शनिवार, 28 मार्च 2009

कंप्यूटर पर हिंदी प्रयोग की बाधाएँ अतीत की बात

कंप्यूटर पर हिंदी प्रयोग की बाधाएँ अतीत की बात
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा में एकदिवसीय शिविर और संगोष्ठी संपन्न



हिंदी में स्थानीयता के साथ वैश्विक होने की विचित्र क्षमता है - डॉ. गंगा प्रसाद विमल


कंप्यूटर पर हिंदी प्रयोग की बाधाएँ अतीत की बात - डॉ. कविता वाचक्नवी







हैदराबाद, 18 मार्च, 2009।


दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, आंध्र के 12 वें राष्ट्रभाषा विशारद पदवीदान समारोह के उपलक्ष्य में एकदिवसीय ‘हिंदी प्रचारक शिविर’ का आयोजन केंद्रीय हिंदी निदेशालय, भारत सरकार, नई दिल्ली की अनुदान योजना के अंतर्गत किया गया। उच्च शिक्षा और शोध संस्थान के संगोष्ठी कक्ष में आयोजित हिंदी शिविर का उद्घाटन केंद्रीय हिंदी निदेशालय के निदेशक डॉ. के. विजयकुमार ने किया। डॉ. विजयकुमार ने उद्घाटन भाषण में इस बात पर बल दिया कि परिवर्तित परिस्थितियों में हिंदी को आर्थिक लाभ की भाषा के रूप में प्रचारित करने की आवश्यकता है। इसके लिए उन्होंने विविध व्यावसायिक क्षेत्रों में हिंदी में कंप्यूटर के अनुप्रयोग की संभावनाओं को खोजने की जरूरत बताई।


मुख्य अतिथि के रूप में संबोधित करते हुए प्रसिद्ध साहित्यकार और केंद्रीय हिंदी निदेशालय के पूर्व निदेशक डॉ. गंगा प्रसाद विमल ने कहा कि वर्तमान समय में विश्वभर में भाषाओं का रूप बाज़ार द्वारा प्रभावित है। इस परिदृश्य में हिंदी का भविष्य स्थानीय होते हुए वैश्विक होने की उसकी क्षमता के कारण उज्ज्वल है। हिंदी की विचित्र वैश्विक क्षमता की चर्चा करते हुए डॉ. विमल ने जहाँ एक ओर यह ध्यान दिलाया कि हमारे आदिवासी लोकगीतों में ऐसे उत्पादों का विवरण है जिनका वैश्विक स्तर पर व्यापक प्रसार किया जा सकता है, वहीं दूसरी ओर बताया कि हिंदी केवल भारत ही नहीं बल्कि दक्षिण एशिया के सारे देशों में भ्रमण करने में संपर्क भाषा का काम कर रही है क्योंकि इसमें बोलचाल का स्वामित्व है तथा संस्कृति और राजनय के क्षेत्रों में भी हिंदी की क्षमता अद्वितीय है।


उच्च शिक्षा और शोध संस्थान के कुलसचिव तथा प्रमुख भाषाचिंतक प्रो. दिलीप सिंह ने अपने व्याख्यान में हिंदी आंदोलन के हवाले से कहा कि हिंदी को कथित हिंदीतर क्षेत्रों से उठनेवाले आंदोलनों से ही राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय ख्याति मिली है। उन्होंने सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों के अनुरूप भाषा परिवर्तनों की चर्चा करते हुए कहा कि भारतीय भाषाओं की यह शक्ति है कि वे लोक संस्कार को कभी नहीं छोड़तीं। वे इस बात से संतुष्ट दिखाई दिए कि हिंदी तथा भारतीय भाषाओं ने बाज़ार के स्तर पर अंग्रेज़ी को चुनौती दे दी है। उन्होंने बलपूर्वक कहा कि हिंदी के विविध पाठ्यक्रमों को बदलकर प्रयोजनमूलक और रोजगारपरक बनाने की ज़रूरत है। उन्होंने कंप्यूटर को हिंदी के विकास से जोड़े जाने की वकालत करते हुए कहा कि सब प्रकार का ज्ञान-विज्ञान कंप्यूटर पर हिंदी के माध्यम से उपलब्ध कराना बेहद जरूरी है। ऐसी सामग्री के तीव्रगति से मशीनी अनुवाद की संभावना का उल्लेख करते हुए प्रो. सिंह ने यह भी जोड़ा कि मानक भाषा प्रयोग के कारण जहाँ साहित्येतर अनुवाद में कंप्यूटर अधिक सटीकता से कार्य कर सकता है वहीं साहित्यिक अनुवाद में शैली भेद के कारण अभी काफ़ी कठिनाइयों का समाधान करना शेष है।


दो सत्रों में आयोजित ‘हिंदी प्रचारक शिविर’ के प्रथम सत्र में ‘डेली हिंदी मिलाप’ के पत्रकार डॉ. रामजी सिंह ‘उदयन’ ने ‘हिदंी प्रचार की नई चुनौतियाँ’ विषय पर व्याख्यान दिया। उन्होंने कहा कि सबसे बड़ी चुनौती तो हमारी पीढ़ी की निष्क्रियता की है। हिंदी के अनेक बोलीगत तथा क्षेत्रीय रूपों की चर्चा करते हुए डॉ. उदयन ने कहा कि ये सब हिंदी की विविध शैलियाँ हैं और इन सभी को खुले मन से स्वीकृति देना आवश्यक है क्योंकि हिंदी जैसी प्रसारशील भाषा को किसी भी प्रकार की कट्टरता से परहेज करना चाहिए। हिंदी को राष्ट्रभाषा से विश्वभाषा के स्तर तक ले जाने के लिए उन्होंने भाषाई स्वाभिमान को जगाने की जरूरत बताते हुए कहा कि हमारी जीवन शैली में जो द्वैत आ गया है, हमें उससे मुक्त होना होगा तथा चिंतन और व्यवहार की वास्तविक भाषा के रूप में मातृभाषाओं को सम्मानित करना होगा।



