रविवार, 11 अक्टूबर 2009

हँसता हुआ आया ....

 - (डॉ) कविता वाचक्नवी

अपनी पुस्तक "समाज-भाषाविज्ञान : रंग शब्दावली : निराला काव्य"  (हिन्दुस्तानी एकेडेमी, इलाहाबाद, 2008) की सामग्री के अंशों पर आधृत लेख


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(रंग शब्दावली के समाजभाषिक विश्लेषण तथा निराला के सम्पूर्ण काव्य का इस दृष्टि से अध्ययन करने वाले हिन्दी में यह पहली व अब तक की एकमात्र पुस्तक है )



वसंत पंचमी। सूरज ने करवट बदली। कुहासे ने रजाई तहाई। भरपूर अंगड़ाई लेकर धरती जाग उठी। दुबक कर सोए उसके अद्भुत रूप की छ्टा जो फैली तो सारी प्रकृति अपने समस्त साधनों से उसके सिंगार में जुट गई। रंग छलके पड़ते हैं, पेड़ों, पत्तों, लताओं, फूलों, पौधों, वनस्पतियों से। 

सारे के सारे रंग जिस एक उजले रंग से फूटते हैं, भारतीय मनीषा ने उसके पुंजीभूत सौंदर्य को बड़ी सरस संज्ञा प्रदान की है — सरस्वती। श्वेत रंग का एक रूप आँखों को चौंधियाने वाला है। उसे हमने सूर्य कहा। आदित्य। नारायण। हिरण्यगर्भ। ब्रह्म है वह। पर श्वेत रंग का एक पक्ष बहुत शीतल है। कुंद, इंदु और तुषार जैसा शीतल। उसे हमने साहित्य, संगीत और कला का नाम दिया। शारदा, भारती, वाग्देवी, सरस्वती कहकर पूजा। वसंत पंचमी शब्द और अर्थ की उसी अधिष्ठात्री देवी के अवतरण का पर्व है।


[Nirala+ji+++by+Prabhu+Joshi.jpg]हिंदी साहित्य जगत् में वसंत पंचमी का यह पर्व ’निराला’ के भी अवतरण का पर्व है। सरस्वती का श्वेतवर्ण ’निराला’ को बहुत प्रिय है। श्वेत, धवल और ज्योति, उनके यहाँ पर्याय हैं और स्वच्छता, तेज तथा निर्मलता की व्यंजना से युक्त हैं। ’निराला’ ने ’श्वेत’ का, श्वेत वर्ण का अधिकांश प्रयोग प्रकृति के साथ किया है। श्वेत शतदल, श्वेत गंध और श्वेत मंजरी उनके प्रिय प्रयोग हैं। स्वच्छता और पवित्रता को प्रकट करने के लिए उन्होंने श्वेत वसन, श्वेत शिला और धवल पताका जैसे प्रयोग किए हैं।


ज्योत्स्ना और ज्योति — ये दो शब्द ’निराला’ के काव्य में बहुतायत से आए हैं, जो श्वेत की शीतल और प्रखर छवियों को अलग-अलग उभारते हैं। वत्सलता को व्यंजित करने के लिए धवल का प्रयोग है — दुग्ध धवल। किस्सा कोताह यह कि श्वेत वर्ण की परिकल्पना में ’निराला’ के समक्ष सरस्वती है, भारती के रूप में भारतमाता है, प्रकृति है, रात की चाँदनी की शीतलता है और हैं नदियों पर पड़ती नक्षत्रों की परछाइयाँ।




