सोमवार, 22 जुलाई 2013

अविश्वसनीय अनुभव का एक दिन

अविश्वसनीय अनुभव का एक दिन /  कविता वाचक्नवी


कल मैं लन्दन में बसे हुए एक अद्भुत परिवार से मिली। बड़े भाई 82 वर्ष के हैं और छोटे भाई उनसे कुछ वर्ष कम, दोनों की बहुपठ पत्नियाँ हैं, दोनों भाई कल्पनातीत ढंग से एक दूसरे पर न्यौछावर रहते हैं व दोनों भाई व परिवार एक साथ रहते हैं, दोनों के तीन बच्चे हैं, परंतु कौन किसकी संतान है यह पता किसी तरह कदापि नहीं चल पाता क्योंकि दोनों ही भाई व दोनों की पत्नियाँ उन बच्चों को 'मेरा बेटा', 'मेरी बेटी' कहते हैं। प्रतिदिन हर बार छोटे भाई सबसे पहले अपने हाथ से परस कर अपने बड़े भाई को भोजन खिलाते हैं और तब बड़ी भाभी खाने बैठती हैं, जब वे खा चुकती हैं तब छोटा भाई व भाभी खाने बैठते हैं। 


मैं इस दुर्लभ व अविश्वसनीय परिवार के साथ कल लगभग 3 घण्टे रही और बार-बार धन्यता अनुभव कर मेरी आँखें आह्लाद से भीगती रहीं। बड़े भाई के बड़प्पन व विशिष्टता को सराहें तो हर बार कहते हैं कि असल में मैं कुछ नहीं हूँ सब कुछ इस छोटे के कारण समझा जाता हूँ और छोटे भाई के 'लक्ष्मणत्व' पर एक शब्द भी कहें तो वे कहते कि मैं तो जड़मति सेवक हूँ और बड़े भाई के कारण मुझे 'क्रेडिट' मिलता है व विशेष समझ लिया जाता है। 


परिवार सदा से एक साथ रहता आया है और एक साथ रहते हैं। जाने कितनी संस्थाओं के पोषण का दायित्व उन्होंने ले रखा है, एक भारतीय भाषा की पत्रिका का सम्पादन/ संचालन आदि सब भी बड़े भाई करते हैं। निर्धनों के लिए एक कैंसर अस्पताल भारत में स्थापित किया है। उनका निजी पुस्तकालय है, जिसकी एक-एक पुस्तक पर सफ़ेद आर्ट पेपर से उन्होने अपने हाथ से जिल्द चढ़ाई हुई हैं व अपने हाथ से उस पर पुस्तक का नाम आदि लिखा करीने से सजा है, पूरा पुस्तकालय सफ़ेद रंग के सौम्य अनुशासन में मानो सरस्वती का स्वरूप धारे है। पुस्तकालय में संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी, गुजराती व कुछ अन्य भाषाओं की पुस्तकें भरी पड़ी हैं। दोनों पूरी तरह सक्रिय व सचेत हैं और दोनों के मुखमण्डल पर एक ऐसी दिव्य आभा, सौम्यता व शिष्टता है कि उसे बखाना नहीं जा सकता। दोनों की पत्नियाँ अविश्वसनीय ढंग से एक दूसरे पर मरने मिटने को तैयार रहने वाली बहनों से भी कई गुणा बढ़कर हैं। हम सब लोगों को खाना आदि देकर छोटे भाई रसोई में बर्तन साफ करते रहे जब तक बड़े भाई खा नहीं चुके, बड़ी भाभी हमें परसती रहीं और छोटी भाभी रसोई में पकाने आदि का काम करती रहीं। हम सब के खा चुकने के बाद बड़ी भाभी जब खाने बैठीं तो तब छोटी भाभी रसोई साफ कर बर्तन साफ करने लगीं 