प्रथम सत्र की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ हिंदी सेवी और दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, आंध्र के उपाध्यक्ष कडारु मल्लय्या ने याद दिलाया कि दक्षिण में हिंदी का प्रचार स्वतंत्रता आंदोलन के एक अंग के रूप में आरंभ हुआ था। उन्होंने आगे कहा कि स्वतंत्र भारत में हिंदी आंदोलन का उद्देश्य प्राथमिक शिक्षा से लेकर राजकाज, कोर्ट-कचहरी और विभिन्न व्यवसायों तक हिंदी को प्रतिष्ठित करना बन गया है जो निश्चय ही अंग्रेज़ी-मानसिकता के प्रभुत्ववाले इस बहुभाषी देश में अत्यंत चुनौतीपूर्ण कार्य है। कडारु मल्लय्या ने यह भी कहा कि जब तक सरकारी सहायता के साथ-साथ आम जनता का सहयोग नहीं मिलता तब तक हिंदी प्रचार का कार्य पूरा नहीं हो सकता। वरिष्ठ हिंदी प्रचारक चवाकुल नरसिंह मूर्ति और वेंकट रामाराव ने भी स्कूली स्तर पर हिंदी की उपेक्षा को चिंताजनक बताया।


दूसरे सत्र में ‘कंप्यूटर पर हिंदी ः दशा और दिशा’ विषय पर व्याख्यान देते हुए ‘विश्वम्भरा’ की महासचिव डॉ. कविता वाचक्नवी ने कहा कि हिंदी को रोजगारपरक स्वरूप देने में कंप्यूटर बहुत बड़ा वरदान सिद्ध हो सकता है। सारी ज्ञान शाखाओं को भारतीय भाषाओं में कंप्यूटरीकृत करने की चुनौती का उल्लेख करते हुए डॉ. वाचक्नवी ने बताया कि इंटरनेट पर हिंदी में शब्दकोश, पारिभाषिक कोश, मुहावरा कोश, कविता कोश और गद्य कोश की उपलब्धता ने कंप्यूटर पर हिंदी में काम करना आसान कर दिया है। उन्होंने कहा कि हिंदी में ‘सर्च-इंजन’ आ जाने से यह साफ हो गया है कि कंप्यूटर पर काम करने के लिए अंग्रेज़ी जानना अनिवार्य नहीं है। हिंदी के अनेक ‘फांट’ होने से पैदा हुई अराजकता को अतीत की बात बताते हुए उन्होंने कहा कि ‘यूनिकोड’ और ‘फांट परिवर्तकों’ की निःशुल्क उपलब्धता ने हिंदी में सामग्री लिखने, प्रेषित करने, प्राप्त करने और पढ़ने को अत्यंत सुविधाजनक बना दिया है तथा इन्हें न जाननेवाले ही दुरूहता का प्रलाप करते हैं। डॉ. कविता ने कंप्यूटर पर प्रस्तुतीकरण द्वारा हिंदी प्रचारकों को विभिन्न हिंदी ‘साइटों’ से भी परिचित कराया। साथ ही लिप्यंतरण और वर्तनी संशोधन की विधि भी प्रायोगिक रूप में समझाई।


इस अवसर पर दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, आंध्र के अध्यक्ष कोम्मा शिवशंकर रेड्डी ने कहा कि 21 वीं शताब्दी में हिंदी प्रचार के आधुनिकीकरण की आवश्यकता है। अतः इस क्षेत्र में कंप्यूटर की उपयोगिता का पूरा दोहन किया जाना चाहिए। उन्होंने हिंदी प्रचारकों के लिए ऐसे प्रशिक्षण शिविर आयोजित करने की जरूरत बताई जिनमें वे हिंदी व्याकरण, हिंदी उच्चारण, वर्तनी और साहित्य शिक्षण के लिए कंप्यूटर का प्रयोग करना सीख सके। इसी प्रकार कोषाध्यक्ष एम. रघुपति ने हिंदी शिक्षण-प्रशिक्षण में पावर पाइंट पद्धति की व्यापक उपयोगिता पर प्रकाश डाला।


द्वितीय सत्र की अध्यक्षता करते हुए स्टेट बैंक आॅफ हैदराबाद के मुख्य प्रबंधक (राजभाषा) डॉ. विष्णु भगवान शर्मा ने कहा कि बहुभाषिकता भारत का एक सामाजिक यथार्थ है और यह एक सर्वमान्य तथ्य है कि भाषा विभिन्न समाजों और संस्कृतियों को जोड़ने का काम करती है। हिंदी शताब्दियों से इसे सेतुधर्म का निर्वाह करती आई है और आज भी वह भारत की सामासिक संस्कृति का जीवंत प्रतीक है। उन्होंने कंप्यूटर को एक ऐसा वाहन बताया जिस पर आरूढ़ होकर हिंदी भारतीयता को आधुनिक विश्व में सफलतापूर्वक प्रसारित कर सकती है। इसके लिए उन्होंने ‘शब्द संसाधन’ और ‘डाटा संसाधन’ दोनों स्तरों पर व्यापक अनुसंधान की आवश्यकता बताई।


आरंभ में प्रचारक महाविद्यालय की छात्राओं प्रशांति, रेशमा, उर्मिला, नसरीन और सारिका ने मंगलाचरण किया। शिविर निदेशक प्रो. ऋषभदेव शर्मा ने विषय प्रवर्तन और समाहार की जिम्मेदारी संभाली। सत्रों का संचालन डॉ. बलविंदर कौर और डॉ. जी. नीरजा ने किया। परिचर्चा में डॉ. वीणा कश्यप, आर.एल. दलाया, ए.जी. श्रीराम, डॉ. शिखा निगम, जुबेर अहमद, जानी बाषा, डॉ. मृत्युंजय सिंह, डॉ. पी. श्रीनिवास राव, संतराम यादव, शंकर सिंह ठाकुर, राधाकृष्णन, टी. रमादेवी, उमाराणी तथा डॉ. शक्तिकुमार द्विवेदी के अतिरिक्त बी.एड. और प्रचारक महाविद्यालयों के छात्र-छात्राओं ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। राष्ट्रगान के साथ शिविर संपन्न हुआ।





बुधवार, 25 मार्च 2009

हँसता हुआ आया वन में ललित वसन्त

हँसता हुआ आया वन में ललित वसंत


हँसता हुआ आया वन में ललित वसन्त
डॉ. कविता वाचक्नवी





वसंत पंचमी। सूरज ने करवट बदली। कुहासे ने रजाई तहाई। भरपूर अंगड़ाई लेकर धरती जाग उठी। दुबक कर सोए उसके अद्भुत रूप की छ्टा जो फैली तो सारी प्रकृति अपने समस्त साधनों से उसके सिंगार में जुट गई। रंग छलके पड़ते हैं, पेड़ों, पत्तों, लताओं, फूलों, पौधों, वनस्पतियों से। सारे के सारे रंग जिस एक उजले रंग से फूटते हैं, भारतीय मनीषा ने उसके पुंजीभूत सौंदर्य को बड़ी सरस संज्ञा प्रदान की है — सरस्वती। श्वेत रंग का एक पक्ष आँखों को चौंधियाने वाला है। उसे हमने सूर्य कहा। आदित्य। नारायण। हिरण्यगर्भ। ब्रह्म है वह। पर श्वेत रंग का एक पक्ष बहुत शीतल है। कुंद, इंदु और तुषार जैसा शीतल। उसे हमने साहित्य, संगीत और कला का नाम दिया। शारदा, भारती, वाग्देवी, सरस्वती कहकर पूजा। वसंत पंचमी शब्द और अर्थ की उसी अधिष्ठात्री देवी के अवतरण का पर्व है।