वसंत का आगमन स्फूर्ति, नवता, ताज़गी और जीवनी शक्ति का उन्मेष है। यही तो सौंदर्य भी है — "क्षणे-क्षणे यत्  नवतामुपैति, तदेव रूपं रमणीयतायाः "। सौंदर्य सरस्वती का वरदान है और साहित्य सौंदर्य की सृष्टि। तभी तो साहित्य को भाषा पर झेला गया सौंदर्य कहा गया है। ’निराला’ का अपनी भाषा पर इस सौंदर्य को झेलने का अंदाज भी निराला है। उनके काव्य में प्रकृति अनेक रूप धरकर उनकी अनुभूतियों में पग कर सामने आती है। वे प्रकृति को अपनी निजी दृष्टि से देखते हैं। उधार लेना तो वे जानते ही नहीं। उनकी यह निजता ही उनके काव्य की शक्ति है। इस निजता को उनकी कविता की बुनावट में इस्तेमाल किए गए रंगों के आधार पर भी रेखांकित किया जा सकता है। ऐसा करना वादों और विवादों से दूर रहकर उनकी काव्यभाषा के मर्म को पकड़ने के लिए भी ज़रूरी है।

प्रकृति का एक रंग ले लें — हरा। वसंत के साथ वसुधा का हरा रंग स्वाभाविक रूप से जुड़ा है। ’निराला’ ने इस हरियाली को कभी हरित ज्योति, हरित पत्र, हरित छाया, हरित तृण, हरित वास, हरी ज्वार, हरा शैवाल, हरा वसन और हरी छाया के रूप में देखा है तो कहीं हरा-भरा नीचे लहराया, खेती हरी-भरी हुई, हरे-हरे पात और हरे-हरे स्तनों पर खड़ी कलियों के माल के रूप में दिखलाया है। हरेपन से संबंधित सामान्य अनुभूति को ’निराला’ ने बड़ी सहजता से काव्यपंक्तियों में ढाल दिया है। जैसे — "हरियाली के झूले झूलें"। "पत्तों से लदी डाल, कहीं हरी कहीं लाल"। "हरे उस पहाड़ पर"। "बड़े-बड़े हरे पेड़"। "हरियाली अरहर की"।

केवल हरा ही क्यों? लहराते धान के खेतों का रंग लोकचित्त में धानी बन जाता है —

“मेहराबी लन्तरानी है,
लहरों चढ़ी जो धानी है”।

वसंत के साथ वसन्ती का ज़िक्र न हो तो रंगों की बात कभी पूरी नहीं हो सकती। वसंत ऋतु में प्रकृति के सौंदर्य को बताने के लिए ’निराला’ ने एक ओर तो वासन्ती वसन तथा वासन्ती सुमन का प्रयोग किया है और दूसरी ओर – "फूटे रंग वसन्ती" – और – "यह वायु वसन्ती आई है "– कहकर रंग और गंध में वसन्त को मूर्तिमन्त किया है।


’निराला’ वसंत के अग्रदूत हैं। हिंदी कविता में उनका आगमन रूपहले ऋतु-परिवर्तन का पिक कूजन है। वसन्त हँसता हुआ जब आता है, उसके आने पर पेड़-पौधे लताएँ (जो तरुणियाँ हैं) और यहाँ तक कि पुराने पेड़-पौधे तक भी आहलादित हो उठते हैं। पुराने पत्ते शाख से टूटने लगते हैं। प्रकृति परिवर्तन का वसंत-आगमन के बाद का यह चित्र अपने में सम्पूर्ण है —

“हँसता हुआ कभी आया जब
वन में ललित वसन्त
तरुण विटप सब हुए, लताएँ तरुणी
और पुरातन पल्लव दल का
शाखाओं से अन्त।"


वसंत की रातें मधु की रातें होती हैं। वसंत मिलन की ऋतु है। संयोग की ऋतु। रस राज शृंगार की ऋतु। रति और कामदेव की दुलारी इस ऋतु की रातें प्रिय के अंक में दृग् बंद किए सोने की रातें हैं। ’निराला’ की दृष्टि ऐसी मादक रात में जुही की कली पर जाती है। उसकी कोमलता और उसके सौंदर्य की तुलना तरुणी सुहागिन नववधू से करते हुए उन्होंने जो अद्भुत चित्र खींचा है, वह अमर है —

“विजन वन वल्लरी पर
सोती थी सुहाग भरी
स्नेह स्वप्न मान
अमल-कोमल तनु तरुणी जुही की कली
दृग् बंद किए शिथिल पत्रांक में
वासन्ती निशा थी”।

