गुरुवार, 29 दिसंबर 2011

भारतीय स्त्री कविता का भास्वर संकलन : `युद्धरत आम आदमी' व `हाशिए उलाँघती स्त्री'

 भारतीय स्त्री कविता का भास्वर संकलन :  `युद्धरत आम आदमी' व 'हाशिए उलाँघती स्त्री' 





वर्ष 2004 में  रमणिका फ़ाउंडेशन की पत्रिका "युद्धरत आम आदमी" के दो विशेषांकों की योजना रमणिका गुप्ता जी ने बनाई थी। एक विशेषांक भारतीय भाषाओं की स्त्री कविता का और दूसरा स्त्री लेखन (गद्यभाग) का। 


यह निस्संदेह एक बड़ी विशाल व श्रमसाध्य योजना थी। रमणिका दी' अपने जुझारूपन, कर्मठता  और अतीव उत्साह के लिए भी अपने आप में विशिष्ट उदाहरण हैं। 2008 में उन्हें आए हृदयाघात के दिनों में उन्होने स्वयं अस्पताल से ही फोन कर के मुझे अपनी रचनाएँ इन विशेषांकों के लिए भेजने को कहा। मैंने उनके जीवट और आत्मीय स्नेह के चलते इसी उद्देश्य से एक नई  (काफी लंबी ) कहानी लिखी और `सहेली होने का पाप' शीर्षक से सितंबर 2008 में उन्हें  भेज दी। (गत दिनों इस कहानी का नाम बदल कर केवल `पाप' कर दिया है)


इस बीच वर्ष 2009 के दिसंबर माह में भारत जाने पर मैं लंबी अवधि तक (लगभग 15 दिन ) रमणिका जी के आवास पर ही रुकी। उन दिनों "हाशिये उलाँघती स्त्री" के पद्य भाग के दो खंडों में होने की योजना पर कार्य चल रहा था। रमणिका जी रात-रात भर बैठ कर प्रूफ देखा करती थीं और विविध भारतीय भाषाओं की हिन्दी में अनूदित हो कर आई कविताओं के पुनर्लेखन की भी आवश्यकता पड़ा करती थी ताकि उन्हें हिन्दी के मुहावरे में सही सही ढाला जा सके। प्राप्त कविताओं में से कुछ कविताओं को उन दिनों रमणिका जी के साथ बैठ कर नए रूप में ढाला, ढलते देखा। 


अंततः `युद्धरत आम आदमी' का  `हाशिए उलाँघती स्त्री' नामक  भारतीय स्त्री कविता का भास्वर संकलन (2 अंकों में) तैयार हो कर आ गया।  26 मार्च 2011 को इनका लोकार्पण  साहित्य अकादेमी, रमणिका फाउण्डेशन और ‘युद्धरत आम आदमी’ के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित एक दिवसीय कार्यक्रम में भव्य तरीके से सम्पन्न हुआ। 


मेरी लेखकीय प्रतियाँ भारत के हमारे डाक पते पर भिजवा दी गईं। जुलाई में  उनकी स्कैन प्रति प्राप्त होने पर उन्हें देख पाने का सुयोग मिला। 


`हाशिये उलाँघती स्त्री' के इस भास्वर संकलन का पहला खंड हिन्दी कविताओं का है व दूसरा खंड हिन्दी में अनूदित भारतीय भाषाओं की कविताओं का।  

दोनों अंकों की संपादक हैं रमणिका गुप्ता जी और अतिथि संपादक हैं  कवयित्री `अनामिका' । 




विशेषांक (प्रथम अंक) में मेरी जो कविताएँ सम्मिलित हैं, वे हैं -

१. बच्चियो
२. रुमालों पर 
३. मैं कुछ नहीं ..... 
४. मैंने दीवारों से पूछा 
५. औरतें डरती हैं
६. गौरैया



