गुरुवार, 28 फ़रवरी 2013

महिला होना 'लाभ'-कारी ?

महिला होना 'लाभ'-कारी ?  :  कविता वाचक्नवी





एक लेखक मित्र (जिनका नाम ऐसा है कि यदि अंत में A जोड़ दिया जाए तो वह स्त्री नाम हो जाता है, जैसे Neel से Neela आदि ) सदा अपने असली नाम से ही लिखते रहे हैं और अपने नाम को स्त्रीवाची नहीं बनाया। इस बात का उल्लेख करते हुए उन्होंने  लिखा -
 " मेरे कुछ मित्र कह सकते हैं - मैंने गलती की थी. क्यों? यह आप समझ सकते हैं."

अभिप्राय यह कि यदि स्त्री के नाम से लिखा तो अधिक लाभ होता; पुरुष के नाम से लिख कर गलती की गई। 


जिन्हें यह गलती लगती है, उन्हें तो जन्म भी स्त्री के रूप में लेना चाहिए। यह क्या बात हुई कि पुरुष के रूप में जन्म लेना तो अपनी जन्मजात विशेषता लगे और फिर महिलाओं की सफलता को उनके स्त्री होने के लाभ के रूप में लिया जाए। 


ऐसा कहने, मानने वाले या इन बातों पर हँस कर सहमत होने वाले लोग पुरुष की सफलता को तो पुरुष की योग्यता का परिणाम समझते हैं किन्तु महिलाओं की रत्ती-भर-सी सफलता भी उन्हें हजम नहीं होती और वे उसे उनकी योग्यता का परिणाम नहीं अपितु उनके स्त्री होने का परिणाम समझते हैं। यदि ऐसा ही होता तो ऐसा मानने वाले पुरुषों के घर की स्त्रियों को सारे ऊँचे ओहदे क्यों नहीं मिल जाते, वे क्यों सभी सर्वश्रेष्ठ पदों पर आसीन नहीं कर दी जातीं और क्यों अपने विषय की विशेषज्ञता से इतर क्षेत्रों की सर्वेसर्वा नहीं बना दी जातीं? 


सीधा-सा अर्थ है कि 'विशेषज्ञता'  महत्वपूर्ण होती है, भले ही थोड़ी-सी भी क्यों न हो; और महिलाएँ यदि कुछ क्षेत्रों में अपना स्थान बना पाई हैं, या बना पाती हैं तो उसी बूते पर व बिना किसी पारिवारिक सामाजिक सहयोग के ;  घरों में रोटियाँ बेलते हुए, बच्चे पालते हुए और पतियों का अहम् झेलते हुए, सामाजिक विसंगतियों से दो-चार होते हुए और बिना कोई सेवा लिए। 


अपवाद हर जगह होते हैं, अच्छे बुरे लोग भी। उसके आधार पर महिलाओं का मखौल व हँसी उड़ाना, उनकी सफलता को उनकी योग्यता नहीं, अपितु उनके स्त्री होने का फल व लाभ घोषित करना, उन्हें दोयम सिद्ध करने व उनसे ईर्ष्या करने की मनोवृत्ति का पता देते हैं। 


इतना ही नहीं, मनोविज्ञान के अनुसार ऐसे सब व्यवहार वही लोग करते हैं जो किसी न किसी रूप में किसी हीनताग्रंथि के शिकार होते हैं। उनकी यही कुण्ठा (कॉम्प्लेक्स/ इनफीरियॉरिटी) अहम्, ईगो, वर्चस्व की भावना आदि के रूप में व्यक्त होती है। इसीलिए जो व्यक्ति व समाज महिलाओं के प्रति जितना अधिक शिष्ट व संस्कारवान होता है, उसे उतना ही अधिक सभ्य माना जाता है। महिलाओं के प्रति अशिष्ट, क्रूर, अपमानजनक आदि रवैया (व्यवहार व भाषा सहित ) रखने वाले लोगों व समाजों को असभ्य, संस्कारहीन, मूर्ख, अपढ़ व निंदनीय ही माना जाता है। महिलाएँ तो ऐसे लोगों से घृणा करती ही हैं। 


जिस परिवार व जिस समाज की महिलाएँ जितनी अधिक शान्त, सुखी व सहज हों, समझ लीजिए वह परिवार व वह समाज उतना ही अधिक सभ्य, शिष्ट व सुसंस्कृत है। उस परिवार के पुरुष उतने ही अच्छे हैं। क्योंकि पुरुषों का स्त्री के प्रति दृष्टिकोण, व्यवहार व भाषा उनके असली चरित्र का पता देते हैं। इसलिए महिलाओं से दुर्व्यवहार करने, अपमान करने अथवा उनका मखौल आदि उड़ाने से पहले सावधान हो जाइए, क्योंकि ऐसा करके वस्तुत: व्यक्ति अपने आपका पता दे रहा होता है, अपनी आधिपत्य की आदिम ग्रन्थि सार्वजनिक कर रहा होता है। 


शनिवार, 16 फ़रवरी 2013

"पाप"

"पाप"  :  कविता वाचक्नवी  ('पाखी' , फरवरी 2013 )

वर्ष 2008 में विख्यात लेखिका रमणिका गुप्ता जी को हृदयाघात हुआ था। वे अस्पताल में भरती थीं। अस्पताल से ही संभवतः 8वें 9वें दिन मेरे पास नरेंद्र पुण्डरीक जी का फोन आया और उन्होंने कहा कि रमणिका जी बात करना चाहती हैं। यह सुन मैं अवसन्न रह गई कि अभी तो वे अस्वस्थ हैं, ऐसे में वे क्या बात कर सकेंगी। दूसरी ओर रमणिका दी' थीं। उन्होंने मुझे सभी भारतीय भाषाओं की महिला कथाकारों की कहानियों के एक समेकित संकलन की योजना के विषय में बताया और कहा कि मैं भी इस संकलन के लिए अपनी कोई कहानी भेजूँ। मैंने उन्हें निश्चिन्त किया। तभी अगले कुछ दिन बैठकर उस संकलन के लिए यह "पाप" शीर्षक कहानी लिखी थी। रमणिका दी' की योजना बहुत बड़ी थी, सामग्री संकलित होती रही व किसी न किसी कारण से वह संकलन विस्तार पाता चला गया। अभी प्रकाशनाधीन है। 

इस बीच वर्ष 2010 में भारत जाने व उन्हीं के आवास पर कुछ दिन ठहरने के समय बातचीत में जब उन्हें पता चला कि मैंने वह कहानी कहीं अन्यत्र न तो भेजी है, न ही प्रकाशित हुई है तो उन्होंने बताया कि संकलन के लिए अप्रकाशित रचना की बाध्यता नहीं है व यों भी विलंब हो रहा है अतः उसे शीघ्र  कहीं प्रकाशित करवाओ। मैं तब भी प्रकाशन के प्रति अपनी अरुचि, आलस्य आदि के कारण टालती रही व कुछ न किया। वर्ष 2011 के अंत अथवा 2012 के प्रारम्भ में हेमलता माहीश्वर जी से उक्त संकलन सम्बन्धी प्राप्त एक ईमेल के पश्चात् वरिष्ठ कथाकार सुधा अरोड़ा जी से जब इस सम्बन्ध में खुल कर चर्चा हुई तो उन्होंने भी कहानी पढ़ी व एक महत्वपूर्ण सुझाव देते हुए कहानी को तुरंत कहीं भेजने की बात दोहराई तथा  'कथादेश' अथवा 'पाखी' को भेजने के लिए कहा। अतः मैंने इसे 'पाखी' को भेज दिया। अंततः वर्ष 2008 में लिखी हुई यह कहानी वर्ष 2013 में "पाखी"  के नवीनतम फरवरी अंक में प्रकाशित हुई है। 

इस बीच गत 10 दिनों में अनेकानेक ईमेल व संदेश मुझे व्यक्तिगत स्तर पर पाठकों व मित्रों ने भेजे हैं। 'पाखी' की ओर से उसके संपादक प्रेम भारद्वाज जी द्वारा अंक की पीडीएफ फाईल भी मिली है। उन्हें धन्यवाद कि उन्होंने इसे सम्मिलित कर स्थान दिया। 

नेट के साथियों, मित्रों व पाठकों के लिए प्रस्तुत है इस कहानी का अविकल पाठ।
नीचे टंकित पाठ के पश्चात् पाखी' के पन्नों को भी दे दिया है। पन्नों को पढ़ने के इच्छुक उन पर क्लिक करें।  





कहानी
 पाप
- (डॉ.) कविता वाचक्नवी


‘‘सोलह बरस की उम्र क्या होती है ? ….. अब वह सब किताबी-बातें आप मत उछालने लगिएगा जो सपनों के संसार में खोए नवयौवन की उनींदी पलकों में केवल सपने ही सपने भरे देखती हैं, या जिनकी कही मानें तो, देह अलसायी रहती और आसपास फूल-ही-फूल चटखते दीखते हैं। ये सब बड़ी काल्पनिक और सपनीली दुनिया के झूठ होंगे। अस्सल जीवन इससे एकदम उलटा और व्यावहारिक होता है। इसमें सपनों के आने-जाने पर पहरे हो सकते हैं, होते ही हैं। और यदि कहीं आप लड़की हुए तो आँख मींचने न देंगे लोग आपको, कि कहीं पलक पीछे से सपना पुतली पर आ बिराजा तो …. ? ….. खुली आँख के आगे का संसार इतना कसैला कर देंगे कि आँख में बस तिरे तो पानी-ही-पानी, कहीं कुछ और बस-बच न जाए। ’’


क्या दबंग स्त्री है !
मुझे एन.जी.ओ. के रजिस्ट्रेशन की प्रक्रिया में जाँच के लिए वहाँ जाना पड़ा था। तभी एक हॉल में कानूनी सहायता दिलवाने वाले समूह की ओर से उसे नीचे दरी पर बैठे बोलते पाया था। उसके तीन ओर 10-20 स्त्रियों का जमघट-सा बैठा था। जब तक मुझे दरवाजे से लग खड़े उसने नहीं देखा, तब तक अनवरत इतना वह बोल चुकी थी। धड़े की शेष स्त्रियों ने मुझे भी सहायता के क्रम में कोई नई आई स्त्री मान, देखकर भी कोई विशेष प्रतिक्रिया नहीं की थी, इसलिए उसका वक्तव्य बाधित होने का प्रश्न नहीं था। संस्था की मुखिया को मैंने पहले ही अपने साथ भीतर चलने से रोक दिया था, ताकि जो जैसा है - उसे उसी ढर्रे पर देखा जा सके। मेरी ओर दृष्टि जाने पर उसने प्रश्नवाचक-सी अपनी दाहिनी भौंह उठाई व बाईं ओर को गर्दन तनिक झुकाकर पूछा - ‘कहिए’ !