हिंदी साहित्य जगत् में वसंत पंचमी का यह पर्व `निराला’ के भी अवतरण का पर्व है। सरस्वती का श्वेतवर्ण ’निराला’ को बहुत प्रिय है। श्वेत, धवल और ज्योति, उनके यहाँ पर्याय हैं और स्वच्छता, तेज तथा निर्मलता की व्यंजना से युक्त हैं। ’निराला’ ने ’श्वेत’ का, श्वेत वर्ण का अधिकांश प्रयोग प्रकृति के साथ किया है। श्वेत शतदल, श्वेत गंध और श्वेत मंजरी उनके प्रिय प्रयोग हैं। स्वच्छता और पवित्रता को प्रकट करने के लिए उन्होंने श्वेत वसन, श्वेत शिला और धवल पताका जैसे प्रयोग किए हैं। ज्योत्स्ना और ज्योति — ये दो शब्द ’निराला’ के काव्य में बहुतायत से आए हैं, जो श्वेत की शीतल और प्रखर छवियों को अलग-अलग उभारते हैं। वत्सलता को व्यंजित करने के लिए धवल का प्रयोग है — दुग्ध धवल। किस्सा कोताह यह कि श्वेत वर्ण की परिकल्पना में ’निराला’ के समक्ष सरस्वती है, भारती के रूप में भारतमाता है, प्रकृति है, रात की चाँदनी की शीतलता है और हैं नदियों पर पड़ती नक्षत्रों की परछाइयाँ।


वसंत का आगमन स्फूर्ति, नवता, ताज़गी और जीवनी शक्ति का उन्मेष है। यही तो सौंदर्य भी है — क्षणे-क्षणे यत् नवतामुपैति, तदेव रूपं रमणीयतायाः। सौंदर्य सरस्वती का वरदान है और साहित्य सौंदर्य की सृष्टि। तभी तो साहित्य को भाषा पर झेला गया सौंदर्य कहा गया है। ’निराला’ का अपनी भाषा पर इस सौंदर्य को झेलने का अंदाज भी निराला है। उनके काव्य में प्रकृति अनेक रूप धरकर उनकी अनुभूतियों में पग कर सामने आती है। वे प्रकृति को अपनी निजी दृष्टि से देखते हैं। उधार लेना तो वे जानते ही नहीं। उनकी यह निजता ही उनके काव्य की शक्ति है। इस निजता को उनकी कविता की बुनावट में इस्तेमाल किए गए रंगों के आधार पर भी रेखांकित किया जा सकता है। ऐसा करना वादों और विवादों से दूर रहकर उनकी काव्यभाषा के मर्म को पकड़ने के लिए भी ज़रूरी है।



प्रकृति का एक रंग ले लें — हरा। वसंत के साथ वसुधा का हरा रंग स्वाभाविक रूप से जुड़ा है। ’निराला’ ने इस हरियाली को कभी हरित ज्योति, हरित पत्र, हरित छाया, हरित तृण, हरित वास, हरी ज्वार, हरा शैवाल, हरा वसन और हरी छाया के रूप में देखा है तो कहीं हरा-भरा नीचे लहराया, खेती हरी-भरी हुई, हरे-हरे पात और हरे-हरे स्तनों पर पड़ीं कलियों की माल के रूप में दिखलाया है। हरेपन से संबंधित सामान्य अनुभूति को ’निराला’ ने बड़ी सहजता से काव्यपंक्तियों में ढाल दिया है। जैसे — हरियाली के झूले झूलेंपत्तों से लदी डाल, कहीं हरी कहीं लालहरे उस पहाड़ परबड़े-बड़े हरे पेड़हरियाली अरहर की। केवल हरा ही क्यों? लहराते धान के खेतों का रंग लोकचित्त में धानी बन जाता है —


“मेहराबी लन्तरानी है,
लहरों चढ़ी जो धानी है”।


वसंत के साथ वसन्ती का ज़िक्र न हो तो रंगों की बात कभी पूरी नहीं हो सकती। वसंत ऋतु में प्रकृति के सौंदर्य को बताने के लिए ’निराला’ ने एक ओर तो वासन्ती वसन तथा वासन्ती सुमन का प्रयोग किया है और दूसरी ओर- फूटे रंग वसन्ती –और – यह वायु वसन्ती आई है – कहकर रंग और गंध में वसन्त को मूर्तिमन्त किया है।


’निराला’ वसंत के अग्रदूत हैं। हिंदी कविता में उनका आगमन रूपहले ऋतु-परिवर्तन का पिक कूजन है। वसन्त हँसता हुआ जब आता है, उसके आने पर पेड़-पौधे लताएँ (जो तरुणियाँ हैं) और यहाँ तक कि पुराने पेड़-पौधे तक भी आह्लादित हो उठते हैं। पुराने पत्ते शाख से टूटने लगते हैं। प्रकृति परिवर्तन का वसंत-आगमन के बाद का यह चित्र अपने में सम्पूर्ण है —


“हँसता हुआ कभी आया जब
वन में ललित वसन्त
तरुण विटप सब हुए, लताएँ तरुणी
और पुरातन पल्लव दल का
शाखाओं से अन्त।“


वसंत की रातें मधु की रातें होती हैं। वसंत मिलन की ऋतु है। संयोग की ऋतु। रसराज श्रृंगार की ऋतु। रति और कामदेव की दुलारी इस ऋतु की रातें प्रिय के अंक में दृग् बंद किए सोने की रातें हैं। ’निराला’ की दृष्टि ऐसी मादक रात में जुही की कली पर जाती है। उसकी कोमलता और उसके सौंदर्य की तुलना तरुणी सुहागिन नववधू से करते हुए उन्होंने जो अद्भुत चित्र खींचा है, वह अमर है —

