ा है, जिसमें बचपन की स्मृतियाँ, राजनीति से जुड़ाव व समाज-संलग्नता ही अधिकांश है। सांस्कृतिक टकराव, जड़ों में जमा अन्याय, वर्णभेद, आत्मद्रोह, आत्मद्वन्द्व की स्थितियाँ इनके साहित्य में बहुतायत से हैं। दक्षिण अफ़्रीका में श्वेत उपनिवेशवाद के प्रति असहमत लेखन के कारण १९५६ में इन्हें वर्जित लेखक तक घोषित कर दिया गया। उपन्यास, कहानी, कविता, नाटक, एकांकी, आदि विधाओं के अतिरिक्त भी इन्होंने लिखा था।

पुरस्कार सम्मान

"अंडर माई स्किन:वोल्यूम वन ऑफ़ माई आटोबायोग्राफ़ी टू१९४९" (१९९५ में प्रकाशित) के लिए इन्हें 'जेम्स टैईट ब्लैक प्राईज़' से सम्मानित किया गया। १९९५ में हार्वर्ड विश्वविद्यालय ने इन्हें ऒनरेरी डिग्री प्रदान की। इसी वर्ष ये ४० वर्ष बाद पुन: दक्षिणी अफ़्रीका गईं और बेटी व नाती-पोतों से मिलीं। ४० वर्ष पूर्व जिस लेखन के लिए इन्हें प्रतिबन्धित व निष्कासित किया गया था, उसी लेखन के कारण इस बार इनका वहाँ गर्मजोशी से स्वागत-सत्कार किया गया । १९५४ से २००५ तक देश-विदेश में अपने साहित्य व लेखन पर मिले अनेक प्रतिष्ठित सम्मानों व पुरस्कारों की शृंखला में २००७ का 'नोबेल' साहित्य पुरस्कार इस वर्ष इन्हें मिला। उनका अन्तिम उपन्यास - " द क्लेफ्ट" था जिसका कथानक समुद्र के किनारे रहने वाले स्त्री-समुदाय ‘क्लेफ़्ट’ पर केन्द्रित है। यह उपन्यास एक ऐसे स्त्री-समाज की कथा है जो पुरुष-शून्य है। 


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