 पढ़ते समय कृपया ध्यान रखें कि मेरी इन कविताओं के प्रकाशन में कुछ बहुत भारी त्रुटियाँ रह गई हैं। यथा, पहली वाली कविता में एक अन्य कविता का अंश जुड़ा हुआ है (आधी एक व आधी दूसरी मिला कर ) और अंतिम कविता में भी कुछ ऐसी ही चूक आ गई है। टायपिंग/प्रूफ और वर्तनी की त्रुटियाँ छूट गई हैं।   अस्तु ! इतनी बड़ी योजना में अनेक लोगों व लंबे समय तक चली प्रक्रिया के चलते ऐसी त्रुटियाँ विशेष महत्व नहीं रखतीं।  इन कविताओं का सही पाठ इसी ब्लॉग पर अथवा कविताकोश में संकलित मेरे संकलन पर पढ़ा जा सकता है। :) 

-(डॉ.)  कविता वाचक्नवी











आयोजन के पश्चात रमणिका फाउंडेशन एवं साहित्य अकादेमी द्वारा 26 मार्च 2011 को जारी समाचार की प्रति - 



"राजधानी दिल्ली में पहली बार 25 भिन्न भारतीय भाषाओं की स्त्रीवादी कवयित्रियों की अनुगूंज सुनाई दी। स्त्री मुक्ति और स्त्री सौंदर्य की परिभाषा को नये सिरे से गढ़ते हुए महिला कवियों ने एकमत से कहा कि अब स्त्रीवादी लेखन को लेकर आनंद का समय आया है। मौका था साहित्य अकादेमी, रमणिका फाउण्डेशन और ‘युद्धरत आम आदमी’ के संयुक्त तत्वावधान में ‘हाशिये उलाँघती स्त्री’ कविता-पाठ पर एक दिवसीय कार्यक्रम का। 

26 मार्च को हुए इस कार्यक्रम ब्रजेन्द्र त्रिपाठी ने अतिथियों का स्वागत करते हुए कहा कि साहित्य अकादमी एक सांझे मंच की तरह भारत की तमाम भाषाओं के साहित्य के तौर पर मिलाने का काम कर रहा है। रमणिका फाउण्डेशन के साथ साहित्य अकादमी ने और भी काम किया है। उन्होंने बताया कि रमणिका फाउंडेशन द्वारा तैयार आदिवासी अंक को देख कर एक आदिवासी ने कहा कि ऐसा कार्य तो हमने आज तक नहीं देखा। उन्होंने रमणिका फाउंडेशन के कार्य को रेखंकित करते हुए कहा कि इस आयोजन के जरिये उन्होंने एक इतिहास रच दिया है।