“विजन वन वल्लरी पर
सोती थी सुहाग भरी
स्नेह स्वप्न मान
अमल-कोमल तनु तरुणी जुही की कली
दृग् बंद किए शिथिल पत्रांक में
वासन्ती निशा थी”।

इतना ही नहीं, वसंत में समय पर पानी पड़ जाए तो नवीन पल्लव इस तरह लहरा उठते हैं कि पेड़ फूले नहीं समाते। प्रकृति की इस प्रफुल्लता को ’निराला’ ने यों गाया है —

“पानी पड़ा समय पर, पल्लव नवीन लहरे
मौसम में पेड़ जितने, फूले नहीं समाए
महकें तरह-तरह की, भौंरे तरह-तरह के
बौरे हुए विटप से लिपटे, वसंत गाए”।


’निराला’ ने प्रकृति के यौवन का रंगा-रंग श्रृंगार चित्रण अपने गीतों में किया है —

“पत्तों से लदी डाल
कहीं हरी कहीं लाल
कहीं पड़ी है उर में
मंद गंध पुष्प-माल
पाट-पाट शोभा श्री
पट नहीं रही है”।

वसंत के ये सारे रंगीन चित्र ’निराला’ के व्यक्तित्व की गहरी रागात्मकता और सौंदर्यचेतना के साथ-साथ जीवन के प्रति उनकी आसक्ति और लोक व प्रकृति के प्रति अनुरक्ति के द्योतक हैं। ’निराला’ यौवन के कवि हैं। आवेग, स्फूर्ति और गत्वरता के कवि हैं। प्रकृति का जो श्रृंगार-चित्रण उन्होंने किया है, उससे उनकी उद्दाम सर्जनाशक्ति और प्रबल साइकिक एनर्जी की सूचना मिलती है। वसंत पंचमी से आरम्भ होने वाली मधु-ऋतु शृंगार और बहार की ऋतु है —

कहीं की बैठी हुई तितली पर जो आँख गई
कहा, सिंगार के होते हैं ये बहार के दिन।




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03.12.2009

शुक्रवार, 20 मार्च 2009

एक समीक्षा और

एक समीक्षा और

गत दिनों जिस पुस्तक के लोकार्पण की सूचना दी थी व तदुपरांत पुस्तक चर्चा के अंतर्गत (स्वतंत्र वार्ता के लिए फिर साहित्य कुञ्ज के लिए) उसकी मीमांसा डॉ. ऋषभ देव जी ने की थी, उसी पुस्तक पर दैनिक हिन्दी मिलाप के लिखा गया उनका रिव्यू भी निजी रूप में लेखक के लिए संजोने की चीज है। उसी का अविकल पाठ साभार यहाँ सहेज सँजो रही हूँ। -






डॉ. कविता वाचक्नवी (1963) हिंदी की प्रतिष्ठित कवयित्री हैं। उनका कविता संग्रह ‘मैं चल तो दूँ’ अपने विषय वैविध्य और शैली वैशिष्ट्य के लिए काफी चर्चित रहा है। वे भारतीय जीवन मूल्यांे के प्रचार-प्रसार में संलग्न संस्था ‘विश्वम्भरा’ की संस्थापक महासचिव है तथा अनेक सामाजिक और साहित्यिक संस्थाओं से संबद्ध है। हिंदी कंप्यूटिंग क्षेत्र में उन्होंने विशेष पहचान अर्जित की है। हिंदी भारत, अथ, संहिता, वागर्थ, बियांड द सेकण्ड सेक्स : स्त्री विमर्श, बालसभा, पीढ़ियाँ, संदर्शन, विश्वम्भरा, ब्लागर-बस्ती, स्वर-चित्रदीर्घा व नव्या जैसे वेब पोर्टलों के साथ-साथ वे भारतीय भाषाओं, साहित्य व मूल्यों के संवर्धन हेतु नेट-समूह ‘हिंदी भारत’ का भी संचालन कर रही हैं। समीक्षा और शोध के क्षेत्र में भी उनका लेखन विशेष सम्मान का अधिकारी रहा है। उनकी सद्य:प्रकाशित कृति ‘समाज-भाषाविज्ञान : रंग-शब्दावलीः निराला काव्य’ (2009) उनकी गहन शोध दृष्टि और अभिनव आलोचना प्रणाली का जीवंत प्रमाण है।

‘समाज-भाषाविज्ञान : रंग-शब्दावलीः निराला काव्य’ में लेखिका ने समाज-भाषाविज्ञान के सिद्धांत और इतिहास की व्याख्या करते हुए निराला के काव्य में प्रयुक्त रंग शब्दावली का विवेचन किया है और हिंदी भाषा में निहित रंग संसार की शाब्दिकता का गहन विश्लेषण प्रस्तुत किया है। उल्लेखनीय है कि समाज-भाषाविज्ञान भाषा को सामाजिक प्रतीकों की ऐसी व्यवस्था के रूप में देखता है जिसमें निहित समाज और संस्कृति के तत्व उसके प्रयोक्ता की अस्मिता का निर्धारण करते हैं। भाषा का सर्वाधिक सर्जनात्मक और संश्लिष्ट प्रयोग साहित्य में मिलता है, अतः समाज भाषाविज्ञान की दृष्टि से उसके पाठ विश्लेषण द्वारा कृति के संबंध में सर्वाधिक सटीक निष्कर्ष प्राप्त किए जा सकते हैं। हिंदी में इस प्रकार के कार्य अपेक्षाकृत विरल उपलब्ध हैं। डॉ.कविता वाचक्नवी की यह कृति इसी बड़े अभाव की पूर्ति का सार्थक प्रयास है।

यह कृति समाज-भाषाविज्ञान के सैद्धांतिक पहलुओं की हिंदी भाषा समाज के संदर्भ में व्याख्या करते हुए रंग-शब्दावली के सर्जनात्मक प्रयोग के निकष पर निराला के काव्य का विश्लेषण प्रस्तुत करती है। स्मरणीय है कि प्रकृतिचेतस काव्य के रूप में स्वीकृत छायावादी काव्य रंगों के प्रति अत्यंत जागरूक है। इस संदर्भ में यह कृति निराला की भाषाई अद्वितीयता को उनके रंग शब्दों के आधार पर विवेचित करने वाली अपनी तरह की पहली कृति है। रंग शब्दों के प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रयोग, रंगाभास और रंगाक्षेप की स्थिति, सादृश्य विधान में रंगों के संयोजन, रंगाधारित मुहावरों के नियोजन, बिंबों की रंगयोजना तथा कवि की विश्वदृष्टि के प्रस्तुतीकरण में रंगावली के आलंबन के सोदाहरण विवेचन से परिपुष्ट यह कृति हिंदी काव्य समीक्षा के क्षेत्र में समाज भाषाविज्ञान के अनुप्रयोग का अनुपम उदाहरण है।