...... क्या क्या कहा जाए ..... जीवन में ऐसा परिवार, ऐसा प्रेम, ऐसा बड़प्पन म्यूजियम में संरक्षित कर आश्चर्य से देखी जाने की वस्तु जैसा है... रिश्तों का ऐसा दुर्लभ रूप कि शब्द मेरे किसी काम नहीं आ रहे हैं कि उसे बखान सकूँ.... बस हृदय को आकण्ठ रसानुभूति से लबालब पा रही हूँ । सौजन्यता के ऐसे मूर्तिमान रूप कि जो देखा अनुभव किया है, ये शब्द उसका हजारवाँ अंश भी नहीं हैं। कितने गंभीर विषयों पर कितनी बातें उनसे हुईं उसका लेखा जोखा भी अलग ही चीज है। संसार में मनुष्य ऐसे प्रेम और ऐसे रिश्ते आचरण में जीने लगें तो संसार स्वर्ग बन जाए। मुझे उनके यहाँ वास्तव में स्वर्गिक सुख की अनुभूति हुई। और वे अपनी बेटी से भी कम आयु की मुझ तक को दीदी कह कर संबोधित करते और विदाई के समय 'बहन का भाइयों पर आशीष बना रहे' जैसे शब्द का कर उन क्षणों को दुर्लभ बना रहे थे... ! जिन पारिवारिक व जीवन मूल्यों को पुस्तकों में पढ़ा-पढ़ाया जाता है, यह परिवार उन मूल्यों को सुखपूर्वक पूरी तरह जी रहा है ! क्या कहूँ ..... कल के उस अनुभव की कोई तुलना नहीं .... बस दुर्लभ !!!


गुरुवार, 4 जुलाई 2013

लन्दन : राजहंसों का जोड़ा, झील व हम

लन्दन : राजहंसों का जोड़ा, झील व हम / कविता वाचक्नवी

अपने जीवन व घर में गाय, मोर, तोता, खरगोश, मछलियाँ आदि पालने व उनका स्नेह सान्निध्य लेने के जाने कितने दुर्लभ संस्मरण हैं। इन प्राणियों में गाय, कुत्ता आदि जीव ऐसे हैं कि कइयों ने उन्हें पाला होगा और उनके संस्मरण होंगे। कुछ कम अन्य लोगों के तोता, मछलियों आदि के पालने की संस्मरण भी होंगे किन्तु बहुत कम लोगों के खरगोशों के शावक-जोड़े के संस्मरण होंगे और किन्हीं बेहद विरले लोगों के मोर के साथ। कुछ दिन पूर्व मैंने अपने पालतू मोर के संस्मरण लिखे थे। 
फेसबुक पर यहाँ -
https://www.facebook.com/kvachaknavee/posts/10151614001859523

व 'वागर्थ' पर "जब दुल्हन आने पर घर में नाचे मोर" के रूप में देखे जा सकते हैं। (यहाँ क्लिक कर देखें)

"मंजरी और हंस : लन्दन आज"  (यहाँ क्लिक कर देखें)
में व अन्य भी अलग-अलग संस्मरणों के रूप में कई बार अपने घर से सटी झील और अपार शान्त प्राकृतिक सुषमा वाले वातावरण का उल्लेख करते हुए मैंने राजहंसों के जोड़ों व बतखों आदि के साथ अपने दैनिक नैकट्य का उल्लेख किया है, जिनकी जाने कई सौ रूपों में विविध छवियाँ मैंने अपने कैमरे में सुरक्षित की हैं और नेट पर भी डाली हैं। 

इतना ही नहीं अपनी पालतू 'मौलि' तथा बगीचे में दिन-रात आ कर घूमने वाली लोमड़ी (कई बार दल-बल सहित भी) की छवियाँ और वीडियो भी बनाए - यहाँ क्लिक कर देखें 


"लन्दन का हिमपात व मेरा कैमरा" तथा उसमें दिए लिंक्स व चित्रों में जिस झील के श्वेत सौन्दर्य व पक्षियों आदि की रूपरेखा सहेजी है, उस झील में रहने वाली बतखों व हंसों की ढेर सारी छवियाँ हृदय पटल पर भी अंकित हैं - यहाँ । 

सबसे विशेष बात यह है कि इस झील में दो-तीन प्रकार के हंसों के जोड़े हैं, जिनमें से सबसे विशेष हैं राजहंसों के दो जोड़े; जिनके विषय में गत दिनों मैंने लिखा था कि हंसिनी नवप्रसूता है और अपने नन्हें बाल-हंसों के साथ जोड़ा पानी में घूमता है। दो वर्ष पहले हंसिनी के आसन्न-प्रसवा और फिर बाल-हंसों के साथ जोड़े के कई चित्र लिए थे किन्तु वे सब पुराने चित्र बहुत ढूँढने पर भी अभी खोज नहीं पाई क्योंकि वे सब पुराने मोबाईल कैमरा में थे। 