रमणिका गुप्ता अध्यक्ष रमणिका फाउण्डेशन एवं संपादक ‘युद्धरत आम आदमी’ के आरंभिक भाषण में ें ‘हाशिये उलांघती स्त्री’ विषयक गोष्ठी और इसी नाम से इसी विषय पर प्रकाशित युद्धरत आम आदमी के विशेषांक की स्त्री-दिवस के उपलक्ष्य में विशेष चर्चा करते हुए स्त्री मुक्ति की अवधारणा के विकास के बारे में चर्चा की। उन्होंने कहा कि कविता में स्त्री मुक्ति की अवधारणा के बीज हिन्दी में मीरा, पंजाबी में पारो परेमन और में कन्नड़ की अक्कमहा देवी (अक्कअम्मा) तक जाते है। इस संकलन में हमने 334 स्त्री मुक्ति पर लिखने वाली कवयित्रियों को शामिल किया है जिनमें 127 हिन्दी की हैं और 207 हिन्दीतर भाषाओं की। इन सभी भिन्न-भिन्न भाषी कविताओं में स्त्री मुक्ति का एक सुर गूंजा है, भले उसका स्वर, लय या धुन भिन्न-भिन्न हो। अपने आरंभिक वक्तव्य में रमणिका गुप्ता ने विशेषांक की तैयारी के दौरान आई चुनौतियों के बारे में बताया और कहा कि उनकी कोशिश स्त्रिायों को पुरुष के खिलाफ खड़ा करना नहीं है। स्त्री की मुक्ति का अर्थ पुरुष से मुक्त होना लगा लिया जाता है, देह की मुक्ति का आशय यौनता से लगाया जाता है जबकि हमारा आशय मानसिक तथा दैहिक स्तर पर अपने निर्णय लेने के अधिकार से है। उन्होंने स्पष्ट किया कि स्त्री-मुक्ति के आंदोलन का मतलब यह नहीं कि इसमें सिर्फ महिलाएं ही शामिल हों बल्कि यह पुरुषवादी दृष्टि से सोचने-समझने की एक खास मानसिकता में कैद हो चुके समाज को मुक्त करने को आंदोलन है, स्त्री-पुरुष को समाज में समान दर्जा दिलाने की मुहिम है। जाहिर है मुक्ति के इस आंदोलन में स्त्री-पुरुष दोनों की साझी जरूरत है। उन्होंने कहा कि स्त्रियों को पुरुष-दृष्टि से सौंदर्य की परिभाषा गढ़ने की जगह अपनी सौंदर्य-दृष्टि विकसित करनी होगी। उन्होंने कहा कि एक मध्यवर्गीय कामगार महिला, एक मजदूर महिला और एक अभिजात वर्ग की महिला के लिए स्त्री-मुक्ति की अवधारणाएं अलग-अलग हैं। उनके सौंदर्य की कसौटियां भी अलग-अलग हैं। हो सकता है कि एक अभिनेत्री के लिए कमनीय देहयष्टि की जरूरत हो, पर एक मजदूर महिला के लिए स्वस्थ और हट्टे-कट्टे शरीर की आवश्यकता है। इसलिए महिलाओं को भी सौंदर्य-शास्त्रा की पुरुषवादी जकड़न और बाजारवादी दृष्टि से मुक्त होने की जरूरत है, जिसका वे चाहे-अनचाहे शिकार हो जाती हैं।

उन्होंने कहा कि स्त्रियों को अपने सौंदर्य की कसौटी खुद गढ़ने की जरूरत है। उन्हें पुरुषों के लिए नहीं, अपने लिए सुंदर दिखने की जरूरत है। सौंदर्य के चालू मुहावरों के हिसाब से नहीं वरन अपने जरूरत के मुताबिक अपने सौंदर्य की नयी परिभाषा गढ़ने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि यहां असल लड़ाई निर्णय के अधिकार और समानता की है जिससे यह पुरुषवादी समाज हर क्षण आतंकित रहता है। गुजरात की कवयित्री योगिनी श्क्ल की कविता की ओर ध्यान खींचते हुए उन्होंने कहा कि हमारे यहां श्रृंगार की कविताएं खूब होती हैं। विडंबना देखिये कि स्त्रियों को रोशनी कहते हैं और उनसे उनका सूरज छीन लिया जाता है। उन्होंने कहा कि आकर्षण सिर्फ सूरत का नहीं, सीरत का भी होता है। उन्होंने बताया कि पूर्वोत्तर में सूर्य को स्त्राी माना जाता हैµयानी शक्ति का प्रतीक स्त्री है। यह दो संस्कृतियों व मानसिकता के सामाजिक ढांचे में एक महत्त्वपूर्ण फर्क को रेखांकित करता है। 