इस कृति के संबंध में प्रसिद्ध समाज-भाषावैज्ञानिक प्रो. दिलीप सिंह का यह कथन इसके महत्व को रेखांकित करने के लिए पर्याप्त है कि ‘रंगों का जीवन और शब्दों का जीवन इस अध्ययन में एकरस हो गए हैं। हिंदी भाषा की शब्द संपदा और इस संपदा में आबद्ध लोकजनित, मिथकीय और सांस्कृतिक अर्थवत्ता की पकड़ से यह सिद्ध होता है कि भाषा की व्यंजनाशक्ति का कोई ओर-छोर नहीं है। इस फैलाव को पुस्तक में मानो चिमटी से पकड़कर सही जगह पर रख दिया गया है। भाषा अध्ययन को बदरंग समझने वालों के लिए रंगों की मनोहारी छटा बिखेरने वाला कविता केंद्रित यह अध्ययन किसी चुनौती से कम नहीं।'

इसमें संदेह नहीं कि साहित्य के समाज-भाषिक अध्ययन के क्षेत्र को डॉ. कविता वाचक्नवी की इस कृति ने सुनिश्चित रूप से समृद्ध किया है तथा यह पुस्तक शोधार्थियों और साहित्य रसिकों के लिए समान रूप से पठनीय और संग्रहणीय है।

समाज-भाषाविज्ञान : रंग-शब्दावली : निराला-काव्य / डॉ. कविता वाचक्नवी
हिंदुस्तानी एकेडमी, इलाहाबाद
प्रथम संस्करण, 2009
मूल्य 150 रु.पृष्ठ 232 सजिल्द।



[डेली हिन्दी मिलाप , हैदराबाद : ८/३/२००९]






सोमवार, 9 मार्च 2009

रंगों का पंचांग

रंगों का पंचांग


रंगों का पंचांग
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फोन के पास रखी घड़ी का समय नहीं बदला मैंने, और न ही अपनी कलाई घड़ी का। ये दोनों अब तक यहाँ साढ़े चार घंटे के अंतर पर चल रही हैं। घड़ी में दिखते समय का अर्थ सिर्फ समय नहीं होता, उससे बँध कर चलता जीवन भी होता है। एक साल हो गया पर अब भी भारत की दिनचर्या, भारत के दिवस और रात्रि की जीवनचर्या मुझे अपने साथ चलाती-उठाती हैं।


त्रोंदहाइम, यहाँ राजधानी के बाद सबसे बड़ा नगर है। शिक्षा और शोध का गढ़ भी। एक वर्ष और कुछ दिन हो गए हमें नॉर्वे आए। मार्च का महीना था वह। 5 मार्च। पिछले वर्ष भारत छोड़कर यहाँ आने से पहले के चार महीनों में जूझ-जूझ कर समेटी, या कहूँ - कुछ बेची, कुछ बाँधी अपनी गृहस्थी के व्यस्त दिनों की याद इस माह आती ही रहती है। कभी कहती - "बस, एक महीने बाद हमें साल पूरा हो जाएगा यहाँ।" या "केवल चार दिन रह गए 5 मार्च में", "आज पूरा एक साल हो गया, बस इसी समय चले थे हम" आदि आदि। और इस "इसी समय" का हिसाब फोन के पास रखी 'नॉर्डमेंडे' की घड़ी से चलता। मेरे लिए सुबह से शाम के चार, पाँच, आठ, दस उस समय बजते जब उस घड़ी पर बजते। मार्च पूरा 5 तारीख का मुख और फिर 5 तारीख की पीठ देखते, ओझल होते देखते बीत रहा है।


तापमान माइनस बाईस डिग्री सेल्सियस या माइनस चौबीस डिग्री सेल्सियस के आसपास चल रहा है। बिना ग्रिल-सुरक्षा की, बीच में से खोखली, दो दीवारों वाली मोटे पारदर्शी काँच की निर्मल खिड़कियों से दिखाई देता प्रत्येक दृश्य ऐसा है जैसे दीवार टँका चित्र। `स्नो` तो दिसंबर में ही 'आइस' बन गई थी। एक रात में तीन-चार बार बुलडोज़र आकर दरवाजों के आगे, रास्तों पर पड़ी हिम का बिछौना तहा कर सड़क के पैताने रख जाता और पंद्रह-बीस दिन में ही सड़कों के पैताने सफेद तकियों का ढेर-सा जम जाता - बर्फ के पहाड़ ! बच्चे ठंड और बर्फ के प्रभाव से बचने वाली अत्याधुनिक विशेष वेशभूषा वाले वस्त्र पहने निश्चिंत इसमें खेलते। घंटों बर्फ के पहाड़ में गुफा बनाकर घुसे रहते और उसमें बैठे खेलते। गुफा के द्वार पर 'स्नो-मैन' को विधिवत् टोपी, मफलर पहना कर दरबान-सा खड़ा किया जाता। छोटे बच्चे आमतौर पर `स्नो बोर्ड` पर बैठकर पहाड़ी से नीचे फिसलने के खेल खेलते हैं और बड़े बच्चे 'आइस-स्केटिंग' करते दिखाई देते।


छह महीने दिन और छह महीने रात वाला यह देश अभी घड़ी देखकर ही दिन-रात की चर्या करता है। दिवस-मध्य में आकाश के एक ओर थोड़ा प्रकाश उभरता और कुछ देर बाद ही लुप्त हो जाता। ये सूर्यदेव के दर्शन हैं। चारों ओर सफेदी की चादर चढ़ी रहती। मकानों की ढालू लाल छतें, पेड़, झाड़ियाँ, पौधे, सड़कें, बगीचे, भवन, ........... सब - सब ओर। केवल अंधमहासागर की काले पानी की कँटीली लहरें युवा विधवा के काले केशों की तरह लहरातीं। भारतीय परिदृश्य से जोड़कर मेरे मन में कोई कहता - "एक सफेदी की चादर ने सारे रंगों को निगला"। मार्च महीना आते-आते यह चादर थोड़ी मैली होने लगी, छीजने लगी और पाँवों में धूल दीखने लगी सफेद पहाड़ियों के।


