रविवार, 11 मार्च 2012

हिन्दी का 'प्रवासी' साहित्य और आपत्तियों का औचित्य : (डॉ.) कविता वाचक्नवी

हिन्दी का 'प्रवासी' साहित्य और आपत्तियों का औचित्य  :  (डॉ.) कविता वाचक्नवी 





अभी अभी एक ईमेल द्वारा प्राप्त सूचना के पश्चात् प्रवासी दुनिया पर सुधा ओम ढींगरा जी की डॉ. कमलकिशोर गोयनका जी से बातचीत पढ़ी। अच्छी लगी। गंभीर व विचारणीय मुद्दे सुधा जी ने उठाए हैं और गोयनका जी ने भी तर्कपूर्व ढंग से उनके समाधान दिए हैं। इस बातचीत द्वारा हिन्दी भाषा व साहित्य के वर्तमान परिदृश्य की स्थितियाँ फिर से साफ होती हैं। विदेशों में रचे जा रहे हिन्दी के साहित्य को प्रवासी साहित्य कहने वाले मुद्दे पर भी काफी खुल कर चर्चा हुई है। 


मैं गोयन्का जी से सहमत हूँ और यह देखा जाना व इस बात को रेखांकित किया जाना अनिवार्य ही था कि प्रवासी वाले मुद्दे पर विरोध करने वाले लोग स्वयं पत्रिकाओं के प्रवासी विशेषांकों/अंको में बढ़ चढ़ कर छपते हैं, प्रवासी के नाम से सारे लाभ लेते हैं, लाभ देने वालों से प्रवासी बन कर गद् गद् होते हैं, पहचान स्थापित करने के दौर में स्ट्रेट्ज़ी के तौर पर इस खाते में अपने को सम्मिलित करते करवाते हैं, उपकृत होते हैं, उपकृत करते हैं और जब तथा जिन के माध्यम से पहचान बना लेते हैं उन्हीं के सामने प्रवासी शब्द के औचित्य पर गवेषणाएँ करते हैं। 


क्यों नहीं मान लिया जाता कि भारत से बाहर रहकर हिन्दी में लेखन करने वालों के लिए यह शब्द रूढ़ अर्थ में प्रयुक्त होने लगा है? जैसे, हिन्दी साहित्य में 'आधुनिक हिन्दी कविता' के दायरे में इतना बड़ा कालखंड (लगभग100 वर्ष से अधिक) सीमित है, न कि आज की या एकदम आधुनिक कवितामात्र; उसी प्रकार प्रवासी शब्द एक विशेष स्थिति का वाचक-भर है। 


सच है कि भाषा या साहित्य प्रवासी नहीं होता किन्तु उसका रचयिता तो प्रवासी हो सकता है। उस संज्ञा- विशेष के लिए यदि एक शब्द रूढ़ कर भी दिया गया / हो गया तो अब उस पर हल्ला गुल्ला मचाने से आगे बढ़ने की आवश्यकता है। फिर जो लोग प्रवासी के नाम पर सारे रिजर्वेश्ञ्ज लेते आए हैं, लेते हैं, लेते रहे हैं उन लोगों द्वारा हल्ले का औचित्य समझ नहीं आता। 


प्रवासी के रूप में थोड़ी बहुत पहचान बना चुकने के बाद इस शब्द के औचित्य पर विमर्श करते समय प्रत्येक (लाभ लेने वाले)  के लिए यह समझ लेना भी रोचक होगा कि उनकी प्रवासी के रूप में कुछ पहचान तो है, अन्यथा  मुख्यधारा की गति तो ऐसी है कि वह जाने किस किस आधार और कारण से किस किस को बाहर निकाल फेंकगी, कोई नहीं जानता। वहाँ बड़े दिग्गज लेखक तब तक मायने नहीं रखते जब तक वे किसी धारा (विचार)-विशेष से, क्षेत्र-विशेष से, बोली-विशेष से, व्यक्ति-विशेष से या स्कूल-विशेष से आयत्त नहीं होते हैं। वहाँ तो सचमुच के योग्य लेखक को किसी रिज़र्वेशन के आग्रह के चलते काट फेंका जाता है। बड़े बड़े रचनाकार ऐसी गुमनामी का जीवन जीने को अभिशप्त हैं कि क्या कहिएगा। 


इसलिए प्रवासी के खाँचे वालों और प्रवासी के रिजर्वेशञ्ज के नाम पर लाभ लेते चली आई परंपरा व दादाओं को पहचान, लड़ाई और अवसर के लिए कम से कम तुलनात्मक रूप में एक छोटे-से सीमित संकाय में युद्ध और राजनीति करनी है [:)] इस पर प्रसन्न होना चाहिए; वरना हिन्दी समाज की भयंकर गंदी और ओछी राजनीति में बड़े नए संकट और मोल लेने पड़ सकते हैं।


 `मुख्यधारा' और `प्रवासी धारा'  की राजनीति  की चौपड़ में बचा खुचा तबाह करने की कवायद किसे रुचेगी भला ? इसलिए यही अच्छा है कि वे लोग जो वास्तव में लेखकीय प्रवृत्ति के हैं, इस घिनौनी राजनीति से दूर रहें, राजनीति के आकाओं को यह खेल जी-भर खेलने दें  और तमाशा देखें। वरना बाँस भी जल जाएँगे और बांसुरियाँ भी न बन पाएँगी। बेचारे नीरो कैसे बाँसुरी बजा पाएँगे फिर  !


इसके साथ ही यद्यपि प्रवृत्तिमूलक साहित्य की चर्चा का प्रश्न भी जुड़ा है, किन्तु उस पर फिलहाल किसी को ध्यान देने की फुर्सत नहीं है, क्या संभवतः इसलिए कि वैसा होते ही बहुत कुछ स्वतः ही धराशायी हो जाएगा !

शेष फिर कभी !