समारोह के मुख्य अतिथि प्रसिद्ध चिंतक भाषा रिसर्च एंड पब्लिकेशन सेंटर के सचिव तथा रमणिका फाउण्डेशन के ट्रस्टी सदस्य गणेश नारायण देवी ने युद्धरत आम आदमी पत्रिका के विशेषांक हाशिये उलांघती स्त्री का विमोचन किया और गोष्ठी के उद्घाटन व्याख्यान में कहा कि शिक्षा और चिकित्सा के स्तर पर केवल गरीब स्त्रिायों की ही नहीं सम्पन्न स्त्रियों की भी उपेक्षा की जाती है। उन्होंने बताया कि पश्चिमी देशों में तो उन्नीसवीं सदी के मध्य तक महिलाओं को लेखक ही नहीं माना गया। हमारे यहां स्थिति थोड़ी भिन्न थी। हमारे यहां मीरा को भले जहर पीना पड़ा था लेकिन उनकी कविताएं घर-घर पहुंचीं। उन्होंने कहा कि अब स्त्रियों की दशा में थोड़ा सुधार आया है और देश में शिखर के संवैधानिक पदों पर महिलाएं जरूर आ गयी हैं पर आम महिलाओं की हालत में कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं आया है। अखबार की खबरों का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि महिलाएं और भी असुरक्षित होती जा रही हैं। एक तरफ देश का विकास हो रहा है और इस इन्फ्रास्ट्रक्चरल विकास का बोझ जैसे महिलाओं के सिर पर ही डाल दिया गया है। उन्होंने ‘हाशिये उलांघती स्त्राी’ विशेषांक के प्रकाशन को तमाम निराशाओं के बीच अंधेरे में उम्मीद की चमक बिखेरने वाला ऐतिहासिक घटना कहा। उन्होंने आगे कहा कि स्त्री-स्वर का इस स्वरूप में आना एक नयां इतिहास गढ़ना है। आशीष नंदी को याद करते हुए उन्होंने कहा कि गांधीजी ने सत्याग्रह, सविनय अवज्ञा और नमक सत्याग्रह का तरीका स्त्रियों से ही ग्रहण किया। उन्होंने साहित्य अकादमी से अपेक्षा की कि इन दोनों खण्डों का सम्मिलित भाषाओं में भी अनुवाद किया जाना चाहिए।

कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे प्रख्यात कवि तथा ललित कला अकादमी के अध्यक्ष अशोक वाजपेयी ने अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा कि साहित्य अपने अंधेरों के समक्ष खड़ा होने की हिम्मत जुटाता है, उससे भागता नहीं है और न ही उसे छुपाने की कोशिश करता है। स्त्रियों का यह लेखन साहित्य में लोकतंत्रा को मजबूत स्थिति प्रदान करता है। इस संग्रह में संग्रहित कविताओं को उन्होंने नयी दुस्साहसिकता का उपक्रम कहा। रमणिका गुप्ता की बात की ताईद करते हुए उन्होंने कहा कि साहित्य का सृजन करने वाली स्त्रियों को पुरुषों की स्थापित सौंदर्य दृष्टि से अलग हट कर अपनी सौंदर्य दृष्टि गढ़नी चाहिए। साथ ही यह अपेक्षा भी दर्ज की कि स्त्रियों के साहित्य से एक नये तरह का कर्म-सौंदर्य निकलना चाहिए। उन्होंने कहा कि स्त्रियां अपने लेखन में बहुत हद तक सामाजिकता की बात करती हैं लेकिन उसमें उनकी अंतरंगता गायब है। 

प्रसिद्ध कवयित्री एवं युद्धरत आम आदमी के ‘हाशिये उलांघती स्त्री’ के विशेष अंक की अतिथि संपादक अनामिका ने अपने बीज भाषण में बताया इस संकलन में संकलिता कविताएं एफ.आई.आर. की तरह उपस्थित हैं। यह स्त्री आंदोलन ऐसा आंदोलन है जिसने एक बूंद भी खून नहीं बहाया और चहुंमुखी विस्तारित हो रहा है। स्त्रियों को अपने भीतर झांकने के लिए प्रेरित करती हैं ये कविताएं नए मानदंड, नए प्रतिमान गढ़ती हैं ये कविताएं। उन्होंने कहा कि स्त्री चेतना की बेल कैद की दीवारों के ऊपर चढ़ कर आजादी का अनुभव करने लगी हैं। उन्होंने कहा कि यह बेल अब इस कदर ऊपर चढ़ गयी है कि हमें अब इनसे आनंद फल पाने की उम्मीद बांधनी चाहिए। 