बच्चों ने जिद करके विशेष चैनल देखने की व्यवस्था करवाई थी। यों, मन तो मेरा भी था। यहाँ टी.वी. सरकारी नियंत्रण में है। लाइसेंस लेकर भुगतान करना पड़ता है। अतिरिक्त चैनलों के लिए एक काले-से बडे़ तवे के आकार वाले यंत्र को छत पर लगवाना पड़ता है।


मैंने 'ऊब्स' से लाई डिब्बा-बंद मशरूम को तल कर शाम को कॉफी बनाई। बच्चों को बादाम-टुकड़ा वाली आइस्क्रीम से पहले आधा-आधा लीटर वाले गत्ते के लंबे डिब्बों में बंद दूध अलग-अलग दिया ही था। फ़्रीजर में से और आइस्क्रीम की मशक्कत करते बच्चों को मना करते-करते कॉफीमेकर के स्टैंड से जार उठा कर बड़े मग में कॉफी उढ़ेलनी शुरू कर ही रही थी कि फोन की अलग धुन वाली घंटी दनदना उठी और उसी से समझ लग गई कि या तो भारत में कोई याद कर रहा है या जर्मनी में। जार को तुरंत वापिस मशीन के स्टैंड पर लगा कर मैं लॉबी की ओर लपकी। यहीं पर चोंगा उठाते-उठाते बगल की सुर्ख सीट वाली आरामकुर्सी पर बैठ गई और तुरंत आदतन "हैय" कह दिया। उधर से "शुभ-शुभ बोलो जी, हाय-वाय न करो, अज्ज ते होली दियाँ वधाइयाँ लओ " सुनते ही खुशी, दु:ख, पछतावा, आश्चर्य, सदमा, झटका - जैसा कई कुछ मुझ पर एक साथ गुजर गया। दीदी ! दीदी बोल रही थीं उधर से - "ओए सोणयो ! पछाणया जे, के भुल्ल गए ओ सानूँ? गोरयाँ नाल रैह्-रैह् के ?" (पहचाना या भूल ही गए हो हमें, गोरों के साथ रह-रह कर?) मेरा तो जैसे रक्त जम गया था, या चलना भूल गया था - "हाय, अज्ज होली हैगी ? सानूँ पता ई नइँ...." (आज होली है ? हाय हमें पता भी नहीं) । दीदी बोलीं - "देस्सी त्यौहार तुहाणूँ क्यों याद रैह्ण्गे? हुण तुसी नवाँ साल, क्रिसमस ते ईस्टर वेखो" (देसी त्यौहार तुम लोगों को क्यों याद रहेंगे ? अब तुम नया साल, क्रिसमस और ईस्टर देखो") ।


बच्चे अब तक मेरे पास आ गए थे। कलाई के ऊपर हथेली को अंदर की ओर घुमाते हुए, गर्दन व भवें ऊपर उठाते हुए वे संकेत में पूछ रहे थे कि किसका फोन है ? मैंने तुरंत बिटिया को फोन दे दिया - "लो, मौसी से बात करो।" पंजाबी नहीं बोलते बच्चे। इसीलिए सब इनसे हिंदी में ही बात करते हैं। बेटी बात कर रही थी। मैंने स्पीकर फोन का बटन दबा दिया और स्वयं को जरा सम्हालने की कोशिश की। दीदी ने पूछा "आज होली खेली भइया के साथ?" बेटी ने कहा - "माँ ने हमें बताया ही नहीं कि आज होली है। मौसी! आपने भी पहले क्यों नहीं बताया ?" मैंने फोन ले लिया और पूछती रही - "बुआ जी के घर से सब लोग आए थे ? आँगन की ईंटों पर तो बाल्टियों से उढ़ेले और पिचकारियों से खींचे रंग की बौछारें कितनी सुंदर लग रही होंगी ? आँगन में दीवार-सहारे खड़ी-चारपाइयों की रस्सियाँ कई दिन तक लाल-हरी रहेंगी ?" पता नहीं किस-किस बीती घटना की फिल्म गुजरती जा रही थी मेरी आँखों के परदे के पीछे। अंत में मैंने (शायद पश्चाताप और ग्लानि के भाव से बचने के लिए भी) शिकायत की - "पिछले पार्सल में भी तुम लोगों ने पंचांग वाला कैलेंडर नहीं भेजा। मैं दिसंबर से लगातार माँग रही हूँ। दीदी ने कहा - "बहाने छड्ड। ऐत्थे कलंडर तक्क के होली खेड्दी सी ? अपणी पुन्नों ते मस्या तक दा पता नईं तैनूँ, ते घड़ी वेखदी रैह् साड्डे ऐत्थे दी। जल्दी मैनूँ होली दी वधाई दे ते सारयाँ नूँ साड्डा प्यार कैह् दईं। तेरे जीजा जी सुणण गे, ते मत्था तरेड़नगे के ओणाँ दी साली रंग लाण ताँ आ नईं सक्कदी, होली तक भुल्ल गई ए। रख रही हाँ हुण फोन, ध्यान रक्खीं बच्चयाँ दा ते अपणा" (बहाने छोड़! यहाँ कैलेंडर देख कर होली खेलती थी? अपनी पूनों और मावस तक का पता नहीं तुझे और घड़ी देखती रहती हो हमारे यहाँ की। जल्दी से अब मुझे होली की बधाई बोल और सबको हमारा प्यार कहना। तेरे जीजा जी सुनेंगे तो माथा सिकोड़कर गुस्सा होंगे कि उनकी साली रंग लगाने तो आ नहीं सकी, होली तक भूल गई। रख रही हूँ अब फोन, ध्यान रखना बच्चों का और अपना )।


बस! यह फोन क्या था, पूरा का पूरा वज्रपात था। पिछले वर्ष होली से कुछ दिन पहले ही हम यहाँ पहुँचे थे। वहाँ से बच्चे पिचकारियाँ तक पैक करवा कर यहाँ लाए थे, पर बदले हुए संसार और बदले हुए वातावरण के कौतुक में इतने निमग्न थे कि होली बीत गई । .... और इस बार भी ???