यह थी उससे पहली बार की मिला-जुली। बाद में संस्था के बजट आदि जमा कराने के लिए उसके आने पर व ऐसी ही कुछ अन्य औपचारिकताओं के कारण हम लोग मिले और मित्र बन बैठे। वह अक्सर अपने कठोर अनुशासन में बीते बचपन के संस्मरण सुनाती। मेरे लिए वे सब-के-सब एक अलग प्रकार के संसार की आप-बीती जैसे थे। मैं जिस सामान्य जीवनशैली में पले परिवार से हूँ, वहाँ बेटियाँ माँ का पल्ला पकड़ कर पलती-बढ़ती हैं और पति को हाथ पकड़ा कर बाहर कर दी जाती हैं। हमारे घरों में पिता का बेटियों से वास्ता ही नहीं पड़ता, न बेटियों का पिता से। बस, अम्मा ही से कह-सुन कर दिन बिता दिए जाते हैं। बाबा भी, अधिक-से-अधिक हुआ तो पास आकर कभी सिर पर हाथ रख चुप खड़े दुलार देते थे। न उनका दबदबा बना, न रौब, न माँ का रौब। सब, जैसे चुप्पी-सी में दिन बिताती जिंदगी में अपने-अपने हिस्से के काम किए जिए जाते थे। हम लड़कियाँ ने न कभी लड़ाई देखी, न डपटी गईं। इसीलिए अपनी इस नई परिचिता से मिलने से पूर्व तक मेरे लिए यह समझ पाना सरल नहीं था कि कोई स्त्री ललकारने, तर्क करने, विरोध करने, यहाँ तक कि सामना करने, अधिकार के लिए साहस करने की आवश्यकता क्यों अनुभव करती है।


अपने लड़की होने के दिनों और संध्या (इस मित्र) के लड़की होने के दिनों का अंतर तो जैसे दो दूर-दूर बसी सभ्यताओं के अंतर जैसा था। उससे न मिलती तो असली जीवन का असल पता ही न पड़ता, कई बार ऐसा लगता।

*** 


वह कड़े अनुशासन वाले पिता की एकमात्र बेटी थी। पिता क्रूर तो न थे, हाँ कठोर अवश्य थे। यह कठोरता ऐसी थी, जिसमें उनकी प्रबल भावुकता बेटी के हित की चिंता में, जिद्दी व निर्मम हो चुकी थी। बेटी के भविष्य को सुखी और उसे सर्वगुणसंपन्न बनाने के लिए पिता उसे कठोरतम जीवन की सीख व अनुभव अपने कड़े-से-कड़े निर्देशन में दे -दिला रहे थे। जन्मते ही माँ का तज चले जाना बेटी का इतना जी न दुःखाता था, जितना कि वात्सल्यमय पिता का निरंतर कर्कश होते चले जाना । सादा-जीवन उच्च विचार, गांधी जी के उपदेशों की पग-पग व्यावहारिक जीवन में परिणति के परिणाम उसने 10 वर्ष का होने के बाद से जो देखने-झेलने के उदाहरण सुनाए - वे मेरे लिए कल्पनातीत थे। पिता ने घरेलू सुविधाओं का नितांत अभाव बनाए रखा ताकि बेटी कहीं आराम-तलब न बन जाए, भरी दुपहरी में घर के दूसरे सिरे पर लगे नल पर बर्तन माँजने जाने व नल को रसोई तक न लाने के पीछे परिश्रम व कड़े जीवन-संघर्ष के अभ्यास की इच्छा थी। पिता के प्यार और प्यार के कारण भविष्य की सुरक्षा व ससुराल - सुख की चिंता व कामना में पिता का अपनी ही बेटी के मिलने, उठने, बोलने, जाने, खाने, सोने, पीने, हँसने, बरतने, कहने जैसी हर प्रकार की क्रिया और व्यवहार पर प्रतिबंध और सारे-के-सारे अनुभवों को निरंतर तिक्त बनाने पर बल रहता, ताकि बेटी कठोर जीवन की अभ्यस्त हो सके। वे, मानो बेटी को एक `परफेक्ट सुपर वूमन’ या कहें कि सर्वगुणसंपन्न युवती के रूप में गढ़ना चाहते थे। लड़कों से परिचय होना तो दूर की बात है, वहाँ तो लड़कियों तक से बतियाने की आजादी न थी। देखने-सोचने और कल्पना तक की आजादी न थी, न फुर्सत थी। अपनी इस इकलौती बेटी को प्रखर मेधावी और तर्कपूर्वक निर्णय लेने में सक्षम बनाना भी पिता की जिद का हिस्सा था। घर में नियमित गहन व गंभीर शास्त्रीय चर्चाओं वाले दार्शनिक ग्रंथों का पढ़ना और चर्चा करना अनिवार्य चर्या का बड़ा हिस्सा थे।


वह बताती कि 18-19 वर्ष की आयु तक भी उसे किसी आयुजन्य काल्पनिक संसार का आभास तक न था। वह जीवन और जगत् के दार्शनिक रहस्यों के साथ-साथ दिन-भर घर से जूझती व पिता द्वारा जीवन की कठोरताओं के वर्णन सुनती। अपनी 18-20 की वय तक उसे न देह में, न मन में किसी सुर-ताल के बजने का आभास तक मिला। परिवार के शादी-विवाह तक में खादी-चप्पल व सफेद खादी के सलवार कुर्ते में लिपटी उस निराभूषण, शृंगार-विहीन विचारमग्न लड़की से न कोई मित्रता करता, न काम की बात से अधिक बात।


एक दिन अचानक पिता के किसी पुराने मित्र ने उन्हें युवा हुई बेटी के साथ घर में अकेले रहने के अनौचित्य की बात समझाई कि “ देखो शान्तनु ! या तो तुम बेटी के हाथ पीले कर दो या इस कहीं भेज दो, जहाँ यह लड़कियों के बीच में रहे। इस आयु की (17 साल की) जवान बेटी यों पिता के साथ अकेले में सोती-उठती है - सो अच्छी बात नहीं है "।


बस, सप्ताह-भर के भीतर-ही-भीतर संध्या को वहाँ से किसी उचित सुरक्षित जगह पर भेजने की भाग-दौड़ में जुटे पिता ने बताया – “ देखो बेटे ! इस साल की पढ़ाई के लिए तुम्हें एक आश्रम में भेज रहे हैं। वहाँ तुम्हारी तरह की छह आठ सौ छोटी-बड़ी लड़कियाँ ही लड़कियाँ रहती हैं। तुम्हें वहाँ जाने से खूब अच्छा लगेगा और अब तुम्हारी पढ़ाई भी पहले से काफी बढ़ गई है। यहाँ घर सम्हालने से पढ़ाई में बाधा आती है, पर वहाँ आराम से पूरा दिन पढ़ना। वहाँ आचार्य जी आदि लोग बड़े-बड़े पारंगत विद्वान हैं। पढ़ाई के बाद के घंटे व्यायाम, पूजा, ध्यान और वैसी ही दूसरी चीजों के लिए सब नियमानुसार तय हैं वहाँ, तो तुम्हारा संपूर्ण विकास वहीं संभव है। 15-20 दिन की तैयारी में लड़की ने डाक से आई नियमावली को 25-30 बार पढ़ा। एक लोहे के सन्दूक में सामान बाँध व बिस्तर और थाली-कटोरी का `सेट’ लेकर पिता उसे आश्रम पहुँचाने गए। विदा के समय से कई घंटे पहले से ही उसने पिता को बिलखते देखा। पर चुपचाप रही। न चुप कराया, न रोई।


दोपहर को उसे आश्रम के बाहरी परिसर के भीतर बने एक और बड़े से दो पल्ले के फ़ाटक के एक पल्ले में बने छोटे-से दरवाजे के अंदर अपना सामान लेकर चले जाना था। यह फाटक सदा बंद ही रहता था और इसमें बाहर के किसी भी व्यक्ति का प्रवेश निषिद्ध था। संध्या के पिता ने साल-भर की रहने-पढ़ने-खाने की राशि दफ्तर के बाबू के पास ज़मा कर रसीद ली और खाने-पीने में बेटी को कोई कमी न हो इसके लिए कई बार प्रार्थना की। सुबह के दूध के अतिरिक्त रात के दूध की अलग व्यवस्था के लिए हर महीने अलग से पैसा देने की रस्म पूरी की और ` दोनों समय एक-एक चम्मच शुद्ध घी भी खाने में ऊपर से दिया जाए ’ इसका भी शुल्क ज़मा करा दिया । दफ्तर से बाहर निकल पिता ने बेटी के सिर पर हाथ रख कर बाई बाँह में घेर उसे गले लगा लिया। दाहिने हाथ से लगातार सिर थपकाते वे 10-15 मिनट यों ही खड़े चुपचाप अपने आँसू पोंछते उसे दुलराते रहे और फिर दोनों कंधों से पकड़ कर बोले – “ सन्धि बेटा ! प्यार का अर्थ होता है अपनों के हित की चिंता, न कि पास-पास या साथ-साथ रहना। बेटियाँ तो वैसे भी साथ नहीं रहती हैं, एक दिन जाना ही है तुम्हें अपने इस पिता को छोड़ कर। तो तुम्हारा हित इसी में है कि जो कुछ तुम मुझसे नहीं सीख सकी, वह यहाँ ये लोग सिखाएँगे और तुम पूरी तरह अपनी पढ़ाई में ही जुट सकोगी ’’।



***

संध्या ये सब बताते हुए बहुत भावुक हो गई थी उस दिन। अपने पिता की इतनी कड़ाइयों के बाद भी उसके मन में अपने पिता के प्यार की इतनी आस्था देख मुझे आश्चर्य हुआ। मेरे पिता ने हमसे न कभी कड़ाई की, न डाँटा-डपटा। पर फिर भी मेरे पास ऐसा कोई संस्मरण नहीं, जिसे याद कर या बाँटते समय मैं उनके अपने प्रति किसी भावुक क्षण को याद कर आज आँख भिगो सकूँ। एक बार को लगा कि किस मिट्टी की बनी है यह, जिस लड़की को उसकी युवावस्था तक में अनुशासनहीनता देख कर पिता पीट तक देते हों, वह कैसे पिता के लाड़ की स्मृति में गद्-गद् हो सकती है ?