मलयालम की आलोचक के. वनजा ने दक्षिण भारत में स्त्री मुक्ति की काव्यधारा के विकास पर अपना आलेख पढ़ा। युद्धरत आम आदमी की सहयोगी संपादक दलित आलोचक एवं कवयित्री हेमलता महिश्वर ने उत्तर भारत की काव्य धारा में स्त्री मुक्ति के अंकुरों के पेड़ बनने तक की विकास यात्रा का ब्योरा देते हुए बताया कि समस्त कवयित्रियों के स्वर में एकसूत्राता दृष्टव्य होती है। यह एकसूत्राता स्वयं के प्रति निष्ठुर समाज के प्रत्येक अत्याचार का विरोध अभिधा, व्यंजना एवं लक्षणा में व्यक्त करती हैं। यह पहला अवसर था जब बाइस विभिन्न भारतीय भाषाओं की स्त्रीवादी कवयित्रियां, दिल्ली में एक मंच पर उपस्थित हुईं। इस सत्रा में के. वनजा की ‘चित्रा मुद्गलः एक मूल्यांकन’ नामक आलोचनात्मक पुस्तक का विमोचन अशोक वाजपेयी और गणेश देवी ने किया। 

उद्घाटन सत्रा में सलमा, प्रतिभा नंदकुमार, ग्रेस कुजूर ने काव्य पाठ किया। तीसरे सत्रा में दीप्ति नवल का शामिल होना कार्यक्रम का अतिरिक्त आकर्षण था। कविता-पाठ के तीन सत्रों में अपनी कविताओं से श्रोताओं को आंदोलित करने वालों में प्रमुख थी बी. संध्या (मलयालम), कुट्टी रेवती (तमिल), शाहजहाना (तेलुगू) सोमा बंद्योपाध्याय (बांगला), मीनाक्षी गोस्वामी बरठाकुर (असमिया), जोगमाया चकमा (चकमाµत्रिपुरा) हीरा बनसोडे (मराठी), उषा उपाध्याय (गुजराती), दाँङी चाँडथू (मिजो), लाइरेनलाकपम (पैतैµमणिपुरी), निरुपमा दत्त(पंजाबी), शुभा, सविता सिंह, रंजना जायसवाल, अनिता भारती (हिंदी), विभा रानी (मैथिली), निर्मला पुतुल (संथाली), सरिता बड़ाइक (नगपुरिया झारखंड), दरख़्शां अंदराबी (कश्मीरी), तरन्नुम रियाज (उर्दू)श्, दीप्ति नवल, लक्ष्मी कन्नन (अंग्रेजी)। इस आयोजन में हिन्दी की तीन, अंग्रेजी की दो, उर्दू, मराठी, गुजराती, पंजाबी, बांगला, ओड़िया, मिजो, चकमा, मणिपुरी-पैतै, असमिया, संथाली, नगपुरिया, कश्मीरी, तेलुगू, मलयालम, कन्नड़ भाषा की एक-एक, तमिल की दो। 

रमणिका गुप्ता द्वारा संपादित ‘युद्धरत आम आदमी’ के ‘हाशिये उलांघती स्त्री’ कविता अंक की अतिथि संपादक हैं अनामिका। सम्पादन सहयोग में हेमलता महिश्वर, कंचन शर्मा और उषा उपाध्याय, साॅलजी थॅमस, हरीश परमार हरप्रीत और विपिन चैधरी का नाम लिया गया!