इतना ही नहीं, वसंत में समय पर पानी पड़ जाए तो नवीन पल्लव इस तरह लहरा उठते हैं कि पेड़ फूले नहीं समाते। प्रकृति कि इस प्रफुल्लता को ’निराला’ ने यों गाया है —

“पानी पड़ा समय पर, पल्लव नवीन लहरे
मौसम में पेड़ जितने, फूले नहीं समाए
महकें तरह-तरह की, भौंरे तरह-तरह के
बौरे हुए विटप से लिपटे, वसंत गाए”।


’निराला’ ने प्रकृति के यौवन का रंगा-रंग शृंगार चित्रण अपने गीतों में किया है —


“पत्तों से लदी डाल
कहीं हरी कहीं लाल
कहीं पड़ी है उर में
मंद गंध पुष्प-माल
पाट-पाट शोभा श्री
पट नहीं रही है”।

वसंत के ये सारे रंगीन चित्र ’निराला’ के व्यक्तित्व की गहरी रागात्मकता और सौंदर्यचेतना के साथ-साथ जीवन के प्रति उनकी आसक्ति और लोक व प्रकृति के प्रति अनुरक्ति के द्योतक हैं। ’निराला’ यौवन के कवि हैं। आवेग, स्फूर्ति और गत्वरता के कवि हैं। प्रकृति का जो शृंगार-चित्रण उन्होंने किया है, उससे उनकी उद्दाम सर्जना शक्ति और प्रबल साइकिक एनर्जी की सूचना मिलती है। वसंत पंचमी से आरम्भ होने वाली मधु-ऋतु शृंगार और बहार की ऋतु है —

कहीं की बैठी हुई तितली पर जो आँख गई
कहा, सिंगार के होते हैं ये बहार के दिन




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सोमवार, 5 अक्टूबर 2009

जब भीतर बरसात न हो तो इन की लिपटन सुहाती ही है

......पर जब भीतर बरसात न हो तो इन की लिपटन सुहाती ही है.......

कल रात सोते सोते में लन्दन का मौसम एकदम बदल गया | लगता है, रात-भर बरखा हुई......
पर रात को तो लिखते हुए  मैं  देर तक जग ही रही थी, बिना आहट टिम टिम बुदकी-सी फुहार गिरी जान पड़ती है | 



इसी ठण्ड और बूँदाबांदी  में  जूते - जैकेट चढ़ा कर सुबह के नियमित भ्रमण  पर निकले | घर से सटी  झील का चक्कर लगाया | चश्मे के कांच पर बाहर बूँदें लिपट लिपट गईं |

.... पर जब भीतर बरसात न हो तो इन की लिपटन सुहाती ही है | ....सो सुहाती रही |  सारस, बतखें, बगुले अपनी धमाचौकड़ी छोड़ जाने कहाँ गुम  थे आज | 

फिशिंग वालों ने भी आज बहुधा अपने टेंट समेट लिए दिखाई पड़े | आधा घंटा तेज टहल कर लौटे तो जैकेट और जूते भीगे हैं | 


सुई की नोक-सी अदृश्य बूँदे अभी भी  गिर रही हैं |

संसार का जीवन विकट से विकट वातावरण में भी रुकता नहीं, फिर यह तो अभी शुरुआत है | ठण्ड अभी तो शुरू भी नहीं हुई | इसी महीने घड़ियाँ एक घंटा पीछे कर दी जाएँगी |  तब ठण्ड की घोषित शुरुआत होगी |

समय हमारी पकड़ से दूर होते हुए भी हमारी मुट्ठी में कैसे कैद रहता है न ....







गुरुवार, 1 अक्टूबर 2009

ठोकरें

ठोकरें
कविता वाचक्नवी



हर नदी के
गर्भ से
कैसा तराशा
रूप लेकर

हम चले थे,
आपकी ठोकर
हथोड़ों, दूमटों ने
तोड़कर या फोड़कर
आडा़ हमें तिरछा
किया है।



(अपनी पुस्तक  "मैं चल तो दूँ" - २००५ से )