इसी तरह के अनेक रोमांचकारी व अविश्वसनीय-से लगते उसके संस्मरण मेरे लिए जीवन की लाल-किताब जैसे सिद्ध हुए, जिन्होंने मेरे आज पर मानो कोई तंत्र कर दिया हो, या मुझे मानो कोई सिद्धि मिल गई हो। आज तुम्हें यह पत्र लिखते हुए मुझे उसकी बेहद याद आ रही है। तुमने अगर अपनी फिल्म के लिए कहानी की खोज में मुझे मेरे स्त्री-जीवन की कोई सनसनीखेज याद ताजा करने या जानने की हठ उस समय न की होती तो शायद मैं उसका यह संस्मरण सुनने से चूक गई होती। तुम्हारे प्रोजेक्ट के विषय में उससे बाँटते समय मैंने यों तो अपने सपाट जीवन की एकरस कथा पर उचाट-सी बतकही की थी, कि भला है क्या टटोलने खोजने को ! कुछ याद न पड़ता हो ऐसा नहीं, अपितु कुछ है ही नहीं ऐसा इस नई व यकायक तेजी से कायाकल्प हो गई दुनिया के खुलेपन में लोगों के आश्चर्य का कारण बन सकने योग्य। गत 30-40 वर्ष के परिवर्तन का अनुपात देखें तो 500 वर्ष के अनुपात से भी अधिक है। ऐसे में चौंकाने वाली घटना हमारे समय के लोगों के पास कुछ हो नहीं सकती। इस खीझ में मेरे मुँह से निकला कि “ सन्धि ! तुम कितनी भाग्यशाली हो, मेरी तुलना में तुम्हारे पास तो अकूत खजाना है ’’। 


वह अपने उजले रूप के ललौंहें होते ऐसे क्षणों में और भी सिमट जाया करती थी। साक्षात् वाग्देवी-सी जिसकी वाणी पर विराजती थी, उसका यों मौन में कुहुक तक न भरना उसके व्यक्तित्व का अत्यंत गोपन पथ था। मुझे ऐसे क्षणों में उसकी भंगिमाओं में, गोते खाती झरने की धारा के बजने की प्रतीति ही सदा हुआ करती थी, मानो मैं किसी अनंत सूनेपन और एकांत में झरने के इस पार किसी शिला पर बैठी लहरों के गिरने के क्रंदन पर ध्यान लगाऊँ। पर मेरी भाषा की ध्वनियों और धारा की ध्वनियों का अंतर मेरे लिए सदा अबूझ रहा। वह भाषा मेरे संसार के लिए कभी न संप्रेषित होने वाली स्वर-ध्वनियों का विकट संसार थी। अपनी लाचारी और संध्या के डूबने के क्षणों में मैं अवश कसमसाती-भर रह रह जाती। ऐसे में किसी पहले सुनी घटना के क्रम के किसी एक बिंदु पर प्रश्न उठा कर उसके मौन में एक कंकर फेंकने का यत्न किया करती।


हाँ, एक बात जो तुम्हें लिखनी रह गयी, वह यह कि वह अपने पूर्व जीवन की उस बच्ची, लड़की और युवती को मानो अपने से अलग किसी व्यक्ति के रूप में ही संबोधित करती, अलगाए-सी देखती–दिखाती थी। लगता है, इसे मैं ठीक से समझा नहीं पा रही। एक उदाहरण से शायद स्पष्ट हो, जैसे - उसका कहन ऐसा होता ‘‘ वह लड़की जिसने सप्ताह-भर दिन-रात बिना चीनी-नमक का फीका-उबला दलिया खा-खा बिताया हो, उसे तो घर से बेहतर वह आश्रम लगता था, जहाँ दो समय रोटी-सब्जी-दाल तो सलीके की मिल जाया करती थी। वह लड़की चार-चार, पाँच-पाँच दिन भुनी हुई गर्म गेहूँ में गुड़ डाल तैयार किया, पोटली में रखा अनाज एक गिलास दूध के साथ चबेने की तरह खाती दिन बिताती थी, उस लड़की का मन तो कब का मर चुका था। ’’


मेरे लिए दो जीवनों की समानांतर कथाएँ एकदम विपरीत परिस्थितियों में एक देह में उतरी हुई होतीं। इसी प्रकार, दो पार एक साथ चलते उसके मन को टोहते क्षणों में, वह आश्रम पहुँचने के बाद के दिनों के कई अनुभव बाँट चुकी थी। 

***


भीतरी फाटक के अंदर का संसार सफेद धोतियों में लिपटी युवा, पर म्लानमुख, लड़कियों का संसार था। जहाँ बीचोंबीच एक बड़े ही विस्तृत आँगन, बगीचों, चबूतरों व स्थान-स्थान पर बनी पत्थर की पाटियों से खुलेपन में जीने की चाहत का मोह जगता । उस चौकोर मैदानाकार आँगन के चारों ओर कतार में कमरे ही कमरे थे । अनंत छोटे-बड़े कमरे। उनके आगे दुलवाँ छत का बरामदा चारों ओर एक-सा न था। फाटक में प्रवेश कर दाहिनी ओर बढ़ते ही पहला कमरा वार्डन का था। `लड़की’ का सारा सामान वहाँ उलीचा गया, जिसमें सूची की चीजों के अतिरिक्त लड़की की खाली डायरियाँ और कई जीवनियाँ तथा दार्शनिक विषयों की पुस्तकें थीं ; जिनकी अनुमति की वहाँ व्यवस्था यद्यपि नहीं थी, पर कुछ भी आपत्तिजनक न होने के कारण व लड़की के गरिमापूर्ण, उजले व्यक्तित्व के दबदबे के कारण वॉर्डन ने आश्रम की आचार्या के आदेश से सब सामान रखने की व्यवस्था देते हुए एक कमरे में एक तख्त और अलमारी के आधे निचले भाग का अधिकार लड़की के नाम कर दिया। उसने संदूक का सामान निकाल अलमारी में जमाया, बिस्तर बिछाया और संदूक को तख्त के नीचे ठेल दिया। पुस्तकों के रखने जितनी जगह अलमारी में थी नहीं। वॉर्डन एक 28-30 बरस की अविवाहित, वाचाल, कालेपन की सीमा तक साँवली, लगभग छह फीट लंबी, पर चारों ओर थुलथुल झूलते चमड़े में अटी, चोहरे बदन की महिला थी, जो अपनी उम्र के गणित से लड़कियों से बराबरी की-सी मैत्री दिखाती-बतियाती थी, किंतु अपनी विराटता और वाचालता में नितांत वक्री थी।


आश्रम में कड़ा अनुशासन व सोने से लेकर उठने तक, फिर उठने से सोने तक घंटी बजाए जाने पर सधे कदमों से काम करते चले जाने का नियम था। हर कमरे का द्वार आँगन की ओर ही खुलता था, तो किसी भी कोने में खड़े हो कर हर कमरे की चौकसी बड़ी आसानी से की जा सकती थी। कुछ सबसे बडे़ आयु वर्ग की 23-24 वर्षीय छात्राओं को मिडिल स्कूल की लड़कियों की डॉरमेट्री के संरक्षण की जिम्मेदारी थी। जो बहुत छोटी लड़कियाँ थीं, उनके लिए कुछ बुढ़िया-सी आयाएँ थीं। प्राइमरी वर्ग की लड़कियों के लिए 35-40 वर्षीय पुरानी अध्यापिकाओं के द्वारा संरक्षण की व्यवस्था डॉरमेट्री के साथ वाले कमरे में आवास के रूप में थी।


शुरू में वार्डन से लेकर सभी छोटी-बड़ी लड़कियों के प्यार का केंद्र संधि ही संधि बनी रही। उजले रूप व मीठे बोल की धनी संध्या मानो आत्मीयता के लिए सदा से ही वंचित रही हो। सभी के प्रति उसकी सहज निश्छल आत्मीयता, मुस्कुराते रहने की अथक आदत व सुलझ स्पष्ट विचार, अपनी बात को रोचक शैली में सौम्यता से प्रस्तुत करने का उसका अंदाज हर किसी को लुभा लेता, लुभाए ही रखता। जहाँ एक ओर छोटी कक्षाओं की लड़कियाँ उसे छूकर चहक उठतीं, उसकी गोद में लिपटी जाने में सार्थकता अनुभव करतीं, वहीं दूसरी ओर संधि से बड़ी सभी लड़कियों के लिए वही उनके सहज स्नेह व आत्मीयता की अधिकारी बन गई।


बिन्दु दी’ के साथ पहले-पहल उसे कमरा दिया गया था। वे बेहद प्यारी व संधि से साल-भर बड़ी होंगी। बड़ी उद्दाम-सी हँसी वाली बिन्दु का बेलागपन संधि को बहुत भाता। दोनों में अच्छी पटती। बिन्दु दी’ की और दो बहने भी वहाँ रहा करती थीं, एक बड़ी और एक छोटी। तीनों शायद आश्रम की सर्वाधिक मोहक और शालीन लड़कियाँ थीं। सबसे बड़ी मन्जुला दी’ तो अनुशासन के मामले में काफी कड़ाई भी बरतती थीं, पर सबसे बड़ी होने का परिणाम था कि उनके व्यक्तित्व में एक अजब मातृत्व की छाया का स्पर्श-सा बसता था। वे 8वीं और 9वीं कक्षा की लड़कियों की डॉरमेट्री के साथ सटे कमरे में एक और अन्य इंचार्ज युवती के साथ रहती थीं। उनके उस कमरे का एक दरवाजा लड़कियों के हॉल में खुलता और दूसरा बाहर बरामदे में। मुख्य दरवाजे के एकदम सामने कमरे की पिछली दीवार पर एक बड़ी खिड़की थी। मुख्य द्वार आगे की दीवार के एकदम मध्य में होने के कारण प्रवेश करते ही दरवाजे के दोनों ओर एक-एक तख्त लगा था और तीसरा तख्त पीछे की दीवार वाली खिड़की के एकदम आगे चौड़ाई में।