कॉफीमेकर का स्विच ऑफ करके मैंने थर्मोस्टेट वाले एयरहीटर के पास आरामकुर्सी खींच कर उस पर धम्म से अपने को गिरा दिया। मेरे होंठ खिंचे हुए थे और साँस तेज चलने लगी थी। सच ही तो बात है, क्या होली कभी कैलेंडर देख कर मनाई जाती थी ? वहाँ तो खुली आँखों, बंद आँखों, सब तरह से होली की चहल-कदमी सुनाई पड़ने लगती थी। सचमुच, यह देश बेगाना है! यहाँ के पेड़-पौधे तक बेगाने हैं! कोई मुझे नहीं बताता कि लो सुनो, सूँघो और देखो, ... फिर बताओ कि कौन आ रहा है। और वहाँ ? वहाँ घर पर तो मेरा अम्बड़ा, मेरा जामुन, शहतूत सब बौराए झूमने लगते थे। और तो और, आँगन का नीम तक मिठा जाता था, छोटी-छोटी मधुमिक्खयाँ उसे घेर कर चूमने लगती थीं, सफेद बौर से लद जाता था नीम। कच्चे, हरे, छोटे-छोटे शहतूत झूला झूलते। कोयल तो इतनी बावरी हो जाती अमराई में कि पंचम गाते न अघाती। चीख-चीख कर, मतवाली हो इतना-इतना कूकती कि कई बार खीझ हो उठती थी। टेसू के तन-बदन में अंगारे दहकने को होते, उसकी डालियों की कलाइयाँ लाल चूड़ियों से भर जातीं। पीपल पर लालिमा लिए हरे पारदर्शी पत्ते छूने पर भी शरमा जाते। अशोक की एक-से-एक अटी-सटी टहनियों के जमावड़े में कुछ नन्हीं शाखें छिप-छिपकर बातें सुनने रातों-रात प्रकट हो जातीं। गन्ने, "फिर मिलेंगे" कहकर, जा चुके होते और सरसों के लचीले बूटे सारी देह पर अलंकार धारे मेरे खेतों में स्वर्णिम आभा बिखेरते। कनकों से भरे खेत-खलिहानों में मानो स्वर्ण के अंबार भर जाते, ढेरों-ढेर गेहूँ ! ढेरों-ढेर सोना! इक्का-दुक्का बादाम के पेड़ नंगे बदन पर हरे-धुले वस्त्र धारे अपनी छत तान लेने की वृत्ति से बाज नहीं आते थे।


शहर जाने पर ताँगा रुकवा, कड़े के गिलास में मलाई मारकर लस्सी पीने का जगता लोभ तब किसी की नहीं सुनता था। सिर पर खड़ी परीक्षाएँ भला क्या चीज थीं - फाग मचने पर? बचपन में इन दिनों हम दंगल देखने जाया करते थे। लड़कियों की वहाँ जाने की मनाही को नकारने के कई गुर आजमाए जाते। लौटते हुए हर किसी की जुबान पर एक ही धुन होती - "मेरा रंग दे बसंती चोला, माए, रंग दे, ....." । थोड़ा बड़े होने पर `साहित्य-दर्पण` पढ़ाते, खाँसते- खूँसते गुरुजी ने किसी दिन - "नवपलाश पलाशवनं पुर: , मृदुलतान्तलतान्त मनोहरम् ......" जो उद्धृत किया तो कई दिन तक पलाशवन की मृदुल आग की बात करती बड़ी लड़कियों के हँसने का अर्थ ही समझ नहीं आता था। पर बड़े होने पर हम सहेलियाँ हरियाई लताओं को सींचने वाली शकुंतला का बिंब निर्माण, फाग की अमराई में कच्ची अमियों के फूटने की प्रतीक्षा में मुख ऊपर कर ताकती किसी सुंदरी सखी को देख कर, करतीं। इधर सड़कों के किनारे कच्ची पटरी पर खरबूजे और तरबूजों वाले अपनी-अपनी ढेरियों के पास रात गुजारना शुरू कर रहे होते। कुम्हार के यहाँ से खूब धुआँ उठता, और बाहर वह घुटनों तक अपनी टाँगे साने मिट्टी को रौंदता मिल जाता या चाक पर कुहनियों तक बाँहें चढ़ाए। उसकी लाठी लुकाने की शैतानी भी हमारी दिनचर्या का हिस्सा थी। जलजीरे वालों के लाल कपड़े से ढँके घड़ों वाले ठेले, सड़कों के किनारे लग जाते। बन्टे वाली सोडा बोतल का जमाना आया तो इन दिनों छिप-छिप कर उसकी आजमाईश भी शुरू कर ली जाती। यमुना में पानी बढ़ जाता था। क्यों बढ़ता था, यह बड़े होने पर ही पता लगा। बचपन में तो हम समझते थे कि होली या वैसाखी पर खूब नहाने के लिए अधिक पानी की आवश्यकता पड़ती है, इसलिए बढ़ता होगा। तब नहीं पता था कि पहाड़ की सफेद बर्फ, ठंडी बर्फ, जमी बर्फ, सूरज के प्यार भरे स्पर्श पा खुशी के मारे रो पड़ी होगी।


कटाइयाँ शुरू हो जातीं। तब थ्रेशर नहीं थे। टीले के टीले गेहूँ खेतों में खड़ा हो जाता। सिर, नाक, मुँह पर कपड़ा बाँधे औरतें छाज लेकर दोनों बाहें ऊपर उठाए गेहूँ के दानों की चादर जमीन से सिर तक तान देतीं। सोने के मोती गिरते दिखाई पड़ते। सब ओर रंग ही रंग, खुशी ही खुशी, उत्साह ही उत्साह, काम ही काम, मस्ती ही मस्ती। बैलों के गलों की घंटियों में रंगीन धागे नए सिर से पिरो कर पहनाए जाते। सफेद बैलों की देह पर कई लोग गुलाबी हथेलियों की छाप लगा देते। कितना मनोहर लगता था। हम लोग तो छोटे हो गए कपड़ों को होली की तैयारी में बाहर निकालने की गुहार गाए रहते..... और होली भी तो दस दिन, पंद्रह दिन, पहले ही से नाचना शुरू हो जाती।


हर दुकान वाला अपनी दुकान के चबूतरे पर थालियों में नुकीली रंगीन ढेरियाँ सजा कर बैठ जाता। लोहे के पत्तरे वाला गोल गहरा चम्मच एक ओर पड़ा होता। अबीर की टुकिड़याँ चाँदी-सी चमकतीं। छोटी से लेकर बड़ी तक अनेक चटक रंगों की पिचकारियाँ दुकान में ऊपर टँगी होतीं। शादी के बाद, बच्चों ने भी कमोबेश ऐसा ही फागुन देखा। ये नहीं देख पाए तो केवल खेत और बैल। दीदी ब्याह कर मथुरा गईं तो हमारे लिए कौतूहल बरपा गया, जब उन्होंने आकर बताया कि किस तरह उनके ननदोई को पहली होली पर मथुरा में इनकी सखियों-साथिनों ने लाठियों से घेर कर पर्व मनाया था।