भारतीय स्त्री कविता के इस भास्वर संकलन पर 2004 से काम शुरु हुआ। सात-आठ वर्षों के अथक संयुक्त श्रम का नतीजा है हिन्दी और हिन्दीतर कविताओं पर केन्द्रित ये दो भाग जिनका लोकार्पण इस अवसर पर गणेश नारायण देवी के हाथों हुआ। स्त्री-मुक्ति आंदोलन की चार पीढ़ियाँ भारतीय भाषाओं में अपनी सर्जना का प्रकाश कैसे फैला रही हैµ इसका जायजा यहाँ मिलता है।

इस अवसर पर रमणिकाजी की कहानी ‘नई मेनका’ का सजीव पाठ एवितोको की ओर से मुम्बई की विभा रानी ने किया। विभा रानी के नाटक ‘आओ तनिक प्रेम करें’ और ‘अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो’ पर मोहन राकेश अवार्ड 2005 मिला। उनके ब्लाॅग ‘छम्मकछल्लो कहिस’ पर 2009 में लाडली इंडिया अवार्ड मिला। कार्यक्रम के तीन सत्रों का कुशल संचालन अल्का सिन्हा, सुधीर सागर और पूनम तुषामड़ ने किया।"

बुधवार, 28 दिसंबर 2011

एक पुराना संस्मरणात्मक लेख

एक पुराना संस्मरणात्मक लेख

(यह लेख 16 अगस्त 2010 को यहाँ  लिखा था )



कवि गोपालदास नीरज जी का अभिनन्दन व काव्यपाठ  :  वीडियो 
स्वाधीनता दिवस के अवसर पर 
- (डॉ.) कविता वाचक्नवी 






गत वर्ष २००९ के १५ अगस्त (स्वाधीनतादिवस) के अवसर पर  हैदराबाद में कवि गोपालदास नीरज जी के अभिनन्दन व काव्यपाठ का एक आयोजन रखा गया था. आयोजकों द्वारा मुझे भी आमंत्रण व सूचना मिली. उन दिनों हैदराबाद में ही थी व यूके के लिए प्रस्थान करने ही वाली थी. तिथियाँ तो ठीक से स्मरण नहीं किन्तु एकदम यात्रा सिर पर थी और अत्यंत भागदौड़ व मेलमिलाप की औपचारिकताओं का दबाव भी था. पुनरपि नीरज जी के काव्यपाठ का जादू अपने मोहपाश में काव्यप्रेमियों को खींचता ही है, इसलिए यह संभव ही नहीं था कि इस सुअवसर से वंचित रहा जाए. कार्यक्रम कई घंटे का व दो किश्तों में था. बीच में जलपान (जो लगभग रात्रिभोजन  सरीखा ही था) सहित  नीरज जी को मित्रों के साथ मिलकर सुनना एक बहुत ही स्मरणीय व आनंददायक संस्मरण के रूप में परिणित हुआ .





 नीरज जी व्हीलचेयर पर थे  पुनरपि अपनी उसी जिजीविषा व मस्ती में उन्होंने घंटो काव्यपाठ किया. साथ ही जीवन के इस दौर में बुढापे की अवस्था  में लिखी कई कविताएँ भी सुनाईं, जिनमें  जीवनदर्शन और जीवनानुभव का ताप सहज ही अनुभव किया जा सकता था. साहित्यिक अभिरुचि वाले श्रोताओं की इच्छा व माँग पर कई पुरानी रचनाओं का पाठ भी उन्होंने किया. फ़िल्मी लेखन के उनके जादू से प्रभावितों ने उनकी फिल्मों में प्रयोग हुई कई रचानाओं को मनोयोग पूर्वक आग्रह करके सुना. आश्चर्य की बात कि अपनी इस अवस्था में भी नीरज जी उतने ही सजग हैं व स्मरणशक्ति भी सचेत है कि लगभग ४-५  घंटों का कवि सम्मलेन व आयोजन वे सहज ही अपने दम पर निभा गए. सच में वह एक अविस्मरणीय साँझ थी.  मंचीय कविसम्मेलनों में साहित्यिक रचनाधर्मिता का युग जैसे नीरज जी पर आकार थम जाता है. आज की मंचीय कविता की जो गति-मति है, उसे तो कविता की श्रेणी में परिगणित करना भी अपराध है.  