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संधि जब इन यादों में उतरी थी तो कई दिन इन संस्मरणों के मोह में लबालब मीठे अमृतपान-सा भाव उसके तीखे चेहरे-माहरे वाले दिप-दिप करते रूप पर व्याप्ता रहा। उसने सारे आश्रम वालों के द्वारा उसे विशिष्ट व अतिरिक्त महत्व और लाड़ दिए जाने की बात जाने कितनी तरह व कितने उदाहरणों से बताई थी।


उसके कमरे में बिन्दु के कारण शालिनी (छोटी बहन) और मंजुला आ जाया करतीं और अक्सर गोला बाँध गप्पगोष्ठी का अवसर भी निकाल लिया जाता। मंजुला क्योंकि अध्यापिका थीं, अतः वॉर्डन का उनके वर्ग की 4-6 अध्यापिकाओं के साथ सहलापा-सा लगा करता था। गप्पगोष्ठी में अक्सर थोड़े-बहुत समय के लिए वॉर्डन भी आ जाया करती। इस प्रकार संधि, आश्रम के आवासीय परिसर की लगभग मुखिया-टोली के साथ उठने-बैठने लगी। मंजुला में अपनी बहनों के लिए जो मातृत्व (स्नेह) व पितृत्व (संरक्षण व सुरक्षा) का सम्मिश्रण था, वह उसे और भी आत्मीय बना देता था। 


धीरे-धीरे मंजुला ने संधि को भी अपने संरक्षण में ले लिया। संधि के लिए आश्रम में समाज से दूर रहना कतई कष्टप्रद न लग रहा था किंतु धीरे-धीरे कुछ बुदबुदाहटें उसे प्रश्नों में घेर लेतीं ; वॉर्डन की अतिरिक्त वाचालता, आश्रम के कॉलेज की प्राचार्या व उपप्राचार्या, दोनों का 45-50 की वय तक भी अविवाहित होना ; आश्रम के चारों ओर के कमरों से लड़कियों का फाटक पर नजर गड़ाए रखना कि कौन कब फाटक से बाहर बने कुलपति दंपति (स्वामित्व) के आवास पर कब गया, कब लौटा, कुछ पुराने किस्से.... कि कौन लड़की कब और किन परिस्थितियों में छोड़ कर गई...... आदि-आदि। 


4 बजे सुबह उठकर एक बड़े हॉल जैसे बने स्नानघर में सबको एक साथ नहाना होता था तथा वहीं कपड़े भी धोने का काम तभी निपटाना होता। पशुओं के रहने और चारा खाने वाले बड़े हॉल जैसा यह था, जिसमें दीवारों के आगे 2-3 फीट की चौड़ाई छोड़ कर एक डेढ़ फीट ऊँची मेढ़-सी बनी थी। दीवारों में जगह-जगह (4-6 जगह, हर दिशा में) नल के स्थान पर मोटे पाईप से बाहर की ओर निकले थे, बालिश्त-भर घेरे वाले। यही पानी आने की नालियाँ थीं, जिनसे पानी आगे के मेढ़ वाले चौड़े नाले में आता भरता रहता और लड़कियाँ अंधेरे में चारों ओर तीन-तीन किलोमीटर तक खेतों की ही परिधि से घिरे उस सामूहिक स्नानागार के हॉल में झुंड के झुंड एक साथ अध-ढँपी नहाने का कार्यक्रम निपटा लेतीं। संधि शायद दो या तीन बार ही वहाँ नहाने का साहस जुटा पाई। फिर जाने क्यों उसे अक्सर तेज बुखार रहने लगा था। 4-6 महीने पाली के बुखार में मंजुला का उसकी माँ - सा बन कर दिया दुलार, उसके जीवन की शायद सबसे मीठी घटना थी। 


शाम को घंटी बजने पर सबको आँगन में इकट्ठा होना पड़ता। उससे पहले नाश्ते की घंटी बजने पर मंजुला या कभी-कभी बिन्दु ही उसके लिए खाने वाले हॉल में बँटते नाश्ते को कभी गिलास या कभी कटोरी में ला दिया करतीं। एक अजब बात, जिस पर संधि खूब चकित होती, बताती थी, वह यह कि कमरों में रहते-बैठते हुए कभी दरवाजा बंद न करने का कड़ा आदेश था।


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तुम्हें, 1998 में फिल्म की कहानी की खोज करने पर संधि की 35 वर्ष पुरानी यह कहानी, “ पुराने जमाने में यही सब होता था ” - जैसी लगी थी, यहाँ तक सुनकर। इसके आगे का किस्सा सुनकर तुमने सीधे-सीधे मुझे इसी को फिल्माने का अपना निर्णय सुना दिया था।


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हॉस्टल (आश्रम) में वॉर्डन का पेड़ की हरी शाख से बनी लचीली देह वाली छड़ लिए, जिस-तिस लड़की पर बरसाते आगे बढ़ना, संधि को अक्सर सहमा दिया करता। वॉर्डन के कमरे से एक कमरा छोड़ कर संधि का कमरा था । वॉर्डन शाम से रात तक दो चक्कर बरामदे-बरामदे चलती हुई चारों छोर मापती थी। हर कमरे में घुस आदेश देना, डाँटना, छड़ लहराना और थुलथुल झूलते हुए आगे बढ़ना, रोज का यही नियम होता। शाम को व रात को पढ़ाई के घंटों में लड़कियाँ अपने कमरों में गुपचुप बतियातीं या लेटीं या कई बार तो मोमबत्ती के ऊपर कटोरी में तेल गर्म कर उसमें पोर-पोर-भर माप की पूरी तक सेंकती पकड़ी जातीं और झमाझम गर्दन के नीचे पीछे की ओर वॉर्डन के भारी हाथ का तड़ाका छूटता। पर इसके बाद भी ऐसे पराक्रम न तो बंद होते, न ठहरते। किसी एक लड़की के तख्त पर दूसरी लड़की का पाया जाना जघन्यतम अपराध की श्रेणी में आता था। संधि को कभी रहस्य समझ न आया कि इसमें क्या पाप कर दिया किसी ने। अंत में उसने निष्कर्ष निकाला कि पास बैठ कर गपियाने के अवसर से बचाने की ही यह जुगत होगी शायद कोई।


समय-समय पर, बिना पूर्वसूचना के, यकायक चारों ओर से दरवाजे बंद करते हुए लड़कियों के सामान की तलाशी का अभियान भी चलाया जाता था। जिनके परिवार वाले मिलने आने पर पैसा, मिठाई या नियमेतर कोई वस्तु दे जाते थे, वे सब पिंजरे में गर्दन मरोड़ दिए जाने की घड़ी भाँप कर पंख फड़फड़ाते पंछी की तरह थर-थर काँप रही होतीं। कोई कोई तो चाबी खो जाने का बहाना कर देती, ऐसे में पत्थर से ताले तोड़ कर तलाशी ली जाती। वह आतंकवादियों का बस्ती में घुसकर घरों को खंगाल व बर्बाद कर देने जैसा दिन होता था। सब लड़कियों को आँगन में रहना होता था और अपने-अपने लोहे के संदूक सार्वजनिक उघाड़ने होते थे। 

संधि का चेहरा इस घटना को सुनाते समय भी उन त्रस्त घड़ियों के तनाव से खिंच गया था।


इस तलाशी के बाद और कई बार तो यों ही लड़कियों को उनका कमरा छोड़, किसी ओर कमरे में रहने की व्यवस्था सुना दी जाती। कई बार तो 11वीं की लड़की को 75-80 वर्ष की आया वाले कमरे में उसके साथ रहने का आदेश दे दिया जाता। किसी भी लड़की का किसी की सहेली होना, उसकी अकाल मृत्यु की घड़ी की घोषणा होने जैसा होता। 24-25 बरस की चंचल, हँसती व सभी को प्रिय लगने वाली अध्यापिकाओं (वहीं की पूर्व छात्राओं) तथा बूढ़ी आयाओं के बीच एक वर्ग और भी था। वह था 35 से 55 के आसपास की खुफिया निगाह वाली, पाँच मिनट में सामने खड़े-खड़े सिर, ऊंगली, चप्पल, धोती की किनारी व हँसने की मात्रा तक का दोष पकड़ती, कौन लड़की किसके साथ कितनी बार हँसी, किस कमरे से निकली, किस में कितनी देर के लिए गई, चार बार होने वाली हाजिरी में कितना पहले व कितना पीछे पहुँची, आँगन में कितनी देर बिताई ....... जैसी चीजों पर पैनी पकड़ रखने वाली अविवाहित अध्यापिकाओं का। जो पल-पल की सूचना बाहर कुलपति आवास तक दिया करतीं। कुछ चतुर लड़कियों ने इन्हें अपनी सेवा-से इतना प्रसन्न किया हुआ था कि स्वयं को सदा के लिए सभी तरह से दोषमुक्त कर चुकी थीं और उनके लिए खुफिया-तंत्र का काम करती थीं ; ताकि बदले में वे सारी सुविधाएँ ले सकें जो अन्यों को लेने का नियम नहीं था। 


24-25 बरस की आयु के आसपास वाली स्नातिकाएँ, सभी, जीवन से भरपूर, हँसी में डूबी और एक-एक कर विवाह तय होने की घड़ी की प्रतीक्षा करतीं अपने घर लौटे जाने की आशा में निश्चिंत थीं। कुछेक तो बीच में इसी तरह चली भी गईं। उनके परिवार के साथ वरपक्ष उन्हें यहीं मिलने आया, पसंद किया, तय हुआ और विवाह के महीना-भर पहले वे सदा के लिए चली गईं। सभी छोटी व किशोर लड़कियाँ इन स्नातिकाओं के स्नेह व हँसमुख भाव पर लुभी रहतीं। अक्सर रविवार की शाम लड़कियाँ गुट बनाकर बतियातीं। अनायास ही संधि स्नातिकाओं वाले गुट का हिस्सा बन गई। यों भी अपने व्यवहार की गंभीरता के चलते वह अपनी आयु की लड़कियों में बाहरी जैसी और बहुत बड़ी जैसी मान ली गई थी। 