मैं ब्याह कर बंबई आई। जब तक बच्चे छोटे थे, तब तक होली में भीगने की मनाही रही कि दूध पीने वाले बच्चे को ठंड लग जाएगी। बच्चे बड़े हो गए तो बाल्टी भर-भर कर रंग बनाकर उन्हें देती रहती। वे 'पार्किंग एरिया' के आगे आपस ही में खेल लेते, हम फोटोग्राफी कर किलकते। बंबई में रंगपंचमी को रंग खेलने का जोर होता है। वहाँ पास-पड़ोस के साथ मिलकर खेलने का अवसर न हमें मिला, न बच्चों को। एक बार सामने की बाल्कनी वाले फ्लैट में एक सिंधी परिवार रहने आया। उन्हें होली वाले दिन रंग में पुते देखा था तो अपने अकेले पड़ जाने के मलाल को थोड़ी राहत मिली थी, पर जब बच्चों ने जोर से आवाज देकर सामने उंगली करके दिखाया तो बड़ी भाभी के ब्लाउज़ में आगे की ओर शराब की बोतल उढ़ेलते देवर और सारे हँसते रिश्तेदारों को देख घिन भर आई थी।


आज होली से जुड़ी कोई अच्छी-बुरी घटना नहीं घट रही मेरे आस-पास। यहाँ के पेड़-पौधे, लोग, वातावरण ......... कोई भी उन होलियों का साक्षी नहीं है। ये तो उनकी नकल भरना चाहें, तो भी नहीं भर सकते। मैं याद करूँ तो क्या-क्या ? और भूलँ तो क्या-क्या ?


बच्चों को क्या कहकर, कैसे, और कितने दिन, कितने वर्ष बहलाना पड़ेगा- कुछ पता नहीं। मेरी होलियों की यादें बहलाने के लिए और उस बहाने बच्चों को बहलाने के लिए, ठीक यही रहेगा कि आज फिर से वे सारे दृश्य शब्द-शब्द कर इनसे बाँटे जाएँ, जो वर्षों तक हमने जिए हैं। 


और हाँ, जाकर 'क्षॉपमैन्सगाटे' में देखते हैं, कहीं विदेशी पिचकारियाँ और रंग मिल जाएँ ......... तो। 


यहाँ नॉर्वे में भारत से साढ़े पाँच घंटे बाद होली बीतेगी। 

अभी भी समय है ! बहुत देर तो नहीं हुई ..............




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रविवार, 1 मार्च 2009

`प्रेम' और `तटस्थ' : `समकालीन भारतीय साहित्य'

`प्रेम' और `तटस्थ' : `समकालीन भारतीय साहित्य' में



साहित्य अकादमी, (३५,रवींद्र भवन, नई दिल्ली) की प्रतिष्ठित द्वैमासिक हिन्दी पत्रिका `समकालीन भारतीय साहित्य' के नववर्षांक (जनवरी-फरवरी २००९ ) के हिन्दी कविता स्तम्भ में मेरी २ कविताएँ ( `प्रेम' तथा `तटस्थ') प्रकाशित हुई हैं। अंक तो यद्यपि काफी पहले ही आ गया था, किंतु ऐसा सूझा ही नहीं कि उन्हें अपने नेट के मित्रों से बाँटा जाए। इसका मूल कारण अपने लिखे को संकोचवश प्रसारित प्रचारित न करने की वृत्ति का रहा। आत्मश्लाघा जैसा लगता है। अब कुछ सहृदय मित्रों की इच्छा का मान रखते हुए ( विशेषत: अनूप भार्गव जी के पत्र ) इन्हें नेट पर प्रस्तुत करने का मन बनाया है|

तो इन दोनों को अविकल प्रस्तुत कर रही हूँ।


----प्रेम----
- कविता वाचक्नवी
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बात दरअसल इतनी -सी है
कि बच्चे हो गए हैं बड़े


आँगन में सूखे पत्ते बुहारती
माँ की कमर
अब कभी सीधी नहीं होती
झल्लाती है पत्तों पर
कुछ कम गिरा करें वे
अपने न रहने पर
दरवाजे के आगे जमे ढेर में
एकाकी भविष्य वाले
पिता की लाचारी पर
गुपचुप आँख पोंछती है
कि पानी दूर से लाएगा कौन?
अपने रहते सहेजी चीजें
सही हाथों तक
बाँट दी हैं उसने
पोती के पदवीदान का चित्र
लोहे के संदूक से निकाल
देखते
नहीं भरता जी
भरती हैं आँखें।


घुटनों के विश्वासघात से बेहाल
बूढ़ा पिता
खाँसता है लगातार,
धर्मकाँटे पर
रातपाली और बुढ़िया की चिंता करता
कमा लाता है कुछ सौ रुपये
माँ की हथेली
खुली रह जाए
उस से पहले तक सौंपने के लिए
कहीं बच्चों के न पूछने की चोट में
उदास न हो जाए माँ |

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----तटस्थ----
- कविता वाचक्नवी
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बर्फ की आँधी बार- बार आती है
दरककर लुढ़कते उड़ने लगते हैं पहाड़
ढलान पर
सफेदी में खड़े जंगलों से मिल
जमे बर्फीले पत्त्थर
कूद जाते हैं खाईयों में
सूखने लगते हैं रक्त के उबाल
ऊँचाई छूने को उठा कोई हाथ
लुढ़क कर लगातार फिसल जाए
दिग्भ्रम बवंडर की उठान में,
कुछ सामान
अकड़ी हड्डियों वाली ऐंठी देह
जीवाश्म होती रहे निरंतर,


संसार सारे कोहराम के बीच भी
सो लेता है आराम से
क्योंकि उसकी देहरी तक
पहुँचते नहीं तूफ़ान
और घर में
उजाला, आग और रोटी
भरपूर हैं अभी ।

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(पृष्ठ ३४-३५, वर्ष २९,अंक १४१, जनवरी-फरवरी २००९, समकालीन भारतीय साहित्य (साहित्य अकादमी की द्वैमासिक पत्रिका), सम्पादकमंडल : सुनील गंगोपाध्याय, सुतिंदर सिंह नूर, . कृष्णमूर्ति
सम्पादक : ब्रजेन्द्र त्रिपाठी