दुर्भाग्य यह रहा कि मैं उनके काव्यपाठ के वीडियो  नहीं ले पाई. कार्यक्रम के पश्चात् संयोजकों-आयोजकों को संपर्क कर आग्रह किया कि वे नीरज जी के वीडियो उपलब्ध करवा दें, कोई सीडी हो तो उसकी कॉपी ले ली जाए (उन्होंने सम्पूर्ण कार्यक्रम की विधिवत्  रेकार्डिंग करवाई थी) ; किन्तु उनका रुख इस आयोजन के पीछे विशुद्ध व्यापारिक ही उजागर हुआ कि वे इसकी सीडी बनवा कर बाजार में उतारेंगे व तब मार्केट से खरीदी  जाएँ. वह कब संभव होगा का भी कोई संतोषजनक उत्तर नहीं मिला; उलटे, दाता व याचक जैसी भंगिमा व स्वर ही सुनने देखने को मिले.





देश विदेश के कई मित्रों ने  उलाहना भी दिया कि `आज के सर्वसुविधासम्पन्न समय में  ऐसे अवसर के वीडियो तक आप नहीं जुटा पाईं, यह तो हद है'.




गत  दिनों उस कार्यक्रम के कुछ वीडियो मुझे दिखाई दे गए. अप्रैल से एक एक कर उन्हें सहेजते हुए रख रही थी. किन्तु सबको एकत्र कर प्रस्तुत कर पाना संभव ही नहीं हो पा रहा था. अब क्योंकि कल उस अवसर को एक वर्ष पूरा हुआ है, स्वाधीनता दिवस के उस काव्यपाठ की पहली वार्षिकी है ( व आगामी कुछ माह नेट को यदा कदा ही छूना हो पाएगा),  इसलिए आज सभी के अवलोकनार्थ नीरज जी के उस काव्यपाठ के टुकड़ा टुकड़ा अंश समेकित रूप में यहाँ प्रस्तुत हैं - 













































मंगलवार, 13 दिसंबर 2011

दौड़ में शामिल लोग...

 दौड़ 
(डॉ.) कविता वाचक्नवी

(कविता का पहला ड्राफ्ट ) 





दौड़ में शामिल लोग
चौकन्ने होते हैं
संबंध बनाने में,
विजेता कहलाए जाने के लिए
स्थापित विजेताओं के प्रति विनम्र होने में,
सुर्खियों में रहने के लिए
प्रचारक तंत्र के प्रति
और
विजेता घोषित करने वाले निर्णायकों के साथ भी;


दौड़ते हैं बार बार
उसी दौड़ पट्टी पर
जहाँ हर बार
अधिक बार
जीतने की संभावनाएँ प्रबलतर हों
दौड़ में पछाड़ सकने वाले से
पिछड़ जाने के खतरों के प्रति
सावधान लोग
दौड़ के प्रतिद्वंद्वियों से
हरदम सचेत रह कर
बौना करने की जुगत रचाते
थकते नहीं कभी
और दौड़ते रहते हैं
दौड़पट्टी की गोलाकार अंतहीन चौहद्दियों में
पस्त हो जाने की हद तक
विजेता घोषित होने तक
या फिर
पराजित हो जाने के
परिणामों के बाद तक .....


वे नहीं जानते
पिछड़ना खूबसूरत हो सकता है
या दौड़ से बाहर रहना भी कला ;
यह दौड़ जो बाहर है
हर बार विजेता बदल जाते हैं इसमें ,
खिलाड़ी रोज नए आते हैं
और
वह दौड़ जो भीतर है
वह है सर्वदा
अंतहीन
नितांत अकेले हो जाने तक
अपने अंत तक
अर्वाचीन !!


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