स्नातिकाएँ कभी हाजिरी लगाने, देने कोठी (कुलपति निवास) नहीं जाती थीं। यदि संदेश आता कि कोठी पर बुलाया गया है, तो न वे सहमतीं, न भागी चली जातीं, न खुश होतीं। मंजुला तो उलटे, ऐसे समय अजब-गजब तेवर से भर कर्कशपन की प्रतिमूर्ति हो जाती। उसके लिए दरबार में हाजिरी देना, बड़ा अपमान था। ऐसे समय में कई नई-पुरानी दबी-पड़ी घटनाएँ और बातें उलझे सूत-सी गुंजल बन हाथ आतीं, जिनका न ओर संधि को पता होता, न छोर। अपने इस बुलावे पर मंजुला दी’ उन्हें कोसती और संधि को दुलारती कोठी जातीं। जहाँ से 10 मिनट में लौटकर रिपोर्ट माँगे जाने की खीझ से भरी होतीं। वॉर्डन अक्सर ही इस जमावड़े में आ बैठा करती थी।


मंजुला दी’ संधि के लिए बुखार में खाने को दाल में रोटी सान कर, गिलास में, सबसे छिपाकर लाया करतीं। धीरे-धीरे यह आत्मीयता ऐसी बढ़ी कि पल-भर भी दोनों एक दूसरे को न पाएँ तो चैन न पड़ता था। 


एक दिन संधि से कहा गया कि उसे सबसे बूढ़ी आया (ताई जी) के साथ अब से रहना होगा। जहाँ से इस कमरे का अंतर आग्नेय और वायव्य का होता अर्थात् आँगन और बगीची के बाईं ओर की पंक्ति का अंतिम कमरा। संधि के लिए समझना कठिन था कि ऐसा क्यों किया गया। फिर 75-80 बरस की किसी महिला के साथ 17 बरस की किशोरी ! ऊपर से आँगन से आर-पार जाते भी, देखने वाली पल-पल की कड़ी निगरानी। वह एक आँगन में रहते हुए भी बढ़ने जा रही दूरी व अपनी मित्रों से दूर चले जाने की चिंता में रो पड़ी । मंजुला, बिन्दु और मंजुला की साथी स्नातिकाओं ने प्रशासन को जी भर गालियाँ दीं। प्रभा, पुष्पा, सरिता, विभा और विमलेश सभी का यही कहना था कि कोठी के किसी ने कान भरे होंगे कि मंजुला और संधि सहेली हैं। ‘सहेली’ होने का पाप संधि की समझ से परे था और मंजुला की सहनशक्ति से परे। वह प्रश्नवाचक वाक्यों में कोठी वालों को कोस रही थी। इस बीच बिन्दु का ऐसे प्रभावों में न आना यह भी बता रहा था कि अपनी बहन का स्नेह अपने अलावा किसी से बँटता देखना उसे बुरा लगता आया था, इस कारण आज वह राहत में थी।


संधि ताई के कमरे में चली तो गई पर अपने विशिष्टपन का लाभ लेते हुए वह शाम को अक्सर मंजुला और विमलेश के कमरे में आ जाती। बिन्दु वाले कमरे में उसकी जगह किसी और कन्नड़ लड़की को ठहरा दिया गया था। वहाँ बैठके बंद हो गईं। अब टोली का केंद्र या तो मंजुला वाला कमरा या पुष्पा और प्रभा वाला कमरा होता। आश्रम में हर छोटा-बड़ा संधि को समझाता कि तू मंजुला दी’ के साथ मत रहा कर वरना तुम लोग ‘सहेली’ मानी / कही जाओगी। संधि का एक ही उत्तर होता – “ सहेली भी तो बहन जैसी ही होती है, बस रिश्तेदारी नहीं है, प्यार तो उतना ही है, शायद उससे बढ़कर ही होगा ’’। साथी या जरा छोटी लड़कियाँ जो सदा उसके बड़प्पन और प्रचंड मेधावीपन से आक्रांत रहती थीं, वे आपस में एक दूसरे को समझातीं कि “ छोड़ो इस संधि को कुछ कहना, इसे अक्ल-वक्ल तो है नहीं, कोरी है ’’। 35 से 55 वय वाली अध्यापिकाओं का गैंग यदा-कदा उसे बुला कर समझाता कि “ मंजुला और तुम क्यों मरने पर तुली हो ! यहाँ सहेली होना बड़ी गंदी बात है, गंदा काम है, जैसे लड़का-लड़की होना ’’। संधि खीझती - ‘‘अरे तो दीदी लड़का थोड़े है। न मैं लड़का हूँ। सबको पता नहीं क्या? दिखता नहीं क्या ?’’ 


पर इस तनाव व अपने प्रति निरंतर कड़े होते नियमों के कारण वह भयभीत व घर जाने को उतावली हो उठी थी। ऐसे अनुत्तरित प्रश्नों के तनाव ने उसे कभी व्याकुल नहीं किया था, जिनका कोई तार्किक समाधान न हो सकता हो। अपनी वैचारिक प्रखरता, स्वाध्याय और बौद्धिक क्षमता ने उसे दार्शनिक प्रश्नों के समाधान की कुंजी और विधि सिखा दी थी। किंतु ये नए प्रश्न हल नहीं होते थे, न कोई विधि और कुंजी काम करती थी। वह अक्सर ऐसी प्रश्नाकुलता से घबरा कर अवश और लाचार हो जाती। यकायक 1000-1200 की भीड़ में दिन रात रहते हुए भी अकेलेपन से भर गई। पिता के पास लौट जाने की व्यग्रता या मंजुला का आँचल पकड़ लाड़-मनुहार की लालसा उसे बाँध लेती।



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घटना के इस क्षण पर आकर संधि ने भरी आँखों से गर्दन उठा मेरी ओर ताका था और पूछा था - ‘‘उस बच्ची का मन समझ सकोगी ? क्या कसूर था उस लड़की का ? कोई अपराध नहीं किया था उसने जिसकी सज़ा दी जातीं ’’। यह कह सिर नीचे झुकाया। कुछ क्षण मौन रही, फिर धीरे से आप-ही बोली थी – “ मुझे आज भी वह रोती सुनाई देती है, पुकारती है ’’। उसकी नाक का अगला सिरा काँप रहा था, आवाज़ रुँधी हुई और ओंठ फड़फड़ा रहे थे। हम लोग उस पूरी दोपहर धूप से बचते-बचाते यहाँ-तहाँ बैठते बातें करते रहे। उसे तेज बुखार था। 


असल में मैंने फोन किया तो पता चलने पर छुट्टी लेकर उससे मिलने जाने का सोचा था। वह ऐसे में भी कहीं के लिए निकलने की तैयारी में थी। रोकने पर भी न मानती थी। अंत में मैंने कौलि भर कर उसके साथ चलने को उसे मना लिया था। गाड़ी वही चलाती थी। उसके बुखार से ही बात शुरू हुई थी जिस पर उसने कहा था – “ चार साल लगातार बुखार झेल चुकी हूँ। ये तो कुछ भी नहीं ’’। 

यहीं से फिर क्रम चल निकला था, कुछ इस प्रकार कि ........



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........ संधि का बुखार 106 डिग्री से ऊपर ही रहने लगा। डॉ. सप्ताह में एक बार आता था। वॉर्डन के कमरे व उपस्थिति में एक-एक बीमार लड़की वहाँ लाई जाती अंदर।

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संधि सड़क के एक ओर कार पार्क कर कुछ देर बैठी रही थी मेरे साथ ; और बड़ी उत्तेजना से बोलते हुए बताया कि जब उस लड़की ने सहेली होने को गंदी बात और लड़का-लड़की होना बताया था तो संधि ने अबोध भाव, किंतु तर्क से दो टूक इसे गलत कहा था। उस गलत कहने का कारण “ संबंध में कुछ गलत है ’’ का विरोध नहीं बल्कि प्रत्यक्ष दीख रही दो लड़कियों को लड़का-लड़की घोषित करने जैसे झूठ का विरोध था। संधि को तो दो लड़कियाँ क्या, लड़का-लड़की तक के संबंध में किसी ‘गंदी बात’ का लेश-भर आभास न था। उसकी शास्त्रीय बुद्धि की पहुँच से बहुत परे की बातें थीं वे। उसके तब तक के जीवन में इन बातों, ऐसे अनुभवों व ऐसे संबंधों का कल्पना में भी आना या पता लगना तक संभव नहीं हुआ था। सो, ऐसी बातें उसकी समझ की पकड़ से बहुत परे की थीं। 



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केवल आवाज़ और होंठों से हँसती-हुई-सी हुई वॉर्डन दोस्ताने में बतियाते हुए, जीजी (मंजुला) और अन्य स्नातिकाओं से कोठी वालों के दिमागी कीड़े और फितूर पर ताने कसती। पर ऐसा कभी नहीं हुआ कि संधि के सम्मुख या संधि को सीधे-सीधे किसी ने एक शब्द भी कड़ा कहा हो। इसलिए वह पूर्ववत् बिना किसी पूर्वाग्रह या कुंठा के स्नातिकाओं वाले धड़े के साथ उठती-बैठती। उसके भावुक व कोमल किंतु स-तर्क और स्वाभिमानी मन में आशंका और विरक्ति ने भी घर बनाना शुरू कर दिया। उसके बुखार के कारण उसे आश्रम के कई नियमों से छूट मिली हुई थी और निरंतर पूर्ववत् वह विशेषभाव सबके व्यवहार में पाती रही। चहकती तो वह यों भी कम थी, उस पर कई अनसुलझे प्रश्नों व तनावों से वह व्यग्रमन और उदास-सी हो गई। इसी बीच मंजुला के विवाह संबंध के लिए उसके परिवार वाले एक दिन सेना के एक उच्चाधिकारी और उसकी बहन व परिवार के साथ आए।