भारत में मैंने हंस देखना तो क्या, उसका उल्लेख-मात्र पढ़ा है, वह भी संस्कृत साहित्य में। नल-दमयन्ती कथा में राज-हंस की कुछ विशद भूमिका से परिचय भी वहीं हुआ था। किन्तु जीवन में कभी राजहंस मेरे नियमित साथी बन जाएँगे, इसकी कल्पना व अनुमान भी असंभव था। किन्तु इधर वर्ष-भर से राज-हंसों का यह जोड़ा मेरा प्रतिदिन का साथी है। मैं जैसे ही प्रतिदिन झील पर जा कर इनकी प्रतीक्षा में बैठती हूँ, यह जोड़ा मुझे देखते ही जाने कैसे बहुत दूर से पहचान कर तैरते-तैरते मेरे पास आ बैठता है। 


बड़ी बहन सरीखी शन्नो दी' लंदन में लगभग 42 वर्ष से रह रही हैं और इस बीच उन्होंने भी जीवन में जाने कई सौ राजहंस यहाँ देखे हैं; किन्तु उनके लिए भी मेरे द्वारा बार-बार अपने वाले इन राजहंसों का यह उल्लेख अविश्वसनीय था। तो पहली बार मेरे यहाँ उनके आने का एक बड़ा उद्देश्य इन दृश्यों व अनुभूतियों को साक्षात् करना भी था।परसों ( 2 जुलाई को प्रातः वे यहाँ आईं तो उन्हें साथ लेकर लगभग अढ़ाई घंटे मैंने उन्हें निसर्ग के वे दृश्य भी दिखाए जिनके सान्निध्य में मेरा दिन-रात व्यतीत होता है।


प्रारम्भ में झील पर केवल ढेर सारी अलग-अलग नस्ल की बतख़ें ही थीं, किन्तु जब हम थोड़ा घूम कर फिर से झील के निकट आए तो बहुत दूरी पर झील के मध्य भाग में राज-हंसों का जोड़ा भी तैरता दीख गया। तब तो शन्नो दी' के आश्चर्य का पारावर न रहा, जब वह जोड़ा मुझे देखते ही मेरे संकेत पर तुरन्त ही हमारी ओर बढ़ने लगा और एकदम से किनारे पर हमारे हाथ से छू लेने की पहुँच में एकदम आ कर हमसे सट गया। शन्नो दी' तो एकदम किलक उठीं कि उन्होंने जीवन में पहली बार इतनी निकट से हंसों को देखा है। मैंने झटपट उनके कई चित्र लिए। इस बीच वे भी अपने कैमरे में मुझे व निसर्ग को कैद करती रहीं। उस पूरी परिक्रमा और वातावरण के कई सारे चित्र सहेजे गए । 


फिर वहाँ से हम लोग घर आए तो हमारी 'मौलि' भी शन्नो दी' के स्वागत के लिए तत्पर थी। हमने अपने बगीचे में गुलाबों की तीखी मीठी सुगन्ध, स्ट्राबरी, चेरी व पुदीने आदि के बूटों में भी देर तक सुखद समय बिताया। वह पूरा दिन हम लोगों का बतियाते और हँसते कैसे बीत गया पता ही न चला। शन्नो दी' को यों देर तक हँसते मुसकाते देखना अच्छा लगा। और हाँ, वे आते समय अपने साथ गुलाबजामुन ले कर आई थीं.... जिनकी मिठास ने उस दिन की मिठास को और बढ़ा दिया। अस्तु ! वह अविस्मरणीय दिन जाने कितने बरसों तक मन पर अंकित रहेगा। 


झील पर लिए चित्र यहाँ संकलित हैं। ये कई अर्थों में दुर्लभ हैं, अविश्वसनीय व संग्रहणीय हैं। इन दृश्यों को देखने से बार-बार जीवनीशक्ति मिलती है। और लोग भी इन दुर्लभ क्षणों का आनंद ले सकें इसलिए वे सब चित्र यहाँ सहेज दिए हैं। 


(©): सभी चित्रों का सर्वाधिकार (कॉपीराईट) सुरक्षित है। कृपया कदापि उसका उल्लंघन न करें।