कोठी में ही मंजुला और उनका औपचारिक मिलना होना था। स्नातिकाएँ और मंजुला की बहनें उस दिन खूब चहकती दिख रही थीं। मंजुला को उस दिन रंगीन साड़ी में सादगी से बदली-बदली देख छोटी लड़कियाँ कमरे के बाहर दरवाजे पर झुंड बना झाँकने का अवसर नहीं खोना चाहती थीं। वार्डन वाले कमरे में ये सब तैयारी चल रही थीं। संधि के लिए इस अवसर का अर्थ था, मंजुला का सदा के लिए उसे छोड़ कर चले जाना। वह कातर-सी न हँसती, न बोलती, दीवार पर बाईं कनपटी टिकाए बस उस अंतर को रेखांकित होते कल्पना में देख रही थी, जिसमें जीजी और उसके बीच बातों, विषयों, स्थान, व्यक्ति आदि-आदि के अंतराल खड़े होने जा रहे थे। जहाँ मंजुला के भविष्य में उसकी कोई भूमिका न शेष रहने वाली थी। मंजुला ने दो-तीन बार उसकी उदासी को अपने भीतर भर लेने वाली निगाह से उसे देखा भी।


मंजुला का विवाह तय हो गया। दो महीने बाद की तिथि निकली। अर्थात् मंजुला को महीना-भर ही अब यहाँ और रहना था। शाम को संधि के कमरे में आकर मंजुला उसे अपने साथ लिवा ले गई। उसके लिए छिपाकर नाश्ता भी वहीं लाई। विमलेश ने भी कमरे में बैठी संधि को ढाँढस दी, गाल थपथपाया और हँसाने के लिए गुद्गुदी-सी की। जीजी ने भी गले लगाकर थपकियाँ दीं। हल्के गाजरी रंग की साड़ी में उनका साफ रंग गमक रहा था। पैर लटकाए बैठी जीजी संधि का सिर अपनी गोद में रखते हुए तख्त के एक सिरे पर सरक गईं ताकि वह लेटी रह सके। बहुत-सी उनकी साथिनें बाईं ओर पड़ते खिड़की के नीचे रखे और सामने वाले तख्त पर बैठी हुईं पता करने में लगी रहीं कि उसके होने वाले साहब कैसे हैं, क्या पूछा, क्या कहा, किसने क्या-क्या किया, क्या लिया-दिया गया, सास कैसी लग रही थी, ननद तेज तो नहीं लगी ? वॉर्डन भी राउंड के क्रम को वहाँ समाप्त करती हुई, छड़ हाथ में लिए जगह बनाकर वहीं पड़ गई। मंजुला का हाथ कई घंटे तक की इस पूरी बैठक में अनायास और अनजाने में भी संधि के बालों में सिर पर फिरता रहा।


अचानक तेज शोर-शराबे और दरवाजे के पीटे जाने की आवाजें आने लगीं। संधि हड़बड़ा कर जग गई। इस घबराहट में तेज बुखार से उस तरह उठने में वह पसीने से तर-बतर हो गई। अंधेरे में तेजी से आस-पास टटोलते समय तक भी उसकी तन्द्रा ने विचार का रूप न लिया था कि वह इस पर सोच पाती कि कहाँ है वह। अंधेरे में ही वह दोनों ओर की दीवार पर टिकी, टूटते और तपते शरीर को निढाल-सा डाल, बैठी-सी हो गई। ‘ रात के कितने बजे हैं और वह कहाँ है ’ तक की अभी उसकी सुध नहीं लौटी थी। दो-चार मिनट में उसे समझ लगा कि उसी का दरवाजा पीटा जा रहा है और बाहर कालेज की प्राचार्या (बड़ी जी’) सहित कोठी का कुछ स्टाफ और वॉर्डन के साथ कुछ भीड़ जुटी है और डंडे से ‘डॉरमेट्री’ में खुलने वाले कमरे के दरवाजे को पीटा जा रहा है। इसके साथ ही उसे यकायक सारी घटनाएँ याद आ गईं कि शाम को वहीं जीजी की गोद में शायद वह सो गई थी। उसके बाद का उसे कुछ पता न था। अब उसका विमलेश और मंजुला के कमरे में रात में पाया जाना, उसकी खाल उधेड़ने को पर्याप्त पाप की तरह था। काँपते हाथों से तख्त का किनारा पकड़ वह अंधेरे में नीचे उतर खड़ी हुई। पैर कँप-कँपा रहे थे, बुखार और डर से पसीने के फव्वारे छूट रहे थे, खड़ा होने की सामर्थ्य तक उसमें न थी। अब वह क्या करे - यही उसे सता रहा था। बाहर से बड़ी-जी’ और वॉर्डन के चिल्लाने व दरवाजा खोलने की दहाड़ों के बीच उसने अंततः बदहवास हो बहुत देर से हॉल में खुलने वाला दरवाजा खोल दिया। दरवाजा खुलते ही चटाक-चटाक चार-छह हाथ उसके सिर, गालों और यहाँ-वहाँ जोर–ज़ोर से बरसे। वह गचका खाकर पीछे की ओर गिरी। हॉल के प्रकाश में उसने देखा कि वॉर्डन ने तुरंत आगे बढ़ कर पेड़ की मोटी टहनी वाली अपनी छड़ उस पर बरसाने को हाथ उठाया है और .....। जाने गिरती संधि में इतनी शक्ति कहाँ से आ गई कि गिरे-गिरे ही उसकी काँपती, तपती, मुर्दा बाँहों ने बाँए हाथ से वॉर्डन की साड़ी नीचे से खींच कर निकाल दी और सिर की मार से वॉर्डन को परे धकेलते हुए वह तख्त से पीठ सटाती ऊपर बैठ गई। इस औचक हमले के लिए कोई तैयार न था। सब उस ओर लपके। इतने में बरामदे की ओर के दरवाजे के खुलने की आहट के साथ ही मंजुला दी’, विमलेश और अन्य कई स्नातिकाओं ने एक साथ झुंड की तरह कमरे में प्रवेश किया और छत से लंबी तार में नीचे तक लटका बल्ब जला दिया। 


मंजुला का चेहरा तमतमा रहा था। वह अपनी छाती की ओर उंगली करते हुए लगातार सब की परवाह किए बिना चीख-चीख कर प्राचार्या, वॉर्डन और कोठी के स्टाफ के सामने ललकार रही थी। संधि की हिचकियाँ बंधी थीं, उसे कुछ पता नहीं कि मंजुला ने क्या कहा ; सिवाय इसके कि बोलते-बोलते वह संधि के पास आ खड़ी हुईं और संधि का सिर अपने से सटा लिया। संधि पर फिर बेहोशी छाने लगी थी..... कुछ आवाजें उसके कान में लगातार पड़ रही थीं या अवचेतन में से कोई स्वप्न-सा रूपाकार ले रहा हो.... जैसे। उसे अपने से चिपकाए मंजुला उस दिन इतना गरजीं कि सब चुपचाप सरक गए....। बाद में दो-तीन घंटे बाद होश आने पर देखा तो पाया कि तब तक अपने सब वहीं जमा थे । संधि समझ नहीं पाई कि मामला शांत हुआ तो कैसे? उसे बिना उस कमरे से निकाले सब चले कैसे गए ! मंजुला दी’ ने आखिर कैसे व क्या डपटा होगा उन्हें। उद्विग्नता से उठ वह बाहर जाना चाहती रही किन्तु सब ने रोक लिया। बस इतना पता चला कि अब कोई कुछ न कहेगा उसे। पर वह शाम संधि के भीतर आतंक की घोर छाया बन कहाँ-कहाँ से कौन-कौन-सा उजाला छीन ले गई .... इसका पता जीवन की किसी किताब में दर्ज न हुआ। 


हुआ यों था, कि शाम को संधि मंजुला दी’ की गोद ही में सो गई। जब खाने की घंटी बजी तो उसे वहीं सोता छोड़कर सब खाना खाने चले गए। सदा की तरह जाते समय बाहर से ताला भी लगा दिया गया, जैसा कि हर कमरे वाले सदा से करते आए थे। अब किसी ने कोठी तक खबर पहुँचा दी कि अंधेरे में मंजुला वाले कमरे के अंदर संधि है। कमरे के दो दरवाजे होने के कारण खुद को बाहर ताला लगाकर भी अंदर बंद कर लेना बहुत आसान था कि बरामदे वाले दरवाजे को बाहर से ताला लगाकर कोई हॉल वाले दरवाजे से अंदर आ जाए और फिर उस दरवाजे को अंदर से बंद कर ले। देखने वालों को पहली नजर में कमरे में किसी के न होने का ही प्रमाण मिलेगा। दूसरी तरफ डायनिंग में रोज की तरह बाकी स्नातिकाओं के साथ मंजुला को खान-पान व्यवस्था का निरीक्षण करते न पाने पर वॉर्डन ने संधि के साथ अंधेरे में मंजुला का कमरे में बंद होकर छिपे होने का अनुमान लगा लिया था। जबकि मंजुला अपनी उदासी के कारण उस दिन व्यवस्था देखने वालों में खड़ी ही नहीं थी, वह जमीन पर बिछी जूट की पट्टियों में लड़कियों की भीड़ के साथ ही बैठी रही थी। वॉर्डन की किसी ईर्ष्या ने तुरंत बदला लेने की योजना बना डाली थी। बातों-बातों में प्रसंग छिड़ने पर, 35 से 55 वर्षीय अध्यापिकाओं में से एक ने, बाद में बताया था, कि उसकी उपस्थिति में ही वॉर्डन ने कोठी में कहा था - ‘‘ हम तो एक तख्त पर भी आराम से नींद नहीं निकाल पाते, पर पता नहीं मंजुला और संधि एक तख्त को कैसे साँझा करती हैं, जैसे अभी ’’ और यह कह वह खिलखिला पड़ी थी।



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संधि ने मुझे हॉस्टल की इस घटना के बाद अपने निरंतर दुःख और चिंता में डूबते जाने की कई बातें सुनाईं। सबसे अधिक डर उसे अपने अकेले हो जाने वाली संभावना से लगने लगा था। साथ ही मंजुला के चले जाने पर सहारा छिन जाने की पीड़ा से भी वह भरती चली जा रही थी। इन आशंकाओं, तनाव, भय, पीड़ा जैसी अलग-अलग कई तरह की मनःस्थितियों से त्रस्त वह केवल आँसू बहाया करती और छटपटाती।


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अंततः मंजुला के जाने का दिन भी आ गया। उसका भाई उसे लिवाने आ पहुँचा था। अगले दिन मंजुला दी’ को लेकर उसे लौटना था। मंजुला ने संधि को ढाँढस बँधाती चली आने वाली बातों के अपने क्रम में दोपहर में उसे फाटक के बाहर (पर आश्रम के परिसर में ही बने) कॉलेज में बुला लिया। दोपहर की दो कक्षाओं के बाद, जब सब लड़कियाँ फाटक के अंदर लौट गईं, तब मंजुला और संधि वहीं बगीचे में पेड़ की ओट में बैठ गईं। आज सखियों की विदाई का दिन था। संधि को जीवन में अब कभी इस तरह साथ न रह पाने का दुःख साल रहा था, उसके लिए उसके जीवन के एक चरण का अंत था वह दिन। दोनों गले लगी घंटों रोती रहीं। 


उनका भाई 4 बजे के आसपास एक बार बहन से मिलने पता करता वहाँ तक आया तो उसके बाद जीजी ने संधि को सावधान होकर एक बात सुनने को तैयार किया। जो कुछ जीजी ने संधि को अपना ध्यान रखने का निर्देश देते हुए बताना चाहा वह संधि की समझ से ऊपर की चीज थी। तब उन्होंने साफ-साफ शब्दों में एक घटना का उदाहरण दिया। वॉर्डन अक्सर उनके कमरे में सामने वाली खिड़की के नीचे पड़े तख्त पर सो जाया करती थी, अक्सर यह कहती हुई कि ‘‘चलो, अब 4-5 घंटे की तो बात है, तड़के उठकर 4 बजे घंटी बजवानी है, तो अब क्या अपने कमरे में बोर होने जाया जाए, यहीं सो जाती हूँ, बिस्तर तो खाली पड़ा ही है यहाँ ’’। सप्ताह में दो-तीन बार से भी ज्यादा ऐसा होता रहता अक्सर। विमलेश के छुट्टी लेकर घर चले जाने वाले 15 दिन तो लगातार वॉर्डन वहीं सोती रही। एक दिन नींद में दम घुटने जैसा लगने पर मंजुला की अपने बिस्तर पर वॉर्डन को पा, नींद टूटी। वह बड़े पागलपन में मंजुला के होंठ अपने होंठों में जोर से दबाए उसकी देह से लिपटी, लगातार उसे भींच रही थी। एक टाँग, सोती मंजुला की उघाड़ दी गई टाँगों पर और दूसरी, टाँगों के नीचे फँसाने की बेचैन जिद में उसने तुरंत अपना बाँया हाथ मंजुला के होंठों पर रख कर मुँह दबा दिया। ऐसा करते हुए वॉर्डन ने अपनी गर्दन उठाई व कुहनी पर टिक, सारा हाथ का जोर मुँह दबाने में लगा दिया ; उस पर उसकी देह के बोझ से भी साँस लेने तक को तड़फड़ाती मंजुला न डरी, न काँपी, बस आग-बबूला होकर घुटने को तेजी से मोड़ उसने वॉर्डन की पकड़ को टाँगों से ढीला किया तो वॉर्डन ने झटके से मंजुला की कुरती (ढीला कुरतेनुमा ब्लाउज़) में दाहिना हाथ डाल दिया। यही वह क्षण था जब उसकी कोहनी की टेक कमजोर हुई और मंजुला ने उसे परे धकेल दिया तथा स्वयं दरवाजा खोल बाहर की ओर भाग ली। आँगन में पत्थर के बिछे पाट पर हाँफती आकर बैठ गई। तभी कुछ देर बाद पीछे से वॉर्डन ने आकर सामने खड़े हो, हाथ-जोड़ कहा - ‘‘माफ कर देना, पता नहीं कैसे मुझे होश नहीं रहा। किसी से कहना मत, पैर पड़ती हूँ, मारी जाऊँगी, कोई नहीं है बाहर संसार में मेरा, निकाल दी गई तो कहीं जाने की जगह नहीं, माफी दे दे ’’। यह कह तत्क्षण वहाँ से चली गई।


संधि ने मुझे बताया कि मंजुला से इस घटना को जान कर भी उसके अर्थ से वह एकदम अनजान और कोरी रही। हाँ, मंजुला के, किसी को पास न फटकने देने के, आदेश के प्रति संधि ने उसे निश्चिंत कर दिया। इस घटना को सुनने-सुनाने के बाद मंजुला और संधि दोनों अपने आँसू भूल गईं। मंजुला का मन एक रूखेपन व कड़ाई से भर चुका था और संधि का तो वहाँ से तुरंत भाग जाने की जुगत लगाती स्तब्धता में। अंत में मंजुला ने उसके बाबा को तुरंत पत्र लिखकर उसे आश्रम से वापिस बुला लेने के अपने निश्चय की बात बताई और संधि से वादा लिया कि बाबा या किसी और को कभी मत कुछ बताना। ‘‘ मैं तुम्हारे बुखार के कारण वहाँ से ले जाने को उन्हें कहूँगी और कोठी वालों से भी ऐसा पत्र अपनी उसी धमकी के जोर पर लिखवाने की बात करती हूँ ’’। दोनों फिर गले मिलीं और हाथ थामे आश्रम के अंदर लौट आईं। 


रात-भर जीजी का सामान बाँधे जाता देखती संधि की विस्फारित आँखे सूखी पड़ी थीं, वह निरंतर मानो अपने ऊपर होने वाले किसी शिकारी के आक्रमण की आशंका में बचाव के तरीके सोचने में जुटी थी। तड़के जीजी उसका माथा चूम और गले मिल सदा के लिए छोड़ चली गईं। महीने-भर बाद उनके विवाह के आसपास की तिथियों में संधि अपने तेज बुखार में तपती वॉर्डन के कमरे में बैठे डॉक्टर को दिखाने ले जाई गई। थर्मामीटर में बुखार 107 डिग्री से ऊपर निकला। उसे थामकर लड़कियों ने बिस्तर पर लिटाया, तो आठवें दिन उसने होश आने पर आँखें खोलीं। बाबा तीन दिन से, उसके होश में आने पर उसे सदा के लिए साथ ले जाने, आए पहुँचे थे। उन्हें संधि के बेसुध हो जाने पर तार देकर बुलवा लिया गया था और मंजुला का पत्र भी उससे कुछ दिन पहले उन्हें मिल गया था।


***

संध्या (संधि) के जीवन का यह प्रकरण यहीं पूरा हुआ। इतना-भर तुम्हारी फिल्म की कथा के लिए फिल्माया जाना तय हुआ था। मुझे तो क्योंकि आश्रम के पहरावे आदि का कोई अनुमान तक नहीं था, इसलिए संधि को ही उसके अपने निरीक्षण में तैयार करवाने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी, जिसे उसने बड़े यत्न से पूरा भी किया। .......... लेकिन इसी बीच बुखार में कार चलाते हुए हुई दुर्घटना में उसका न रहना, शायद उस वचन का पूरा होना था, कि `वह किसी को कभी कुछ नहीं बताएगी ’।



तुम्हारे पिछले पत्र से पता चला था कि फिल्म की शूटिंग पूरी हो गई है और स्टूडियो में एडिटिंग, डबिंग और ऑडियो आदि के काम अपने अंतिम चरण में है। तुमने मुझसे संधि का चित्र भी माँगा था, ताकि फिल्म उसकी स्मृति को समर्पित की जा सके। उसका चित्र डाक से भेज रही हूँ। और ‘इंट्रो’ में संधि पर पाँच मिनट कुछ कहने के लिए मैं अपनी आवाज भी देने की तुम्हारी इच्छा अवश्य पूरी करूँगी। लिखना, कि मुझे कब लंदन पहुँचना होगा ?

 - कविता वाचक्नवी
लंदन 






























मंगलवार, 5 फ़रवरी 2013

देह पीड़ा से भले लहरी नहीं ... : कविता वाचक्नवी

देह पीड़ा से भले लहरी नहीं .......  :  कविता वाचक्नवी



वर्ष 2003 के आसपास लिखी अपनी एक ग़ज़ल को अपने ही स्वर में 'डेनमार्क' के रेडियो सबरंग के लिए वर्ष 2008 में चाँद शुक्ला जी के आदेश व माँग पर सस्वर रेकॉर्ड करवाया था। 


यों तो यह गजल उनकी साईट पर मेरी कई अन्य कविताओं के काव्यपाठ सहित वहाँ गत 4-5 वर्ष से उपलब्ध है और वागर्थ हिन्दी-भारत आदि पर साईडबार में भी; किन्तु लिखित पाठ के साथ पहली बार यहाँ प्रस्तुत कर रही हूँ। 

सस्वर पाठ इस लिंक को क्लिक कर सुना जा सकता है -



     देह पीड़ा से .....
 - कविता वाचक्नवी

देह पीड़ा से भले लहरी नहीं 
नाग से तो प्रीत कम ज़हरी नहीं 

राज-मुद्रा ने तपोवन को छला 
जबकि मर्यादा रही प्रहरी नहीं 

मैं उठाए बाँह बटिया पर पड़ी 
जिंदगी मेरे लिए ठहरी नहीं 

डूब पाती मैं भला कैसे यहाँ 
झील तो दिल से अधिक गहरी नहीं 

गाँव, घर, द्वारे इसे प्यारे लगें 
आज भी 'कविता' हुई शहरी नहीं 


रविवार, 3 फ़रवरी 2013

पुस्तकें अ-वाक् हैं !

पुस्तकें अ-वाक् हैं !   - कविता वाचक्नवी


आज  'जनसत्ता' के "रविवारी" परिशिष्ट में मेरा एक लेख प्रकाशित हुआ है "किताब की जगह" शीर्षक से। उस लेख का मूल अविकल पाठ प्रकाशनोपरांत अपने ब्लॉग के पाठकों के लिए भी यहाँ प्रस्तुत कर रही हूँ - "पुस्तकें अ-वाक् हैं"। 

दिल्ली से लेकर देश के अलग स्थानों में क्रम से पुस्तक-मेला आयोजित हो रहे हैं, उधर जयपुर में अभी अभी साहित्यिक-मेला सम्पन्न हुआ है। ऐसे में अधिकांश साहित्यिक मित्र पुस्तकों की खरीद और लेखकों के संवादों में गुम हैं। पुस्तकें केंद्र में हैं, चर्चा के केंद्र में भी व देश के केंद्र (राजधानी ) में भी। मन पुस्तकमय तो सदा ही रहता है परंतु अभी अवसर गंभीर है .....पुस्तकमय वातावरण है, कह लेना प्रासंगिक होगा। मैंने अपनी पुस्तकें कभी किसी को न देने का नियम बना रखा है। पुस्तकों को अत्यंत सहेज कर करीने से व जान से भी अधिक सम्हाल के साथ रखने की आदत है। जबकि अनुभव यह बताता है कि अधिकांश लोग पुस्तकों के प्रति अत्यधिक क्रूर होते हैं। वे समाचारपत्रों की भांति पुस्तकों को भी तोड़-मरोड़ कर पन्ने मोड़ते हुए, कभी जिल्द की ओर पीठ मिलाते हुए आदि-आदि ढंगों (?) से कभी भी, कहीं भी व कैसे भी रख देते हैं। धूल-मिट्टी की तो क्या कहें दूसरी भी जाने खानपान आदि की कैसी-कैसी गंदगी व दाग-धब्बे उन पर लगते रहते हैं। 


यदा-कदा किसी कारण-विशेष से अपने संकलन की कोई पुस्तक जब-जब किसी को दी, पुस्तक की दुर्गत हो गई और इस कारण वह व्यक्ति सदा के लिए मन में अपराधी की तरह स्थापित हो गया.... संबंध बिगड़ गए। पुस्तकों के प्रति अपनी इस अति सावधानता के चलते देश-विदेश से महँगे-महँगे व तरह तरह के 'बुकमार्क' खरीदने का भी शौक साथ पलता रहा। पति देश-विदेश से सुंदर-सुंदर कीमती 'बुकमार्क' उपहार मेरे लिए साथ ले कर आते। 


पुस्तकें जब-जब यदा-कदा किसी को दीं, वे बिगड़ी व बुरी अवस्था में ही वापिस मिलीं, किसी के पन्ने झूल रहे होते, किसी के मुड़े-तुड़े, किसी की जिल्द फट गई होती, किसी का पन्ना गायब होता, किसी पर चाय के कप रखने के या चाय को ढकने के धब्बे मिलते... यानि पुस्तकों के प्रति बरती जाने वाली अपार निर्ममता से मेरा कलेजा चाक चाक हो जाता और क्रोध व व्यक्ति के प्रति घृणा से जाने कितना खून जलता व मन कलपता। 


..... और तो और उस अज्ञात व्यक्ति के विरुद्ध गत 8-9 वर्ष से मन क्रोध से भरा है, जो हमारे संकलन से 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' (डॉ. नगेन्द्र ) को ऐसा ले गया कि आज तक वह पुस्तक वापिस नहीं लौटी। इतनी क्रूर सावधानी के बावजूद किसने, कब व कहाँ वह पुस्तक चुराई, यह आज तक पहेली है। 


प्रत्येक कुछ दिन बाद यह बात मन को घेर लेती है और मन क्षोभ से भर उठता है। भले ही पुस्तक का दाम कोई बहुत अधिक नहीं है और सर्वसुलभ है यह पुस्तक, किन्तु पुस्तकों के प्रति यह अनाचार सहनशक्ति से परे हो जाता है। 


भले ही यहाँ इस आदत व बात के विरोध में व्यक्ति व संबंध को पुस्तकों से अधिक महत्व देने का तर्क लाया जा सकता है अथवा पुस्तकों को अधिकाधिक लोगों तक पहुँचाने व अपने तक सीमित न रखने के तर्क द्वारा इस का भरपूर खंडन किया जा सकता है किन्तु ये सब तर्क अपनी अति मूल्यवान वस्तु के साथ लगाकर देखें तो क्षण-भर में ये धराशायी हो जाएँगे। ऐसे तर्क देने वालों से यह पूछना अनिवार्य है कि क्या वे अपने स्वर्णाभूषण व अन्य अनमोल वस्तुएँ इस बाँट कर बरतने के तर्क से बरतते हैं? 


जब भी किसी की पुस्तक लें, उसे जी-जान से सहेज कर रखें। अपनी पुस्तकों को भी सदा बहुत सावधानी व सफाई से सतर्कतापूर्वक बरतें, पढ़ें। आपने-हमने भले ही कागज, जिल्द व प्रकाशन का दाम चुका दिया है किन्तु उसमें निहित लेखक के ज्ञान का दाम हम कभी चुका नहीं सकते। केवल उसका सम्मान करके ही अपनी कृतज्ञता ज्ञापित कर सकते हैं और अपने आसपास के लोगों को यह समझा-बता सकते हैं कि पुस्तकें भी मूल्यवान वस्तु होती हैं, उनका मोल समझा जाना चाहिए, उन्हें भी अतिमूल्यवान वस्तुओं की भांति सुरक्षा और सतर्कता चाहिए। बचपन में जब कभी कोई पुस्तक गलती से गिर जाती या पैर आदि छू जाया करता था तो मशीनी गति से अपने आप बिना विचारे उसे उठाकर सिर से लगाए जाने की क्रिया दुहराई जाती थी... । वस्तुत: ठोस यथार्थवादी की दृष्टि से देखें तो पुस्तक जड़ पदार्थ है, उसे गिरने या सिर पर रखने से कोई सुख दु:ख नहीं होता किन्तु अपने मन के संस्कारों को सही दिशा देने के लिए यह अनिवार्य था कि बच्चों को ज्ञान का मूल्य पता हो और उनमें ज्ञान को पददलित करने के प्रति अपराधभाव पैदा हो.... । आवश्यक नहीं कि प्रत्येक बालक लेखक ही बनता हो किन्तु यह भी कहाँ अनिवार्य है कि लेखक होने के नाते ही पुस्तक का सम्मान किया जाए ? पुस्तक-संस्कृति को विकसित करने की दृष्टि से पुस्तकों का सम्मान किया जाना अनिवार्य है।


यों तो यूनेस्को द्वारा 1995 से 'विश्व पुस्तक दिवस' 23 अप्रैल को मनाया जाता है किन्तु यहाँ ब्रिटेन में प्रत्येक वर्ष मार्च के प्रथम गुरुवार को 'पुस्तक-दिवस' मनाए जाने की परंपरा तत्कालीन प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर ने 1998 में स्थापित की। इस दिन प्रत्येक छात्र को एक ‘वाऊचर’ भेंट दिया जाता है, जिस से वह अपनी पसंद की पुस्तकें खरीदता है। इसके अतिरिक्त बच्चों व सर्वसाधारण में पुस्तकों के प्रति प्रेम के लिए पुस्तकालय दिवस भी प्रतिवर्ष मनाया जाता है। यह प्रत्येक फरवरी के प्रथम अवकाश (शनिवार) को होता है। इस वर्ष इसका आयोजन 9 फरवरी को है। इस दिन प्रत्येक परिवार अपने-अपने मोहल्ले में स्थित पुस्तकालय में जाता है व स्वयंसेवा की जाती है। पुस्तकालय की साफ-सफाई के अतिरिक्त व्यवस्था, कैटलॉग, सजावट, जिल्द लगाना आदि बीसियों काम लोग स्वेच्छा से व निश्शुल्क करते हैं। पश्चात् 'लाइब्रेरियन' का सम्मान आयोजित होता है व लेखकों से आमने-सामने सीधे संवाद का आयोजन किया जाता है। लोग अपने घरों की पुस्तकें पुस्तकालय को दान स्वरूप भेंट भी करते हैं। लेखकों की पुस्तकों पर उनके हस्ताक्षरों सहित खरीद का विकल्प भी दिया जाता है।


हमारे हिन्दीभाषी समाज व भारतीय पुस्तकालयों में पुस्तकों का यह सम्मान अनूठी चीज हो सकता है। यद्यपि वसंत पंचमी के दिन कभी इसका प्रावधान भारतीय समाज में भी था; किन्तु समय के साथ इन चीजों को ढकोसला, ढोंग व पोंगापन समझा जाने लगा है और पुस्तकों की घटती लोकप्रियता व पठनीयता के संकट ने रही सही कसर पूरी कर दी है। लोग क्रमश: पुस्तकों को जड़ पदार्थ समझ कर उनके प्रति असवाधान तो हुए ही हैं, उनमें निहित ज्ञान के प्रति भी असावधान हुए हैं। सबसे बड़ा ज्ञान अब वही है जो सबसे अधिक धनार्जन करवा सकता हो। अर्थात् मूल में धन आ गया है। ज्ञान हाशिये पर है तो पुस्तकें भी हाशिये पर रहेंगी ही। कुछ लोग उनके हाशियाकरण पर विचलित भले रहें ... रहें तो रहें ! मस्तिष्क को आहार देने का प्रावधान नहीं होने से क्या व्यक्ति और समाज संतुलित स्वस्थ हो सकते हैं ? विचार करना होगा ! पुस्तक संस्कृति विकसित करने के लिए पुस्तकों को मूल्यवान वस्तु समझने का संस्कार बनाना अनिवार्य है और मूल्यवान पदार्थों की रखरखाव कैसे की जाती है, यह सामान्य से सामान्य व्यक्ति भी जानता है। वैसा ही रख-रखाव पुस्तकों को भी चाहिए, भले ही उनका मुद्रामूल्य बहुत कम हो।


यों यह बात भी कम आश्चर्य की नहीं है कि एक ओर हम पुस्तकों की खरीद न होने व पठनीयता तक के ह्रास के पीछे उनका मुद्रामूल्य अधिक होने का तर्क देते हैं और दूसरी ओर सस्ती से सस्ती वस्तु तक से अधिक निरादर देते हुए उनके रखरखाव व सम्हाल के प्रति इतने अ-जागरूक हो जाते हैं कि घरों में तो क्या पुस्तकालयों तक में पुस्तकों की दुर्दशा रोंगटे खड़े कर देने वाली है। उदाहरण देना भी बेमानी है, क्योंकि जिन्होंने नामचीन पुस्तकालय व गोदाम सच में गहराई से खंगाले होंगे वे इस बात से परिचित होंगे। हाशिये से बाहर धकेल दी गई पुस्तक-संस्कृति सामाजिक कदाचार का मूल है या सामाजिक कदाचार पुस्तकों को बाहर धकेल दिए जाने का मूल, या दोनों ही अन्योन्याश्रित ! पुस्तकों को बचाइए, यदि मानव को और समाज को बचाना चाहते हैं तो ! क्योंकि पुस्तकों से प्रेम भी प्रेयसी या प्रिय से प्रेम की तरह टूटकर ही किया जाना चाहिए ।


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